भारत नेपाल संबंधों में एक नया दौर | 22 Aug 2017
भूमिका
नेपाल की राजनीतिक उथल-पुथल एवं नए संविधान की रचना में आने वाली नित नई चुनौतियों का प्रभाव न केवल इसी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है बल्कि भारत-नेपाल संबंधों पर भी इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। हालाँकि, इस संबंध में दोनों देशों की सरकारों द्वारा निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं तथापि बदलते क्षेत्रीय संदर्भों में यह सब न तो बहुत आसान है और न ही बहुत कठिन। संभवतः इसका कारण यह है कि हमेशा से ही भारत-नेपाल के मध्य मधुर एवं सहयोगात्मक संबंध रहे है। जैसा की हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ दिनों से भारत एवं चीन के मध्य डोकलाम मुद्दे को लेकर तनाव की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में भारत के लिये अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को मज़बूत बनाना बहुत ज़रुरी हो गया है। यह तभी संभव है जब भारत अपनी राष्ट्रीय राजनीति एवं प्रशासनिक व्यवस्था के मध्य सामंजस्य बैठाते हुए अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बारे में गंभीरता से विचार-विमर्श करें। वस्तुतः भारत नहीं चाहेगा कि चीन के समक्ष किसी भी मुद्दे पर वह अकेला पड़े इसलिये उसे उसके पड़ोसी देशों का पर्याप्त समर्थन प्राप्त करने की आवश्यकता है।
बाधाएँ एवं अविश्वसनीयता
- उल्लेखनीय है कि 23 अगस्त, 2017 को नेपाल के नव-नियुक्त प्रधानमंत्री श्री शेर बहादुर देउबा की भारत यात्रा कईं मायनों में बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- यह सच है कि भारत ने वर्ष 2006 में नेपाल में माओवादी विद्रोह का अंत करने में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया। लेकिन इसके बाद का समय दोनों देशों के मध्य कुछ खास उत्साहवर्धक नहीं रहा। नेपाल की आंतरिक कलह ने उसके एवं भारत के मध्य कटुता का माहौल उत्पन्न किया।
- हालाँकि. इस संबंध में भारत द्वारा नेपाल पर आरोप लगाए गए। भारत के अनुसार, नेपाल के नए संविधान लेखन के समय नई प्रांतीय सीमाओं को परिभाषित करने का प्रयास किया गया।
- नेपाल के राजनीतिक संक्रमण काल के दौरान भारत ने वृहद स्तर पर इसकी सहायता की। दरअसल नेपाल की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि इसने एक नए गणराज्य की स्थापना के विकल्प के विषय में विचार करने के बजाय सदैव राजतंत्र के अधीन रह कर ही शासन व्यवस्था को नियंत्रित करने का प्रयास किया है।
- फिर चाहे वह मधेशियों का मुद्दा हो अथवा न्यायाधीशों, राजदूतों एवं सरकारी व्यक्तियों की नियुक्ति का। नेपाल के हर अहम फैसले में उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति की भूमिका बहुत कम रही है, जिसने न केवल नेपाल के अन्य देशों के साथ संबंध प्रभावित किये है बल्कि इसकी राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित किया है।
भारत का पक्ष
- कुछ कारणों से भारत द्वारा नेपाली संविधान का उस रूप में स्वागत नहीं किया गया जिस रूप में नेपाल को आशा थी। वस्तुतः यह भारत की बदलती विदेश नीति का प्रभाव था।
- इन सबके विपरीत अप्रैल 2015 में नेपाल में भूकंप ने दोनों देशों के मध्य आपसी समझ एवं दोस्ती का एक नया ही रूप प्रस्तुत किया। भारत द्वारा न केवल आर्थिक रूप से नेपाल का सहयोग किया गया बल्कि सेना द्वारा राहत कार्यक्रम का संचालन कर नेपाल को पुन: भारत के साथ अपने संबंधों को एक नए आयाम पर पहुँचाने की संभावना भी व्यक्त की गई।
- आज तक नेपाल के आंतरिक मुद्दों के संबंध में भारत द्वारा कभी भी खुलकर कोई टिप्पणी नहीं गई, परंतु नवंबर 2015 में जेनेवा में भारतीय प्रतिनिधित्व द्वारा काठमांडू (नेपाल की राजधानी) में राजनीतिक फेर-बदल को प्रभावित करने के लिये मानवाधिकार परिषद् (Human Rights Council) के मंच का कठोरतापूर्वक उपयोग किया गया।
- इसी क्रम में भारतीय वार्ताकारों द्वारा नेपाली कांग्रेस पर मुख्यधारा में शामिल सी.पी.एन. [Communist Party of Nepal (Unified Marxist-Leninist)] का साथ छोड़कर पुष्प कमल दहल की माओवादी पार्टी (Maoist party) के साथ गठबंधन बनाने का दबाव भी डाला गया।
- वस्तुतः भारत के इस बदले रुख का कारण केवल इसकी कूटनीति में बदलाव होना भर नहीं है बल्कि पिछले दिनों बिहार एवं उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों का गुना-गणित भी था। इस समस्त प्रक्रिया के पीछे जो मानसिकता काम कर रही है उसका मूल विशेषज्ञों द्वारा कहीं न कहीं नेपाल को वापस "हिन्दू राज्य' के रूप में स्थापित करना भी बताया जा रहा है।
