राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता | 12 Oct 2019
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में राजद्रोह कानून, उसके इतिहास और वर्तमान समय में उसकी प्रासंगिकता पर भी चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
हाल ही में बिहार की एक निचली अदालत ने चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा सहित 49 प्रतिष्ठित व्यक्तियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 124A के तहत राजद्रोह का मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त सभी व्यक्तियों ने भारत के प्रधानमंत्री को भीड़ संबंधी हिंसा अथवा मॉबलिंचिंग पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पत्र लिखा था। अदालत ने यह निर्णय उस याचिका की सुनवाई करते हुए दिया, जिसमे आरोप लगाया गया था कि इस पत्र से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर देश की छवि खराब हो रही है। इस पूरे घटनाक्रम ने राजद्रोह से जुड़ी धारा 124A को पुनः चर्चा का विषय बना दिया है और वर्तमान समय में इस कानून की प्रासंगिकता पर विचार करना अनिवार्य हो गया है।
धारा 124A और राजद्रोह
- देश में राजद्रोह को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A में परिभाषित किया गया है।
- IPC की धारा 124A के अनुसार, बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष (Disaffection) उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और ज़ुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जाएगा।
- धारा 124A के अनुसार, असंतोष (Disaffection) का अर्थ घृणा और घृणा संबंधी सभी प्रकार की भावनाओं से है।
- IPC की इस धारा में स्पष्ट किया गया है कि सरकार या प्रशासन के विरुद्ध किसी भी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणी करना अपराध नहीं है।
- भारत में राजद्रोह एक संज्ञेय अपराध है अर्थात् इसके तहत गिरफ्तारी के लिये वारंट की आवश्यकता नहीं होती है, साथ ही इसके तहत दोनों पक्षों के मध्य आपसी सुलह का भी कोई प्रावधान नहीं है।
- धारा 124A के अनुसार, यह एक गैर-ज़मानती अपराध है।
- इस धारा के तहत सज़ा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि अपराध सिद्ध न हो जाए।
- उल्लेखनीय है कि मुकदमे की पूरी प्रक्रिया के दौरान जिस व्यक्ति पर भी आरोप लगे हैं उससे उसका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया जाता है, इसके अलावा वह इस दौरान कोई भी सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता। साथ ही उसे समय-समय पर कोर्ट में भी हाज़िर होना पड़ता है।
राजद्रोह कानून का इतिहास
- इंग्लैंड में राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में अधिनियमित किया गया, क्योंकि वहाँ के तत्कालीन कानूनविदों का मानना था कि सरकार और साम्राज्य के विरुद्ध कोई भी नकारात्मक विचार या टिप्पणी सत्ता के लिये हानिकारक हो सकती है।
- भारत में सेडिशन कानून की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के वहाबी आंदोलन से जुड़ी है।
- यह एक इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसका नेतृत्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया।
- मूल रूप से यह कानून वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन जब वर्ष 1860 में IPC लागू किया गया, तो इस कानून को उसमें शामिल नहीं किया गया।
- जब वर्ष 1870 में सर जेम्स स्टीफन को अपराध से निपटने के लिये एक विशिष्ट खंड की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने आईपीसी (संशोधन) अधिनियम, 1870 के तहत धारा 124A को IPC में शामिल किया।
- ब्रिटिश सरकार ने इस कानून का उपयोग कई स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराने और उन्हें सज़ा देने के लिये किया।
- सर्वप्रथम इस कानून का प्रयोग वर्ष 1891 में एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के विरुद्ध किया गया, क्योंकि उन पर आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लेख लिखा था।
- उल्लेखनीय है कि इस कानून के तहत महात्मा गांधी पर भी यंग इंडिया में उनके लेखों के कारण राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया था।
- वर्ष 1922 में जब महात्मा गांधी पर राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया, तब उन्होंने कहा था कि “मैं जानता हूँ इस कानून के तहत अब तक कई महान लोगों पर मुकदमा चलाया गया है और इसलिये मैं इसे स्वयं के लिये सम्मान के रूप में देखता हूँ।”
राजद्रोह से जुड़े चर्चित मुद्दे
- महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक- 1897
शायद इतिहास में राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मामले औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के ही रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वप्रथम वर्ष 1897 में जब उनके एक भाषण ने कथित तौर पर अन्य लोगों को हिंसक व्यवहार के लिये उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई। इसके बाद वर्ष 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में एक सरकार विरोधी लेख लिखा।
- केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य- 1962
यह मामला स्वतंत्र भारत की किसी अदालत में राजद्रोह का पहला मुकदमा था। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदार नाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के तहत नहीं गिना जाएगा।
- असीम त्रिवेदी बनाम महाराष्ट्र राज्य- 2012
विवादास्पद राजनीतिक कार्टूनिस्ट और कार्यकर्त्ता, असीम त्रिवेदी जो अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान (कार्टून्स अगेंस्ट करप्शन) के लिये सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं, को वर्ष 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनके कई सहयोगियों का मानना था कि असीम त्रिवेदी पर राजद्रोह का आरोप भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के कारण ही लगाया गया है।
क्या निरस्त होना चाहिये राजद्रोह कानून?
