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कृषि

रेनफेड फार्मिंग: चुनौतियाँ और संभावनाएँ

  • 06 Nov 2021
  • 15 min read

यह एडिटोरियल 02/11/2021 को ‘हिंदू बिज़नेसलाइन’ में प्रकाशित ‘Need to boost rainfed farming’ लेख पर आधारित है। इसमें वर्षा आधारित कृषि अथवा ‘रेनफेड फार्मिंग’ से संबद्ध विषयों की चर्चा की गई है।

संदर्भ

इसमें कोई संदेह नहीं कि मानवीय गतिविधियों ने वायुमंडल, महासागरों और भूमि को गर्म करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है, जिसका उल्लेख हाल की IPCC रिपोर्ट में भी किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत भर में ग्रीष्म लहरों की तीव्रता में वृद्धि होगी, जिसका हमारी कृषि और जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अत्यधिक मानसूनी बारिश के कारण वृष्टि-बहुल बाढ़ों की वृद्धि होगी। ऐसी 'अपेक्षित अनिश्चितता' के साथ चीज़ें सामान्य नहीं रह जाएंगी। व्यापक योजनाबद्धता और प्रयासों के बाद भारत खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर पाया था। पोषण सुरक्षा को संबद्ध करते हुए इस खाद्य सुरक्षा की स्थिति बनाए रखना और इसमें सुधार लाना हमारे लिये अनिवार्य है।

भारत में वर्षा आधारित कृषि अथवा ‘रेनफेड फार्मिंग’ (Rainfed Farming) के तहत एक बड़ा भूभाग शामिल है, और इसलिये देश में कृषि क्षेत्र की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिये इस क्षेत्र पर ध्यान देना अनिवार्य है।

वर्षा आधारित कृषि अथवा ‘रेनफेड फार्मिंग’ और कृषि-पारिस्थितिकी

  • देश के वर्षा सिंचित क्षेत्र लगभग 90% बाजरा, 80% तिलहन एवं दलहन और 60% कपास का उत्पादन करते हैं और हमारी लगभग 40% आबादी एवं 60% पशुधन का संपोषण करते हैं।
  • ये तथ्य आसन्न जलवायु परिवर्तन के प्रति पहले से मौजूद भेद्यता या अरक्षितता को प्रस्तुत करते हैं। हमारे पास एकमात्र विकल्प यह है जलवायु परिवर्तन के प्रति हम तैयारी रखें, इसके प्रति अनुकूलित हों और इसके शमन का प्रयास करें।
  • वर्षा सिंचित क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से कमज़ोर हैं और इसलिये जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता रखते हैं, जबकि निर्धन किसानों की एक बड़ी आबादी इस पर निर्भर है। इसके साथ ही, वर्षा सिंचित क्षेत्र बाजरा, दलहन और तिलहन के माध्यम से पोषण सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।
  • इन क्षेत्रों की अधिकांश स्थानिक और कृषियोग्य भूमि प्रजातियाँ अल्पकालिक हैं। 'अल्पकालिक' (Ephemerals) शब्द उन सभी पादपों को इंगित करता है जो अल्पकालिक अवधि में अपना जीवन-चक्र पूरा कर लेते हैं और वे वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उपजते हैं।
  • जब भी वर्षा होती है, सुप्त बीज अंकुरित हो जाते हैं, वे फूल और बीज उत्पन्न करते हैं, और थोड़े समयांतराल में ही अपने बीज का प्रकीर्णन पूरा कर लेते हैं। अधिकांश वर्षा सिंचित फसलों की उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में उसी प्रजाति की उत्पादकता की तुलना में कम होती है और इसलिये रेनफेड फार्मिंग सुधार कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रत्यास्थता और बेहतर उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • भारत 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों वाला एक उपोष्णकटिबंधीय देश है और मुख्य रूप से दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है।
    • भारत के 329 मिलियन हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से लगभग 140 करोड़ हेक्टेयर शुद्ध बुवाई क्षेत्र है और इसमें से 70 मिलियन हेक्टेयर वर्षा पर निर्भर है। भारतीय कृषि जोत का औसत आकार लगभग एक हेक्टेयर है।