- दीर्घावधि में भारत ने नेपाल पर अपना प्रभुत्त्व बनाए रखने के क्रम में कुछ अति-महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं को भी लामबंद किया है, जिनके अंतर्गत भारत द्वारा नेपाल को इसकी नदियों पर ऊँचे बांध बनाने के साथ-साथ गहरे जलाशयों का निर्माण करने तथा खाद्य नियंत्रण, नौचालन एवं यू.पी. और बिहार में सिंचाई एवं शहरी घटकों के प्रयोग को भी अनुमति प्रदान की गयी है।
- वस्तुतः यह सब इस सोच के साथ किया जा रहा है कि संभवतः एक विशेष संघीय सीमांकन नेपाल को उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति और अधिक उत्तरदायी बनाने में सहायक साबित हो सके।
- इन सभी लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयासों के मद्देनज़र भारत ने नेपाल की राजनीति में गहरी पकड़ बनाई ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह जैसे चाहे वैसे इसका इस्तेमाल कर सके। उदाहरण के तौर पर मधेसबादी पार्टी (Madhesbaadi partie)।
- जैसा कि ज्ञात है कि सर्वप्रथम भारत का रुख मधेशियों को नेपाल में नागरिकता का अधिकार दिलाना था, परन्तु बदलते समय के साथ-साथ इसने अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए अपने कदम वापस खिंच लिये ।
- भारत की इस 'इस्तेमाल करो और फेंक दो' (use and throw) नीति का स्पष्ट उदाहरण हमें उस समय देखने को मिला जब भारत ने मधेसबादी नेताओं को नेपाल के स्थानीय चुनावों के विरूद्ध खड़ा किया। एक जानकारी के मुताबिक, ऐसा करने के लिये उन्हें भारतीय दूतावास द्वारा प्रेरित किया गया था ।
आगामी प्रयास
- हालाँकि, नेपाली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान इस संबंध में बेहतर प्रयास किये जाने की संभावना है ताकि दोनों देशों के मध्य संबंधों को एक नए मुकाम पर पहुँचाया जा सके।
- संभवतः भारत को भी इस दिशा में और अधिक गंभीरता से प्रयास करने की आवश्यकता है क्योंकि अतीत चाहे जो भी रहा हो, लेकिन वर्तमान में भारत को यह नहीं भूलना चाहिये कि नेपाल एवं चीन के मध्य बढ़ती समीपता उसके एवं नेपाल के कुटनीतिक संबंधों के लिये खतरे से कम नहीं है।
- उदाहरण के तौर पर, वर्तमान समय में चीन एवं नेपाल के मध्य वायु संपर्क व्यवस्था उत्कृष्ट कोटि की है जबकि इसकी तुलना में भारत की स्थिति काफी खराब है।
लंबित मामलें
- भारत एवं नेपाल के मध्य ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिनके विषय में अभी तक लापरवाही का रवैया अपनाया गया है। इन मामलों में एक है दोनों देशों के मध्य खुली सीमा का मुद्दा। हालाँकि, भारत-नेपाल सीमा, दोनों देशों की अनोखी संयुक्त विरासत का प्रतीक है। तथापि इस संबंध में अक्सर नेपाली वामपंथियों द्वारा कुछ विशेष नियमों एवं प्रतिबन्धों के अनुपालन के संदर्भ में आवाज़ उठाई जाती रही है।
- परंतु, पिछले कुछ समय से भारतीय पक्ष द्वारा भी इस संबंध में सख्त कदम उठाने की मांग की गई है जिसने इस मुद्दे को एकबार फिर चर्चा का विषय बना दिया है।
- दूसरी समस्या यह है कि नेपाल का मैदानी क्षेत्र अक्सर बाढ़ का शिकार होता रहता है जिसका प्रभाव उसके समीप के भारतीय भागों पर भी पड़ता है। स्पष्ट रूप से इस संबंध में गंभीर कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि भारतीय पक्ष को इस हानि से सुरक्षित रखा जा सके।
- उदाहरण के तौर पर, बहुत लंबे समय से नेपाल से निकलने वाली कोसी नदी पर नेपाल में बांध बनाने की बात हो रही है, परंतु इस संबंध में अभी तक कोई विशेष निर्णय नहीं लिये गए है। विदित हो कि कोसी नदी पर कोई विशेष प्रबंधन नहीं होने के कारण बिहार राज्य को इसके दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ता है।
निष्कर्ष
स्पष्ट रूप से चाहे वह अर्थव्यवस्था का मुद्दा हो अथवा नेपाल में भारतीय कामगारों के अधिकारों का, ऐसे बहुत से मामले हैं जिनके विषय में भारत एवं नेपाल को जल्द से जल्द किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में इसके संबंध में किसी तनाव से बचा जा सके। दोनों देशों के मध्य एक लंबे समय से सुस्ता, कालापानी एवं लिपुलेख के त्रि-जंक्शन के संबंध में विवाद की स्थिति बनी हुई है लेकिन नेपाल के डरपोक रवैये के कारण इस दिशा में कोई कार्यवाही नहीं हो पा रही है। संभवतः इसका एक अहम कारण लंबे समय से चली आ रही नेपाली राजनीतिक अव्यवस्था है। ऐसे में भारत के लिये यह बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि वह बदलते क्षेत्रीय समीकरणों को मद्देनज़र रखते हुए नेपाल के साथ अपने संबंधों को बेहतर करने की दिशा में प्रयास करे तथा उसका सहयोग एवं समर्थन हासिल करने में कामयाब हो सके।