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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत के विदेशी दृष्टिकोण का नया स्वरुप

  • 24 Jul 2021
  • 11 min read

यह एडिटोरियल 22/07/2021 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Expanding India’s Foreign Policy Canvas” लेख पर आधारित है। यह वैश्विक आर्थिक क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों की पड़ताल करता है और चर्चा करता है कि भारत किस प्रकार अपने विदेश नीति एजेंडे का विस्तार कर महज एक आकांक्षी शक्ति से एक वास्तविक वैश्विक शक्ति में परिणत हो सकता है।

कोविड-19 महामारी से डेढ़ वर्ष से अधिक समय तक जूझने के बाद विश्व अब उबर रहा है और वैश्विक आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहा है।

इस क्रम में एक ओर एक न्यूनतम कॉर्पोरेट कर (Minimum Corporate Tax) व्यवस्था स्थापित करने के लिये एक नए वैश्विक कर (Global Tax) पर विचार किया जा रहा है, तो दूसरी ओर शुद्ध शून्य उत्सर्जन (Net Zero Emissions) लक्ष्यों में सहायता के लिये कार्बन सीमा शुल्क का अनावरण किया जा रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में बाध्यकारी विवाद समाधान प्रावधानों को शामिल करने का प्रयास तेज़ है, जबकि प्रौद्योगिकीय अलगाव या डिकपलिंग (Technological Decoupling) भी आकार ले रहा है और नई मूल्य शृंखलाएँ स्थापित की जा रही हैं।

जलवायु, स्वास्थ्य, डिजिटल प्रौद्योगिकी और भू-अर्थशास्त्र वैश्विक संवाद को परिभाषित करेंगे। भारत को अग्रसक्रिय बने रहना चाहिये और इन क्षेत्रों को समझने एवं आकार देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये न कि वह केवल परिणाम भुगतने की स्थिति में बना रहे।

भारत की विदेश नीति

  • भू-राजनीति पर केंद्रित: अधिकांश अन्य राज्यों की ही तरह भारतीय विदेश नीति ने आम तौर पर भू-राजनीति से संबंधित संघर्षण और मित्रता को प्राथमिकता दी है, जैसे:  
    • परमाणु निरस्त्रीकरण की माँग 
    • शीत युद्ध पर प्रतिक्रिया के रूप में गुट निरपेक्ष आंदोलन   
    • संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना को समर्थन
    • अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक अभिसमय (CCIT) को अंगीकार करने का आह्वान 
    • हालाँकि, भू-अर्थशास्त्र को कम महत्त्व दिया गया है।
  • पर्यावरण संबंधी पहल: भारत के प्रधानमंत्री ने जलवायु कार्रवाई का एक ऐसे विषय के रूप में समर्थन किया है जहाँ भारत द्वारा अपने नागरिकों के हित में अपनी सीमाओं के अंदर की गई कार्रवाई सीमाओं के बाहर भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसके आर्थिक और राजनीतिक दोनों लाभ प्राप्त होंगे।  
    • इसके अतिरिक्त, भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है जिन्होंने जलवायु परिवर्तन (UNFCC ), जैव विविधता (CBD) और भूमि (UNCCD) पर तीनों रियो सम्मेलनों के कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (COP) की मेज़बानी की है।   
  • महामारी के दौरान विदेश नीति: कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान आवश्यक वैश्विक आपूर्ति प्राप्त करने में भारत का विदेश नीति उपकरण ही प्रमुख रहा।  

संबंधित चुनौतियाँ:

  • मानव संसाधन से संबंधित समस्याएँ: प्रवासन और मानव गतिशीलता (Migration and Human Mobility) उभरती हुई समस्याएँ हैं। 
    • भारत और अफ्रीका युवा आबादी के सबसे बड़े क्षेत्र होंगे जबकि अधिकांश अन्य समाजों में आबादी की औसत आयु बढ़ रही होगी। भारत में अवसरों की कमी ‘ब्रेन ड्रेन’ की स्वाभाविक स्थिति उत्पन्न करती है।  
  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित मुद्दे: एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध (AMR) एक उभरती हुई वैश्विक समस्या है जिसमें जारी कोविड-19 महामारी आगे और योगदान कर सकती है।  
    • साइबर सुरक्षा को लेकर भी वैश्विक चिंताएँ बढ़ रही हैं।  
  • चीन की बढ़ती शक्ति: सैन्य रूप से चीन ने स्वयं को और शक्तिशाली कर लिया है और वर्ष 2021 में अपने तीसरे विमानवाहक पोत के लॉन्च की घोषणा के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बढ़ाने की इच्छा रखता है।   
  • बिगड़ते भारत-रूस संबंध: हालाँकि भारत और रूस रणनीतिक और आर्थिक सहयोग का एक लंबा इतिहास रहा है, शीत युद्ध के बाद के दौर में रूस और चीन का रणनीतिक अभिसरण भारत की विदेश नीति में बाधा बना रहा है। 
    • इसके अलावा वर्ष 2014 में क्रीमिया पर कब्जे के कारण रूस पर लगाए गए पश्चिम के प्रतिबंधों ने रूस को चीन के निकट सहयोगी के रूप में बना दिया है। 
      • इससे यह प्रतीत होता है कि रूस की भारत जैसे देशों में रुचि कम हो गई है।
    • अमेरिका के साथ भारत की निकटता ने रूस और ईरान जैसे पारंपरिक मित्रों के साथ इसके संबंध कमज़ोर किये हैं।

