जैव विविधता और पर्यावरण
मसौदा वन नीति, 2018 में सुधार की अपेक्षाएँ
- 10 Apr 2018
- 13 min read
संदर्भ
हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा मसौदा वन नीति, 2018 जारी की गई। इस नीति को मुख्यतः पुरानी नीतियों में रह गई खामियों और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नए प्रावधानों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। ध्यातव्य है कि भारत विभिन्न प्रकार के वनों के साथ दुनिया में अत्यधिक विविधता वाले देशों में से एक है और देश का लगभग 20 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वनों के अंतर्गत आता है।
नई मसौदा नीति की आवश्यकता क्यों ?
- इसे वर्तमान और भावी पीढ़ी की पारिस्थितिक और आजीविका संबंधी सुरक्षा (Ecological and Livelihood Security) के संरक्षण हेतु लाया गया है।
- पारिस्थितिकी सुरक्षा (Eco-security) के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करने के लिये देश के कुल भू-क्षेत्र के कम-से-कम एक-तिहाई भाग पर वन और वृक्ष आच्छादन की आवश्यकता है।
- देश के 25 करोड़ लोगों को वनों से जलावन लकड़ी, चारा, बाँस जैसे वन उत्पादों की प्राप्ति होती है जो इनकी आजीविका के प्रमुख स्रोत हैं। अतः वनों के प्रभावी संरक्षण की सख्त आवश्यकता है।
- बदलती पर्यावरणीय दशाओं को देखते हुए पूववर्ती नीति में बदलाव आवश्यक थे।
- कार्बन स्थिरीकरण (carbon sequestration) और जैव-विविधता में वनों का योगदान अति महत्त्वपूर्ण है जो इनके संरक्षण हेतु नीति निर्माण की महत्ता को दर्शाता है।
पूर्ववर्ती नीतियों का स्वरूप और उद्देश्य
- आज़ादी से पूर्व औपनिवेशिक भारत में बनी वन नीतियाँ मुख्यतः राजस्व प्राप्ति तक केंद्रित थीं जिसका स्वामित्व शाही वन विभाग (Imperial Forest Department) के पास था जो वन संपदा का संरक्षणकर्त्ता और प्रबंधक भी था।
- आज़ादी के बाद भी वनों को मुख्यतः उद्योगों हेतु कच्चे माल के स्रोत के रूप में ही देखा गया और स्थानीय समुदायों के साथ श्रमिकों जैसा बर्ताव किया गया।
- राष्ट्रीय वन नीति, 1988 में वनों को महज़ राजस्व स्रोत के रूप में न देखकर इन्हें पर्यावरणीय संवेदनशीलता एवं संरक्षण के महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में देखा गया। साथ ही, इस नीति में यह भी कहा गया कि वन उत्पादों पर प्राथमिक हक उन समुदायों का होना चाहिये जिनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति इन वनों से ही होती है।
- राष्ट्रीय नीति में वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी बढ़ाने पर भी जोर दिया गया।
- 1990 के दशक में संयुक्त वन प्रबंधन (Joint Forest Management) की शुरुआत की गई।
- किंतु ये सभी कदम यथास्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाए।
- वर्ष 2006 में वन अधिकार अधिनियम, 2006 पारित किया गया जिसमें स्थानीय समुदायों को वनों तक पहुँच और प्रबंधन के अधिकार दिये गए।
भारतीय वनों की वर्तमान स्थिति
भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India-FSI) द्वारा देश में वन क्षेत्र की वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिये वन स्थिति रिपोर्ट जारी की जाती है। 'भारत की वन स्थिति' नामक इस रिपोर्ट को देश के वन संसाधनों का आधिकारिक आकलन माना जाता है।
- 12 फरवरी, 2017 को भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2017 (India State of Forest Report-ISFR) जारी की गई, जो इस श्रृंखला में 15वीं रिपोर्ट है।
- 1987 से भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट द्विवार्षिक रूप से भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित की जाती है।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
2001 से लेकर 2015 तक के सर्वेक्षणों में देश भर से कुल 589 ज़िलों को शामिल किया जाता था, जबकि इस बार कुल ज़िलों की संख्या 633 है।
देश में वनों और वृक्षों से आच्छादित कुल क्षेत्रफल | 8,02,088 वर्ग किमी. (24.39%) |
भौगोलिक क्षेत्रफल में वनों का हिस्सा | 7,08,273 वर्ग किमी. (21.54%) |
वनों से आच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि | 6778 वर्ग किमी. |
वृक्षों से आच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि | 1243 वर्ग किमी. |
वनावरण और वृक्षावरण क्षेत्रफल में कुल वृद्धि | 8021 वर्ग किमी. (1%) |
भौगोलिक क्षेत्रफल में वनों और वृक्षावरण का हिस्सा | 24.39% |
राज्यों में वनों की स्थिति
- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा। आंध्र प्रदेश में वन क्षेत्र में 2141 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई, जबकि कर्नाटक 1101 किलोमीटर और केरल 1043 वर्ग किलोमीटर वृद्धि के साथ क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर रहे।
- क्षेत्रफल के हिसाब से मध्य प्रदेश के पास 77414 वर्ग किलोमीटर का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है, जबकि 66964 वर्ग किलोमीटर के साथ अरुणाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं।
