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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

शिक्षकों के उत्तरदायित्व

  • 14 Jan 2017
  • 13 min read

सन्दर्भ

पिछले कुछ समय से देश में शिक्षा की वास्तविक स्थिति एवं उससे उत्पन्न चिंताओं के सन्दर्भ में विचार-विमर्श करती बहुत सी रिपोर्टें एवं शोध सामग्री प्रकाश में आई हैं| इसी कड़ी के अगले भाग के रूप में आज हम एक बार फिर देश में शिक्षा के गिरते स्तर को जानने एवं उसके प्रत्युत्तर में और बेहतर विकल्प तलाशने का प्रयास करेंगे| जैसा कि ज्ञात है कि शिक्षा के सन्दर्भ में पिछले कुछ समय से बेहद दुखद आँकड़े प्राप्त हो रहे हैं, जिनका गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि स्कूलों में बच्चों के सीखने की प्रिक्रिया में तेज़ी से कमी आई है तथा बोर्ड की परीक्षाओं में निरीक्षकों की अनुपस्थिति के कारण होने वाली धोखाधड़ी के कारण देश में शिक्षा का स्तर बहुत ही नाज़ुक स्थिति में पहुँच गया है | 

प्रमुख बिंदु

  • हालाँकि, “शिक्षा पर जिला सूचना प्रणाली “ (District Information System on Education- DISE) द्वारा देश के 21 राज्यों के सन्दर्भ में प्रस्तुत आँकड़ों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के चार साल (वर्ष 2010 - 14) के समयांतराल में देश में सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़कर 13,498 हो गई है| हालाँकि, इनमें पंजीकृत विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने की बजाय घटकर 1.13 करोड़ के स्तर पर आ गई है, जबकि इसके विपरीत इस समयांतराल में निजी स्कूलों में पंजीकृत होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 1.85 करोड़ का इज़ाफा हुआ है|
  • इसके अतिरिक्त, उक्त समयांतराल में 20 अथवा उससे भी कम पंजीकृत विद्यार्थियों की संख्या वाले “अत्यंत छोटे पब्लिक स्कूलों” (Tiny” Public Schools) की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ की गई है|
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2014-15 में देश में अवस्थित एक लाख “अत्यंत छोटे पब्लिक स्कूलों” में प्रति स्कूल औसतन 12.7 विद्यार्थी पंजीकृत हुए, इन स्कूलों में अध्यापक-छात्र अनुपात (Pupil-teacher ratio) मात्र 6.7 विद्यार्थी प्रति अध्यापक रहा, जबकि प्रति विद्यार्थी एक अध्यापक का वेतन खर्च (Per-Pupil Teacher-Salary Expense) (प्रतिवर्ष) तक़रीबन 80,000 रुपए तथा अध्यापकों का कुल वेतनमान तकरीबन 9,440 करोड़  रुपए रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है|
  • इसके अतिरिक्त, 50 अथवा 50 से अधिक पंजीकृत विद्यार्थियों की संख्या वाले “छोटे” पब्लिक स्कूलों (“Small” Public Schools) की संख्या आश्चर्यजनक रूप से 3.7 लाख के स्तर पर पहुँच गयी हैं जो कि वर्ष 2014-15 में देश में अवस्थित कुल 10.2 लाख निजी स्कूलों का तक़रीबन 36 प्रतिशत है| 
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2014-15 में इन 3.7 लाख “छोटे” पब्लिक स्कूलों (“Small” Public Schools) में प्रति स्कूल औसतन 29 विद्यार्थी पजीकृत हुए, इन स्कूलों में अध्यापक-छात्र अनुपात (Pupil-teacher ratio) मात्र 12.7 विद्यार्थी प्रति अध्यापक रहा, जबकि प्रति विद्यार्थी एक अध्यापक का वेतन खर्च (Per-Pupil Teacher-Salary Expense) (प्रतिवर्ष) तकरीबन 40,800 रुपए तथा अध्यापकों का कुल वेतनमान तकरीबन 41,630 करोड़  रुपए रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है| 
  • अगर हम उक्त आँकड़ों पर गौर करें तो ये पब्लिक स्कूल शैक्षणिक दृष्टि से अव्यावहारिक एवं देश के करदाताओं द्वारा चुकाए जाने वाले कर एवं अन्य उपयोगी संसाधनों की फिजूल खर्ची मात्र प्रतीत होते हैं|
  • ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर वह क्या वजह है जिसके कारण देश में पब्लिक स्कूलों की स्थिति इतनी अधिक भयावह एवं चिंताजनक हो गई है?
  • गौरतलब है कि वर्तमान में देश में अध्यापकों की अनुपस्थिति दर 25 प्रतिशत के करीब है|
  • इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट प्रोब-2 (Report PROBE-2) में निहित सूचनाओं के अनुसार, ऐसे अध्यापक जो स्कूल तो रोज़ाना आते है परन्तु कक्षा में उनकी अनुपस्थिति बहुत कम है, के साथ-साथ शिक्षा का अधिकार अधिनियम में निहित प्रावधानों एवं नियमों के अनुपालन एवं अध्यापकों की अनुपस्थिति जैसे मुद्दों के विषय में शिक्षा अधिकारियों की अयोग्यता (जिसका प्रमुख कारण अध्यापकों को शक्तिशाली संघों तथा एमएलए/एमएलसी द्वारा प्राप्त समर्थन होता है) इत्यादि कुछ अन्य प्रमुख कारण हैं जिनके प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की शिक्षा स्थिति पर परिलक्षित होते हैं|
  • यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों द्वारा की जाने वाली इस कामचोरी का कारण कम वेतनमान कतई नहीं है क्योंकि पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों को न केवल देश के निजी स्कूलों के अध्यापकों बल्कि अन्य देशों के अध्यापकों की अपेक्षा बहुत अच्छा वेतनमान प्रदान किया जाता है|
  • गौरतलब है कि राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (National University of Educational Planning and Administration-NUEPA) द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2014 में भारत के पब्लिक स्कूलों में कार्यरत अध्यापकों का वेतनमान औसतन 4.8 लाख था, जो कि देश की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में सात गुना अधिक है|
  • इसके विपरीत चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा इंडोनेशिया के पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों का वेतन इन देशों की अपनी-अपनी प्रति व्यक्ति आय की तुलना में दोगुना कम है|
  • ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, देश के नीति-निर्माताओं को उपरोक्त सभी समस्याओं के सन्दर्भ में प्रभावी निर्णय लेने एवं इस समस्या को जड़ समेत उखाड़ फेंकने का एक बेहतर अवसर प्रदान करती है| 
  • हालाँकि, जैसा कि हम सभी जानते हैं, आगम आधारित नीतियों (Inputs-based policies) को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकार कर दिया गया है, ऐसे में भारत के “शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009” के अंतर्गत आगम आधारित नीतियों (ये नीतियाँ जवाबदेहिता की उपेक्षा करती है) को बढ़ावा प्रदान किया गया है|
  • अतः नई शिक्षा नीति के अंतर्गत आवश्यक है कि “जवाबदेहिता” (Accountability) के प्रावधान को और अधिक प्राथमिकता प्रदान की जाए|
  • गौरतलब है कि शैक्षिक रूप से अग्रणी (advanced) देशों में प्रति छात्र वितीयन पर अधिक बल दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल पंजीकृत विद्यार्थीयों बल्कि अध्यापकों की जवाबदेहिता भी सुनिश्चित होती है| साथ ही, वैसे अध्यापक जो अपने दायित्वों के प्रति शिथिलता का व्यवहार रखते हैं, उनको भी आर्थिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है|
  • इसके अतिरिक्त, प्रति विद्यार्थी वितीयन को स्कूलों को प्रत्यक्ष रूप से देने की अपेक्षा इसे अप्रत्यक्ष रूप से प्रदान किया जाना चाहिये अर्थात इसे विद्यार्थी के माता-पिता के नाम स्कूल वाउचर के रूप में (सीधे विद्यार्थी के माता-पिता के खाते से संबद्ध) प्रदान किया जाना चाहिये|  
  • इसका परिणाम यह होगा कि यदि किसी स्कूल के अध्यापक शिथिल हैं तो उक्त स्कूल के विद्यार्थियों के माता-पिता वित्तीयन पाने वाले बच्चों को किसी अन्य स्कूल में पंजीकृत करा सकते हैं| ऐसी स्थिति में भी उनका स्कूल वाउचर कार्यशील अवस्था में ही रहेगा, अतः उक्त वाउचर को किसी अन्य स्कूल से भी संबद्ध किया जा सकता है|
  • अभिभावकों को प्राप्त होने वाला यह अधिकार न केवल अध्यापकों वरन समस्त प्रबंधन को स्कूल की बुनियादी अवस्था एवं शिक्षण व्यवस्था के प्रति जवाबदेह एवं ज़िम्मेदार बनाने में सहायक होगा| 
  • साथ ही, इससे निर्धन वर्ग के बच्चों को उनकी पसंद के निजी स्कूलों में दाखिला लेने की प्रतिशतता में भी इज़ाफा होगा| विदित हो कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत निजी स्कूलों की 25 फीसदी सीटें बीपीएल वर्ग के बच्चों के लिये रखे जाने का प्रावधान किया गया है|

