पदोन्नति में आरक्षण | 12 Feb 2020
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय और पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड सरकार द्वारा दायर याचिका की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि सार्वजनिक पदों पर ‘प्रोन्नति में आरक्षण’ मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य को इस संदर्भ में बाध्य नहीं किया जा सकता। न्यायाधीश एल नागेश्वर राव और न्यायाधीश हेमंत गुप्ता की दो सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि न्यायालय राज्य सरकारों को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने हेतु आदेश जारी नहीं कर सकता है। न्यायालय के अनुसार, यद्यपि संविधान का अनुच्छेद 16(4) और 16(4A) राज्य को अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये प्रोन्नति में आरक्षण देने का अधिकार देता है किंतु ऐसा करना राज्य सरकारों के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है, हालाँकि यदि वे (राज्य) अपने विवेक का प्रयोग करते हुए पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करना चाहते हैं तो उन्हें सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग विशेष के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता संबंधी मात्रात्मक डेटा एकत्र करना होगा। इस प्रकार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के संबंध में आँकड़ों का संग्रहण आरक्षण प्रदान करने के लिये एक पूर्व आवश्यकता बन गया है। ऐसे में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से स्थापित आरक्षण, विशेष तौर पर पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था का गहन विश्लेषण कर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के निहितार्थों को समझ लेना आवश्यक है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की पृष्ठभूमि
- दरअसल वर्ष 2012 में उत्तराखंड सरकार ने अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) को आरक्षण प्रदान किये बिना ही राज्य की लोक सेवा के सभी पदों में भर्ती की थी, जिसके पश्चात् उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
- उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए सरकार के निर्णय को खारिज कर दिया, किंतु राज्य सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी।
पदोन्नति में आरक्षण के विषय में क्या कहता है संविधान?
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक पदों पर अवसर की समानता से संबंधित प्रावधान किये गए हैं।
- अनुच्छेद 16(1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी।
- अनुच्छेद 16(2) के अनुसार, राज्य के अधीन किसी भी पद के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा।
- हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(4A) में सार्वजनिक पदों के संबंध में सकारात्मक भेदभाव या सकारात्मक कार्यवाही का आधार प्रदान किया गया है।
- संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के उन सभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- अनुच्छेद 16(4A) के अनुसार, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकती हैं यदि राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
आरक्षण व्यवस्था और भारत
- भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था और छुआछूत जैसी कुप्रथाएँ देश में आरक्षण व्यवस्था की उत्पत्ति का प्रमुख कारण हैं। सरल शब्दों में आरक्षण का अभिप्राय सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और विधायिकाओं में किसी एक वर्ग विशेष की पहुँच को आसान बनाने से है।
- इन वर्गों को उनकी जातिगत पहचान के कारण ऐतिहासिक रूप से कई अन्यायों का सामना करना पड़ा है।
- वर्ष 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने मूल रूप से जाति आधारित आरक्षण प्रणाली की कल्पना की थी।
- आरक्षण की मौजूदा प्रणाली को सही मायने में वर्ष 1933 में पेश किया गया था जब तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक अधिनिर्णय दिया। विदित है कि इस अधिनिर्नयन के तहत मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय और दलितों के लिये अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया।
- आज़ादी के पश्चात् शुरुआती दौर में मात्र SC और ST समुदाय से संबंधित लोगों के लिये ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, किंतु वर्ष 1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को भी आरक्षण की सीमा में शामिल कर लिया गया।
पदोन्नति में आरक्षण की पृष्ठभूमि
- नवंबर, 1992 को इंदिरा साहनी मामले में OBC आरक्षण पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में SC और ST समुदाय को दिये जा रहे आरक्षण पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए इसे पाँच वर्ष के लिये ही लागू रखने का आदेश दिया था।
- वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से ही यह मामला विवादों में है। हालाँकि वर्ष 1995 में संसद ने 77वाँ संविधान संशोधन पारित कर पदोन्नति में आरक्षण को जारी रखा था।
- इस संशोधन में यह प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को यह अधिकार है कि वह पदोन्नति में भी आरक्षण दे सकती हैं। किंतु यह मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय में चला गया।
- तब न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि इस संदर्भ में आरक्षण तो दिया जा सकता है, लेकिन वरिष्ठता नहीं मिलेगी। इसके पश्चात् 85वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया और इसके माध्यम से परिणामी ज्येष्ठता (Consequential Seniority) की व्यवस्था की गई।
- पदोन्नति में SC और ST की तत्कालीन स्थिति नागराज और अन्य बनाम भारत सरकार वाद पर सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2006 के निर्णय के पश्चात् पुनः बदल गई।
- नागराज और अन्य बनाम भारत सरकार वाद में संसद द्वारा किये गए 77वें व 85वें संविधान संशोधनों को सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों द्वारा चुनौती दी गई। न्यायालय ने अपने निर्णय में इन संवैधानिक संशोधनों को तो सही ठहराया, किंतु पदोन्नति में आरक्षण के लिये तीन मापदंड निर्धारित कर दिये:
- SC और ST समुदाय को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना चाहिये।
- सार्वजनिक पदों पर SC और ST समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होना।
- इस प्रकार की आरक्षण नीति का प्रशासन की समग्र दक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- तत्पश्चात् वर्ष 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा कि पदोन्नति में आरक्षण के लिये राज्यों को अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के पिछड़ेपन से संबंधित मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।
पदोन्नति में आरक्षण के पक्ष में तर्क
- आरक्षण को एक प्रकार से सकारात्मक भेदभाव के रूप में देखा जाता है। सकारात्मक भेदभाव एक सरकारी नीति होती है जिसे कमज़ोर वर्गों के मध्य समानता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अपनाया जाता है, ताकि उन्हें सामाजिक अन्याय से सुरक्षा प्रदान की जा सके।
- सामान्यतः इसका अर्थ रोज़गार और शिक्षा तक पहुँच में समाज के हाशिये के वर्गों को प्राथमिकता देने से होता है।
- हालाँकि आरक्षण के कारण विभिन्न स्तरों पर SC और ST समुदाय के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी देखने को मिली है, किंतु वरिष्ठ स्तरों पर अब भी पक्षपात के कारण SC और ST समुदाय का प्रतिनिधित्व काफी कम है।
- वर्ष 2017 के आँकड़े दर्शाते हैं कि उस वर्ष सचिव स्तर पर मात्र 4 अधिकारी ही SC और ST समुदाय से संबंधित थे।
- SC और ST समुदाय से संबंधित लोग 2,000 से भी अधिक वर्षों तक संपत्ति और शिक्षा जैसे अधिकारों से वंचित रहे हैं, उन्हें आज भी छुआछूत जैसी कुप्रथाओं और सामाजिक स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
पदोन्नति में आरक्षण के विपक्ष में तर्क
- आरक्षण में पदोन्नति के आलोचकों का मानना है कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक स्तर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करना है, किंतु पदोन्नति में इसे लागू करने से यह विपरीत कार्य करता है और पहले से समान स्तर पर मौजूद लोगों के साथ असमानता का व्यवहार करता है।
- रोज़गार और पद प्राप्त करना सामाजिक भेदभाव की समाप्ति को सुनिश्चित नहीं करता है। अतः इसे पिछड़ेपन के आकलन हेतु एकमात्र साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
- इस संदर्भ में कुछ आलोचकों का मानना है कि सार्वजानिक पदों पर आरक्षण देने से यह प्रशासन की दक्षता में कमी ला सकता है।
आगे की राह
- वस्तुतः आरक्षण भारत में सदैव ही एक ज्वलंत मुद्दा रहा है और समय-समय पर इसको लेकर विवाद भी हुए हैं। विशेषज्ञों ने कई मौकों पर स्पष्ट किया है कि आरक्षण का एकमात्र उद्देश्य आर्थिक स्तर पर समानता लाना नहीं था, बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक स्तर पर समानता लाना था।
- सार्वजनिक पदों पर पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित अस्पष्टता से निपटने के लिये एक व्यापक कानून की आवश्यकता है। इस व्यापक कानून के माध्यम से मौजूदा अस्पष्ट विषयों जैसे- दक्षता का अपरिभाषित मापदंड और पिछड़ेपन के मूल्यांकन में परिदार्शिता का अभाव आदि को संबोधित किया जाना चाहिये।
प्रश्न: पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के आलोक में इस व्यवस्था का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।