कृषि पारिस्थितिकी का महत्त्व

  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) कृषि पारिस्थितिकी (Agro-Ecology) को ‘कृषि के प्रति पारिस्थितिक दृष्टिकोण’ के रूप में परिभाषित करता है जिसे प्रायः ‘लो-एक्सटर्नल-इनपुट फार्मिंग’ (Low-External-Input Farming) के रूप में वर्णित किया जाता है। इसके लिये पुनर्योजी कृषि (Regenerative Agriculture) या पर्यावरण अनुकूल कृषि (Eco-Agriculture) जैसे अन्य संज्ञाओं का भी प्रयोग किया जाता है।
    • कृषि पारिस्थितिकी केवल कृषि पद्धतियों का एक समूह भर नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संबंधों में परिवर्तन लाने, किसानों को सशक्त बनाने, स्थानीय स्तर पर मूल्य निर्माण और लघु मूल्य शृंखलाओं को विशेष महत्त्व देने पर केंद्रित है।
    • यह किसानों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनने और प्राकृतिक संसाधनों एवं जैव विविधता के संवहनीय उपयोग और संरक्षण का अवसर देती है।
  • सरल शब्दों में, कृषि-पारिस्थितिकी फसल विविधता प्रदान करती है। विश्व में लगभग 30,000 खाद्य-योग्य पादप मौजूद हैं, लेकिन चावल, गेहूँ, मक्का, कसावा, आलू आदि ही विश्व के मुख्य खाद्य आहार बने रहे हैं।
  • यह निम्न ऊर्जा बाह्य इनपुट्स, उद्यमों के रूप में कृषि-पारिस्थितिक सेवाओं के विस्तार, बहु-फसलों के माध्यम से लंबे समय तक मृदा के उपयोग, विशिष्ट फसल उत्पादन और क्षेत्रीय बाज़ारों पर लक्षित है।

रेनफेड फार्मिंग की चुनौतियाँ

  • बार-बार सूखा और अकाल: सूखा और अकाल भारत में वर्षा आधारित कृषि अथवा ‘रेनफेड फार्मिंग’ की दो सामान्य विशेषताएँ हैं।
  • मृदा क्षरण: 1960 के दशक की हरित क्रांति के बाद से राष्ट्रीय कृषि नीति सिंचाई और उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के गहन उपयोग के माध्यम से फसल उपज को अधिकतम करने की आवश्यकता से प्रेरित रही है।
    • शुष्क क्षेत्रों और रेनफेड फार्मिंग प्रणालियों में मृदा को संरक्षित करने में यह एक बड़ी चुनौती रही है।
  • निम्न निवेश क्षमता: भारत में वर्षा सिंचित कृषि में छोटे और सीमांत किसान संलग्न हैं, जो कि 1960-1961 में 62% की तुलना में 2015-2016 में 86% परिचालन जोत के लिये उत्तरदायी थे।
  • बदतर बाज़ार संपर्क: अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र निर्वाह अर्थव्यवस्था की विशेषता रखते हैं। यहाँ अतिरिक्त कृषि उपज तभी बेची जाती है जब परिवार की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो गई हो।
    • इसके अलावा, व्यक्तिगत उत्पादन इकाइयाँ (परिवार) स्वतंत्र रूप से संचालित होती हैं जिससे एक कुशल विपणन के लिये उत्पाद को एकत्र करना कठिन हो जाता है।
  • जल की कमी वाले क्षेत्रों में भी आमतौर पर इतनी वर्षा प्राप्त हो जाती है कि वर्षा आधारित कृषि प्रणालियों में पैदावार को दोगुना या चौगुना किया जा सकता है। लेकिन वर्षा नियमित रूप से और उपयुक्त समय पर नहीं होती जिससे सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और इस जल का अधिकांश बर्बाद हो जाता है।
    • रेनफेड फार्मिंग के उन्नयन के लिये जल के अलावा मृदा, फसल और खेत प्रबंधन में निवेश के साथ ही बेहतर बुनियादी अवसंरचना और बाज़ारों की भी आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, भूमि एवं जल संसाधनों पर बेहतर और अधिक न्यायसंगत पहुँच और सुरक्षा सुनिश्चित करना होगा।
    • वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उत्पादन और इस प्रकार ग्रामीण आजीविका में सुधार के लिये, वर्षा से संबंधित जोखिमों को कम करने की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह है कि जल प्रबंधन में निवेश करना रेनफेड फार्मिंग की क्षमताओं को साकार करने के लिये एक आरंभिक कदम होगा।