अन्य प्रमुख बिंदु

  • वस्तुतः सार्वजनिक वित्तीयन प्राप्त विद्यालयों को संचालित करने वाली वर्तमान की अव्यवस्थित जवाबदेहिता प्रणाली (Shambolic accountability system) के सन्दर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को और अधिक दूरगामी, सटीक एवं साहसिक सुधार करने की आवश्यकता है|
  • हालाँकि, इसके अनुपालन के लिये संविधान के अनुच्छेद 171 (3)(ग) में भी संशोधन करने की आवश्यकता होगी| इस अनुच्छेद के अंतर्गत शिक्षकों को राज्य विधानसभा (state legislatures) में प्रतिनिधित्व की गारंटी प्रदान की गई है, जिसके परिणामस्वरूप कई शिक्षक राजनेता बनने पर अधिक ध्यान देते हैं न कि शिक्षण पर| (उदहारण के लिये, वर्तमान में उत्तर प्रदेश के उच्च सदन में विधानसभा के सभी सदस्यों के 17% केवल शिक्षक हैं)|
  •  इसके साथ-साथ सहायता प्राप्त विद्यालयों में कार्यरत सरकारी शिक्षकों को लाभ के पद के आधार पर चिंहित करते हुए, उनके चुनाओं में प्रतिभाग करने पर भी रोक लगाई जानी चाहिये|
  • स्पष्ट है कि इस निर्णय का प्रभाव यह होगा कि यह राजनीतिक सक्रियतावाद की उस संस्कृति का खंडन कर देगा जो शिक्षकों के ध्यान को शिक्षण की दिशा से भटकाती है| 
  • इसके लिये आवश्यक है कि चुनाव के समय में चुनाव आयोग द्वारा मतदान केन्द्रों की आधिकारिक सूची में शिक्षकों के अनुपात में कमी की जाए|

निष्कर्ष

अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत शिक्षकों के हितों के संवर्द्दन के लिये प्रयास करने के स्थान पर बच्चों के परिणामों में सुधार लाने के लिये शिक्षा प्रणाली को बदलने पर ज़ोर देना चाहिये| हालाँकि, इसके लिये सरकार को एक समीचीन रुख के स्थान पर विद्यालयों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के माध्यम से फण्ड उपलब्ध कराकर शासन व्यवस्था में सुधारों की ओर एक कठोर तथा सैद्धांतिक रुख अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि भारत के बच्चे न केवल एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था के बल्कि एक बेह्तर भविष्य के भी अधिकारी हैं|

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