- राजद्रोह कानून के विरोधियों का मानना है कि यह गांधी दर्शन के मूल सिद्धांत, असंतोष का अधिकार, की अवहेलना करता है।
- पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में स्पष्ट किया था कि धारा 124A का संबंधित दंडात्मक प्रावधान "अत्यधिक आपत्तिजनक और अप्रिय है एवं जितनी जल्दी हम इससे छुटकारा पा लें उतना बेहतर होगा।"
- धारा 124A औपनिवेशिक विरासत का एक अवशेष है एवं एक लोकतंत्र में अनुपयुक्त है। यह भाषण और अभिव्यक्ति की संवैधानिक रूप से गारंटीकृत स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
- एक जीवंत लोकतंत्र के लिये आवश्यक है कि उसमें सरकार की आलोचना और उसके प्रति असंतोष को भी स्थान दिया जाए, परंतु कई बार इस कानून का गलत प्रयोग ऐसा संभव नहीं होने देता।
- ब्रिटिश, जिन्होंने सर्वप्रथम इस कानून को लागू किया था, ने स्वयं भी अपने देश से इस कानून को समाप्त कर दिया है, जिसके कारण हमारे पास कोई भी कारण नहीं बचता कि हम इस वर्षों पुराने कानून के बोझ को आज भी ढोएँ।
- कई बार देश में राजद्रोह कानून के अनुचित प्रयोग की बात भी सामने आई है।
- केंद्रीय गृह मंत्रालय के आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष 2014 से वर्ष 2016 के बीच इस कानून के तहत कुल 179 लोगों को गिरफ्तार किया गया और उनमें से केवल 2 ही लोगों पर आरोप सिद्ध हो सके।
- आज सरकारों के बीच यह कानून इतना लोकप्रिय हो गया है कि तमिलनाडु के कुंडकुलम में एक गाँव पर इसलिये देशद्रोह कानून थोप दिया गया था, क्योंकि वे वहाँ परमाणु सयंत्र लगाए जाने के पक्ष में नहीं थे।
- वर्ष 2014 में झारखंड में तो विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी देशद्रोह कानून चलाया गया था।
कानून के पक्ष में तर्क
- राजद्रोह कानून के हिमायतियों का कहना है कि IPC की धारा 124A में राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने की क्षमता है।
- यह लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाता है। विदित है कि कानून द्वारा स्थापित सरकार का स्थायी अस्तित्व राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।
- उनका कहना है कि यदि अदालत की अवमानना के लिये दंडात्मक कार्रवाई सही है, तो फिर सरकार की अवमानना करने पर भी दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिये।
- आज विभिन्न राज्य माओवादी विद्रोह का सामना कर रहे हैं और इनसे निपटने के लिये यह कानून आवश्यक है।
राजद्रोह पर विधि आयोग का दृष्टिकोण
- वर्ष 1968 में अपनी 39वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने खंड को निरस्त करने के विचार को खारिज कर दिया था।
- वर्ष 1971 की अपनी 42वीं रिपोर्ट में विधि आयोग चाहता था कि संविधान, विधायिका और न्यायपालिका को कवर करने के लिये इस खंड का दायरा बढ़ाया जाए।
- अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया जिसमें सिफारिश की गई थी कि यह समय देशद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124A पर पुनः विचार करने और उसे निरस्त करने का है।
आगे की राह
- देशद्रोह की परिभाषा को संकीर्ण किया जाना चाहिये, जिसमें केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता और देश की संप्रभुता जैसे विषय ही शामिल होने चाहिये।
- सरकार या सरकारी नीतियों की आलोचना करना राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है, इसलिये राजद्रोह का मुकदमा तभी दायर होना चाहिये, जब किसी व्यक्ति या किसी समूह द्वारा देश की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर सवाल खड़ा किया जाए।
- नागरिक समाज को राजद्रोह कानून के मनमाने उपयोग के बारे में जागरूकता बढ़ाने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये।
प्रश्न: राजद्रोह कानून से देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समक्ष खतरा उत्पन्न होता है। टिप्पणी कीजिये।