आगे की राह

  • सरकारी सहायता की आवश्यकता: वर्षा सिंचित क्षेत्र और उनके किसान शायद ही योजनाओं से लाभान्वित होते हैं क्योंकि वे कम उर्वरकों और सिंचाई का उपयोग करते हैं और उर्वरक एवं बिजली पर प्रदत्त सब्सिडी का पूरा लाभ नहीं ले पाते।
    • इन क्षेत्रों पर विशेष रूप से नए सिरे से ध्यान देने की ज़रूरत है, विशेषकर जब जलवायु पूर्वानुमान उनके अनुकूल नहीं हैं।
  • वर्षा सिंचित क्षेत्रों में कृषि-पारिस्थितिकी की शुरुआत करना एक बेहतर नीति विकल्प हो सकता है। इस तरह के हस्तक्षेपों के ‘डिज़ाइन एलिमेंट्स’ बीज स्तर से आरंभ होते हुए बाज़ार स्तर तक पहुँचने चाहिये।
    • स्थानिक भूमि नस्लों को संहिताबद्ध करना, उनके बीज एकत्र करना, औपचारिक एवं नागरिक समाज से प्राप्त स्वदेशी ज्ञान का भंडार बनाना, पौधों के चयन या पौधों के प्रजनन के माध्यम से भूमि प्रजातियों में सुधार, कृषि संबंधी अभ्यासों के विकास, क्षेत्र विशिष्ट अभिविन्यास, संस्थान, लिंग, अन्य कार्यक्रमों के साथ अभिसरण, विपणन रणनीतियाँ, माप के लिये मीट्रिक और प्रौद्योगिकी ऐसे कुछ प्रमुख डिज़ाइन एलिमेंट्स हैं।
  • पोस्ट-कोविड विश्व में प्रतिरक्षा वृद्धि और निम्न या नगण्य रासायनिक अवशेषों वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता है।
    • वर्षा आधारित क्षेत्र इसके स्पष्ट विकल्प हैं और बाज़ारों को कृषि-पारिस्थितिकी के लिये तैयार करना एक अच्छी रणनीति हो सकती है।
    • इन पौष्टिक फसलों को प्रभावी ढंग से पकाने के बारे में उपभोक्ता शिक्षण मांग में वृद्धि उत्पन्न कर सकता है। कर्नाटक सरकार द्वारा बाजरा के लिये एक वर्णनात्मक कुकबुक तैयार की गई है।
  • इस संबंध में एक अधिक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, ताकि रेनफेड फार्मिंग में संलग्न किसानों को भी उसी स्तर का अनुसंधान और प्रौद्योगिकी फोकस और उत्पादन समर्थन मिल सके, जैसा पिछले कुछ दशकों में सिंचित क्षेत्रों के किसानों को प्राप्त हुआ है।
  • रेनफेड फार्मिंग में अधिकाधिक अनुसंधान एवं विकास के साथ ही वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सरकारी योजनाओं में आवश्यक फेरबदल करने जैसे अधिक नीति परिप्रेक्ष्य लाने की तात्कालिक आवश्यकता है।
  • दीर्घावधि में पीएम-किसान योजना (अंतरिम बजट 2019 में घोषित) जैसे नकद प्रोत्साहन और आय समर्थन कार्यक्रम व्यापक खरीद से बेहतर साबित हो सकते हैं क्योंकि वे अधिक समावेशी हैं, और किसानो के बीच क्षेत्र या उगाई जाने वाली फसलों के आधार पर विभेद नहीं करते हैं।
  • मौजूदा संकट के समय किसानों की मदद करने के लिये आय समर्थन के साथ-साथ, अब यह उपयुक्त समय है कि भविष्य के लिये बेहतर संरचित हस्तक्षेपों को रूपाकार दिया जाए।
  • दीर्घावधि में कृषि को आकर्षक बनाने के लिये ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की तरह वर्षा सिंचित क्षेत्रों में बीज, मृदा, जल आदि के मापदंडों पर ‘ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग’ को बढ़ावा दिया जा सकता है।

निष्कर्ष

वर्षा सिंचित कृषि का महत्त्व क्षेत्रवार रूप से भले ही भिन्न-भिन्न है, लेकिन विकासशील देशों में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में ही निर्धन समुदायों के लिये अधिकांश खाद्य का उत्पादन होता है। यद्यपि सिंचित क्षेत्रों के उत्पादन ने भारतीय खाद्य उत्पादन (विशेषकर हरित क्रांति के दौरान) में अधिक उच्च योगदान किया है, लेकिन वर्षा सिंचित कृषि अभी भी कुल अनाज के लगभग 60% का उत्पादन करती है और एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

इस परिप्रेक्ष्य में, कृषि क्षेत्र को संवहनीय और जलवायु परिवर्तन के लिये प्रतिरोधी बनाने हेतु वर्षा आधारित कृषि पर ध्यान देना अनिवार्य है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में वर्षा आधारित खेती के अंतर्गत एक बड़े क्षेत्र के होने के साथ देश में कृषि क्षेत्र की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिये वर्षा आधारित कृषि पर ध्यान देना अनिवार्य है। चर्चा कीजिये।

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