- कुल भू-भाग की तुलना में प्रतिशत के हिसाब से लक्षद्वीप के पास 90.33 प्रतिशत का सबसे बड़ा वनाच्छादित क्षेत्र है । इसके बाद 86.27 प्रतिशत तथा 81.73 प्रतिशत वन क्षेत्र के साथ मिज़ोरम और अंडमान निकोबार द्वीप समूह क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं।
- रिपोर्ट के अनुसार देश के 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का 33 प्रतिशत भू-भाग वनों से घिरा है।
मसौदा वन नीति, 2018 के प्रमुख दिशा-निर्देश
- प्राकृतिक वनों के परिरक्षण और संरक्षण के माध्यम से पर्यावरण स्थिरता और जैव विविधता के संरक्षण का रख-रखाव।
- वनों की प्राकृतिक रूपरेखा से समझौता किये बिना इनके क्षरण को रोकना।
- पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं द्वारा लोगों की आजीविका में सुधार करना।
- वानिकी से संबंधित राष्ट्रीय तौर पर निर्धारित योगदान लक्ष्यों (एनडीसी) की प्राप्ति में योगदान देना।
- नदियों के जलभराव क्षेत्रों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों में एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन तकनीकों और कार्यों द्वारा अनाच्छादन तथा मृदा अपरदन को रोकना।
- भूमिगत जल-भंडारों (Aquifers) के पुनः भरण और सतही जल के विनियमन से जलापूर्ति बढ़ाना ताकि वनों की मृदा और वनस्पति की सेहत अच्छी बनी रहे।
- गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिये वनों की भूमि के परिवर्तन को नियंत्रित करना और भूमि परिवर्तन संबंधी शर्तों के अनुपालन हेतु कड़ी निगरानी रखना।
- वनरोपण एवं पुनर्वनीकरण (Afforestation & Reforestation) द्वारा देश भर में खासकर सभी अनाच्छादित एवं निम्नीकृत वन भूमियों और वनों के बाहर स्थित भूमियों पर वन/वृक्ष आच्छादन में वृद्धि करना।
- सरंक्षित क्षेत्रों और अन्य वन्यजीवन समृद्ध क्षेत्रों का जैव-विविधता संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र समृद्धिकरण के प्राथमिक उद्देश्य के साथ प्रबंधन करना।
- शहरी और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में निवासियों की बेहतरी के लिये हरित क्षेत्रों का प्रबंधन और विस्तार करना।
मसौदा नीति में रह गई खामियाँ
- नई मसौदा नीति के प्रावधान काफी अस्पष्ट और उलझाऊ हैं। इस नीति में उत्पादन वानिकी की मुख्य बल क्षेत्र (New thrust Area) के रूप में पहचान की गई है।
- वन विकास निगमों को एक इस हेतु संस्थागत वाहन (Institutional vehicle) बनाया गया है। किंतु, एक नए नव उदारवादी मोड़ (Neoliberal twist) के तहत ये संस्थागत वाहन सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership) द्वारा वन भूमियों पर कॉर्पोरेट निवेश लाने का प्रयास करेंगे जो यहाँ बाज़ारीकरण हेतु संसाधनों के अनुचित दोहन को बढ़ावा दे सकता है।
- अतीत में, उत्पादन वानिकी ने हिमालय में प्राकृतिक ओक वनों को पाइन मोनोकल्चर से , मध्य भारत में प्राकृतिक साल वनों को सागौन पौधों से और पश्चिमी घाटों में आर्द्र सदाबहार वनों को यूकेलिप्टस (eucalyptus) और एकेसिया (acacia) से प्रतिस्थापित कर दिया। इस सब ने विविधता को नष्ट कर दिया है, जलधाराओं को सुखा दिया और स्थानीय आजीविका को दुर्बल बना दिया। सार्वजनिक-निजी भागीदारी इस तरह के विनाश को और बढ़ावा दे सकती है और वनों से उत्पन्न लाभांश को कॉर्पोरेट जगत के हाथों में संकेंद्रित कर सकती है।
- यदि स्थानीय समुदायों को वन शासन में भागीदारी का मौका दिया जाए तो वे इस उत्पादन वानिकी मॉडल को चुनौती देंगे । अतः मसौदा नीति में विकेंद्रीकृत शासन के बारे में बहुत कम ज़िक्र किया गया है और ‘सामुदायिक भागीदारी’ शब्द का बेहद हल्के रूप में प्रयोग किया गया है।
- मसौदा नीति ग्राम सभाओं और जेएफएम समितियों के बीच "तालमेल सुनिश्चित करने" की बात करता है, जबकि जेएफएम समितियों को सांविधिक रूप सें सशक्त ग्राम सभाओं से प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है और औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम में सुधार करने की आवश्यकता है।
आगे की राह
नई मसौदा नीति में वानिकी उत्पादन पर अत्यधिक ज़ोर दिया गया है जो विभिन्न पर्यावरणीय और सामजिक चिंताओं को बढ़ावा दे सकता है। वर्तमान में हमें ऐसी नीतियों और कानूनों की आवश्यकता है जिनसे समाज के सभी वर्गों का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो सके एवं पर्यावरणीय सततता और जैव विविधता पर भी कोई आँच न आए। स्थानीय समुदायों की वनों के संरक्षण और रखरखाव में भागीदारी पर बल दिये जाने की आवश्यकता है क्योंकि उनके योगदान के बिना वनों और अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की बेहतरी सुनिश्चित करना कठिन होगा। कॉर्पोरेट निवेश को प्रोत्साहन देना अच्छी बात है लेकिन यह भी सुनिश्चित करना अति आवश्यक है कि वन संसाधनों का अंधाधुंध दोहन न होने पाए। ऐसे में यदि नई मसौदा नीति में कुछ परिवर्तन या संशोधन आवश्यक हों तो ऐसा करने से हिचकना नहीं चाहिये।