आंतरिक सुरक्षा
डिजिटलीकरण के दौर में गिग इकॉनमी की प्रासंगिकता
- 14 Mar 2017
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संदर्भ
हाल ही में इंग्लैंड में यह फैसला लिया गया था कि सितम्बर के बाद उबेर एवं अन्य एप बेस्ड टैक्सी सेवाओं के लाइसेंस रिन्यू नहीं किये जाएंगे। हज़ारों लोगों ने उबेर द्वारा प्रस्तुत एक याचिका पर हस्ताक्षर किये थे, जिसमें यह कहा गया था कि एप पर प्रतिबंध लगाने से 40,000 से ज़्यादा लाइसेंस प्राप्त ड्राइवर बेरोज़गार हो जाएंगे और लंदन शहर के लाखों लोग सुविधाजनक और सस्ते परिवहन से वंचित हो जाएंगे। दरअसल, उबेर पर प्रतिबंध इसलिये लगाया गया है क्योंकि यह कहा जा रहा है कि वह ‘गिग इकॉनमी’ (gig economy) को बढ़ावा दे रहा है। इस लेख में हम यह जानेंगे कि गिग इकॉनमी क्या है और भारत के संदर्भ में इसकी क्या उपयोगिता है?
क्या है गिग इकॉनमी
- आज डिजिटल होती दुनिया में रोज़गार की परिभाषा और कार्य का स्वरूप बदल रहा है। एक नई वैश्विक अर्थव्यवस्था उभर रही है, जिसको नाम दिया जा रहा है 'गिग इकॉनमी’। दरअसल, गिग इकॉनमी में फ्रीलान्स कार्य और एक निश्चित अवधि के लिये प्रोजेक्ट आधारित रोज़गार शामिल हैं।
- गिग इकॉनमी में किसी व्यक्ति की सफलता उसकी विशिष्ट निपुणता पर निर्भर है। असाधारण प्रतिभा, गहरा अनुभव, विशेषज्ञ ज्ञान या प्रचलित कौशल प्राप्त श्रम-बल ही गिग इकॉनमी में कार्य कर सकता है।
- आज कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी कर सकता है या किसी प्राइवेट कंपनी का मुलाज़िम बन सकता है या फिर किसी मल्टीनेशनल कंपनी में रोज़गार ढूँढ सकता है, लेकिन गिग इकॉनमी एक ऐसी व्यवस्था है जहाँ कोई भी व्यक्ति मनमाफिक काम कर सकता है।
- अर्थात् गिग इकॉनमी में कंपनी द्वारा तय समय में प्रोजेक्ट पूरा करने के एवज़ में भुगतान किया जाता है, इसके अतिरिक्त किसी भी चीज़ से कंपनी का कोई मतलब नहीं होता।
क्या होगा गिग इकॉनमी का प्रभाव
- इकॉनोमिस्ट रोनाल्ड कोस (Ronald coase) ने कहा था कि कोई भी कंपनी तब तक फलती-फूलती रहेगी जब तक कि एक चारदीवारी में बैठाकर लोगों से काम कराना, बाज़ार में जाकर काम करा लेने से सस्ता होगा।
- अर्थात् कोई भी कंपनी यदि बाज़ार में जाकर, प्रत्येक विशिष्ट काम अलग-अलग विशेषज्ञों से कराती है और यह लागत कंपनी के सामान्य लागत से कम है तो स्वाभाविक सी बात है कि वह एक निश्चित वेतन पर लम्बे समय के लिये लोगों को नौकरी पर रखने के बजाय बाज़ार में जाना पसंद करेगी।
- आज गिग इकॉनमी के इस दौर को एम्प्लॉयमेंट 4.0 कहा जा रहा है, जबकि इससे पहले का समय एम्प्लॉयमेंट 3.0 कहा जाता है। एम्प्लॉयमेंट 3.0 में वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण ने बाज़ार में निकलकर काम लेना आसान बना दिया था, यही कारण था कि बड़ी कंपनियाँ तेज़ी से बंद होने लगीं और उनकी जगह ले ली छोटी-छोटी आउटसोर्सिंग फर्मों ने।
- दरअसल, एम्प्लॉयमेंट 4.0 मुख्य रूप से अनवरत इंटरनेट कनेक्टिविटी, रोबोटिक्स, आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस, नैनो टेक्नोलॉजी और वर्चुअल रियलिटी पर आधारित है। अतः कंपनियों को अब वैसे ही लोगों की ज़रूरत पड़ेगी जो दक्ष हैं और जिनसे प्रोजेक्ट बेसिस पर काम लिया जा सकता है।