आगे की राह:

  • भू-राजनीति तक सीमित नहीं रहना: वैश्विक आयामों को ध्यान में रखते हुए एक वृहत दृष्टिकोण से विशाल सीमा-पारीय डिजिटल कंपनियों के विनियमन, बिग डेटा प्रबंधन, व्यापार-संबंधी मामले और आपदा एवं मानवीय राहत जैसे विषयों को संबोधित करना लाभदायी साबित हो सकता है।  
    • भारत के विदेश नीति एजेंडे को भू-राजनीति के पारंपरिक दायरे तक ही सीमित न रखते हुए विस्तार देने की आवश्यकता है।
  • भू-अर्थशास्त्र के महत्त्व को समझना: भू-अर्थशास्त्र अनिवार्य रूप से भू-राजनीति पर प्रभाव डालता है। चीन का ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (BRI) इसका उदाहरण है।  
    • जलवायु, स्वास्थ्य सुरक्षा और डिजिटल प्रौद्योगिकियाँ विभिन्न प्रकार के भू-राजनीतिक संघर्षों के पहलू बन रहे हैं।
    • इन क्षेत्रों को दायरे में लेने की भारत की इच्छा (जिन्हें पहले वह अपनी विदेश नीति के दायरे से परे मानता था) वैश्विक परिवर्तनों की आने वाली लहर को पार कर सकने की उसकी क्षमता की कुंजी होगी।
  • वर्ष 2023 में G-20 की अध्यक्षता: वर्ष 2023 में G-20 की अध्यक्षता भारत को भू-राजनीतिक हितों के साथ भू-आर्थिक विषयों को समन्वित करने के अवसर प्रदान करेगी।   
    • अभी तक भारत ने एक वैश्विक शक्ति की भूमिका निभाने की महत्त्वाकांक्षाओं के साथ एक उभरती हुई शक्ति की भूमिका ही निभाई है।
    • वर्ष 2023 का G-20 शिखर सम्मेलन विश्व के प्रमुख मुद्दों पर मुखर होने और अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिये सक्रिय होने के अवसर प्रदान करेगा।
  • रणनीतिक प्रतिरक्षा या ‘स्ट्रेटेजिक हेजिंग’: भारतीय विदेश नीति के लिये आगे का रास्ता रणनीतिक प्रतिरक्षा का होना चाहिये—यानी घरेलू के साथ-साथ बाह्य रणनीतिक क्षमताओं का सुदृढ़ीकरण और विनिर्माण एवं निर्यात में वृद्धि के माध्यम से विदेशों में आर्थिक निर्भर क्षेत्रों के सृजन का एक संयोजन।   
    • इसके अलावा, भारत को क्षमताओं और पहुँच के बीच एक संतुलन लाने की आवश्यकता है जिससे फिर वह अन्य देशों के साथ रणनीतिक प्रतिरक्षा में महारत हासिल कर सकता है।

निष्कर्ष

भारत की विदेश नीति का प्राथमिक लक्ष्य व्यापक अर्थों में राष्ट्रीय हितों को संरक्षित करना, उन्हें बढ़ावा देना और उनकी सुरक्षा करना है तथा अपने दायरे को बढ़ावा देना है।

यदि भारत वैश्विक परिवर्तन की अगली लहर को लीड (Lead) करना चाहता है तो उसे जल्द ही एक व्यापक वैश्विक एजेंडा और सावधानीपूर्वक तैयार किये गए ‘गेम प्लान’ की आवश्यकता होगी।

अभ्यास प्रश्न: “भारत लंबे समय से एक आकांक्षी या उभरती हुई शक्ति बना हुआ है। अब ​​​​प्रतिमान में बदलाव लाने और वैश्विक आर्थिक क्षेत्र को आकार देने वाले देशों में से एक बनने का समय है।’’ चर्चा कीजिये। 

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