- गौरतलब है कि एम्प्लॉयमेंट 4.0 के कारण हमारे कार्य करने के तरीकों में व्यापक बदलाव आएगा। रोबोटिक्स, आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस, नैनो टेक्नोलॉजी और वर्चुअल रियलिटी जैसी तमाम तकनीकें जब आपस में मिलेंगी तो उत्पादन और निर्माण के तरीकों में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा।
- अतः आने वाला समय गिग इकॉनमी का होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हालाँकि यह कहना कि बड़ी कंपनियाँ बंद ही हो जाएंगी यह भी सही नहीं है, लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक आमूलचूल बदलाव के संकेत तो दिख ही रहे हैं।
भारत के संदर्भ में गिग इकॉनमी की प्रासंगिकता
- विदित हो कि अमेरिका में जहाँ श्रम शक्ति का 31 प्रतिशत भाग गिग इकॉनमी से संबंध रखता है वहीं भारत में यह आँकड़ा 75 प्रतिशत है। लेकिन दोनों ही देशों के आर्थिक परिदृश्यों में ज़मीन-आसमान का अंतर है।
- अमेरिका में 31 प्रतिशत श्रम गिग इकॉनमी का भाग इसलिये है क्योंकि वह सक्षम है, जबकि भारत में बड़ी संख्या में लोग इस व्यवस्था का हिस्सा इसलिये हैं क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं है। यहाँ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि दैनिक मज़दूरी करने वालों को भी गिग इकॉनमी का ही हिस्सा माना जाता है।
- भारत में 40 प्रतिशत लोग इतना ही कमा पाते हैं कि वे दो वक्त की रोटी खा सकें| बचत के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं है और वे लगातार मुफलिसी में जीवन व्यतीत करने को अभिशापित हैं।
- अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण के कारण और भी लोग गिग इकॉनमी का हिस्सा बनने को मजबूर होंगे और इससे गरीब तो गरीब बना ही रहेगा साथ में उनकी संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
- ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक अकेले अमेरिका में अगले दो दशकों में डेढ़ लाख रोज़गार खत्म हो जाएंगे। अमेरिका में तो मानव संसाधन इतना दक्ष है कि उसे गिग इकॉनमी का हिस्सा बनने में कोई समस्या नहीं आएगी, लेकिन भारत में यह स्थिति नहीं है।
- अर्थव्यवस्था की बेहतरी के नाम पर ही आज इंग्लैंड यूरोपियन यूनियन से बाहर है और अपने घरेलू बाज़ार को भूमंडलीकरण के नकारात्मक प्रभावों से बचाना चाहता है| ऐसे में वहाँ भी उबेर जैसे सेवा प्रदाताओं को गिग इकॉनमी के निर्माण में सहायक माना जा रहा है।
निष्कर्ष
- 1991 में भारत ने दुनिया के लिये अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खोल दिये, वह दौर था एम्प्लॉयमेंट 3.0 का, जो कंप्यूटर एवं सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) तथा इलेक्ट्रॉनिक्स और स्वचालित मशीनों पर आधारित थी। लेकिन हम एम्प्लॉयमेंट 3.0 प्रकार के पर्याप्त रोज़गार पैदा नहीं कर पाए और यही कारण है कि आज भारत की 75 प्रतिशत श्रम शक्ति गिग इकॉनमी अपनाने को मजबूर है।
- वर्तमान समय में डिजिटलीकरण रोज़गारों को कम करने में प्रत्यक्ष भूमिका निभा रहा है, क्योंकि आज मशीनों द्वारा नहीं बल्कि सॉफ्टवेयरों द्वारा मानव श्रम का प्रतिस्थापन किया जा रहा है। पूर्व के अनुभवों से यह ज्ञात होता है कि इन परिवर्तनों से सर्वाधिक प्रभावित वे समूह होते हैं जो अपनी कौशल क्षमता में निश्चित समय के भीतर वांछनीय सुधार लाने में असमर्थ होते हैं। अतः सरकार को चाहिये कि ऐसे लोगों को प्रशिक्षण के लिये पर्याप्त समय के साथ-साथ संसाधन भी उपलब्ध कराए।