नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


आंतरिक सुरक्षा

पुलवामा आतंकी हमला: उग्र प्रतिक्रिया नहीं कठोर नीति की ज़रूरत

  • 19 Feb 2019
  • 12 min read

संदर्भ

जब भी पाकिस्तान शांति की भाषा बोलना शुरू करता है, तो भारत में उसे लेकर छिद्रान्वेषण शुरू हो जाता है कि ज़रूर कुछ असामान्य होने वाला है जिससे भारत को परेशानी होनी निश्चित है। कश्मीर घाटी के पुलवामा में CRPF के लंबे सड़क काफिले पर हुए फिदायीन आतंकी हमले में 42 जवानों की शहादत की वज़ह से देशभर में माहौल शोकाकुल है और लोगों के मन में दुख, घृणा और क्रोध की भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा है।

इस आतंकी हमले में बेहद शक्तिशाली IED (Improvised Explosive Device) का इस्तेमाल किया गया, जो यह बताने के लिये पर्याप्त है कि इसके लिये तकनीकी विशेषज्ञता के साथ पूरी तैयारी की गई थी।

गौरतलब है कि पठानकोट एयर बेस पर पाकिस्तानी फिदायीन हमले के बाद उड़ी और नगरोटा के आर्मी कैम्पों पर बड़े आतंकी हमले हुए थे...और अब पुलवामा। इससे पता चलता है कि हालात में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है।

पाकिस्तान में लोगों के जमावड़े में धार्मिक युवा कट्टरपंथियों द्वारा विस्फोट कर खुद को उड़ा देने की घटनाएँ समय-समय पर सामने आती रहती हैं। अब पुलवामा के आतंकी हमले में भी यही देखने को मिला है, अन्यथा कश्मीर में आतंकवाद के लंबे दौर में आत्मघाती बम विस्फोट (फिदायीन हमला) पहले कभी देखने को नहीं मिला था।

केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल (Central Reserve Police Force-CRPF)

  • आंतरिक सुरक्षा के लिये यह भारत का प्रमुख केंद्रीय पुलिस बल है।
  • क्राउन रिप्रेजेन्टेटिव्स पुलिस के रूप में 27 जुलाई 1939 को CRPF अस्तित्व में आया।
  • 28 दिसंबर, 1949 को CRPF अधिनियम के द्वारा यह केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल बन गया।

केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल के प्रमुख कार्य क्षेत्र

  • भीड़ पर नियंत्रण
  • दंगा नियंत्रण
  • उग्रवाद का विरोध
  • विद्रोह को रोकने के उपाय
  • वामपंथी उग्रवाद से निपटना
  • विशेष रूप से अशांत क्षेत्रों में चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर सुरक्षा व्यवस्था का समन्वय
  • युद्ध की स्थिति में दुश्मन से लड़ना
  • सरकार की नीति के अनुसार संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में भाग लेना
  • प्राकृतिक आपदा तथा अन्य आपदाओं के समय बचाव और राहत कार्य चलाना

पुलवामा हमले से उपजी चिंताएँ

  • यह पहली बार देखने में आया है जब जम्मू-कश्मीर में वाहन में विस्फोटकों से भरे IED का इस्तेमाल किया गया। आतंकियों को इस रणनीति में मिली सफलता से घाटी में चल रहे आतंकवाद-रोधी अभियानों में एक नया चरण शामिल हो गया है।
  • ऐसी किसी भी घटना को पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आकाओं द्वारा बारीकी से सोच-विचार कर अंजाम दिया जाता है, जिसमें पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय और इंटर सर्विस इंटेलीजेंस (ISI) का हाथ होता है।
  • एक के बाद एक अचानक होने वाले आतंकी हमलों से भारत तुरंत उसका जवाब देने की स्थिति में नहीं होता और न ही ऐसा हो पाना संभव है।
  • कश्मीर की जटिलता के समाधान के लिये रणनीति तैयार करने हेतु देश में कोई बेहतर ठोस पहल होती दिखाई नहीं देती। इसी कमी का लाभ हमारी पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर स्थित चीन और पकिस्तान ने अलग-अलग और एक साथ मिलकर भी उठाया है।
  • भारत तीन दशकों से पाकिस्तान की उस रणनीति का सामना कर रहा है, जिसमें भारत को लहूलुहान करने के लिये वह आतंकवादियों और धार्मिक कट्टरपंथियों का सहारा लेता है।
  • हमारे देश के राजनेता अधिकांश समय चुनावी राजनीति में लिप्त रहते हैं और यह भी एक बड़ा कारण है जिसकी वज़ह से राष्ट्रीय सुरक्षा को दशकों से उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। हमारी सेना में संगठन के स्तर पर और सैन्य साजो-सामान की उपलब्धता पर इसका असर स्पष्ट देखा जा सकता है।
  • चाहे मामला व्यक्तियों के अपहरण का हो या विमान अपहरण का, आतंकवादी हमले हों या भारत की संप्रभुता पर अन्य किसी प्रकार का आक्रमण, हमें प्रारंभिक और सुसंगत प्रतिक्रिया देने में समय लगता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि राज्य के अधिकारियों के पास मार्गदर्शन के लिये मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOP) का अभाव होता है।
  • बेशक पढ़ने-सुनने में अच्छा न लगे, लेकिन सच यही है कि भारत में गुप्तचर जानकारियों का विश्लेषण करने और विभिन्न गुप्तचर एजेंसियों के बीच समन्वय में कमी है। इसके अलावा, देश में एक राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत का भी अभाव है।
  • भारत ने पोखरण-II के बाद बेशक एक विस्तृत राष्ट्रीय सुरक्षा ढाँचा बनाया है, लेकिन उसे एक सिद्धांत के रूप में सामने लाने से कतराता रहा है।
  • इसके अलावा राजनयिक और आर्थिक कदम भी उठाए जाते रहे हैं, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में सुरक्षा-सह-रक्षा सिद्धांत की तत्काल घोषणा के लिये उपयुक्त समय है।
  • भारत के महत्त्वपूर्ण हितों, उद्देश्यों, रणनीति बनाने, आकस्मिक योजना के आधार को परिभाषित करने और मानक संचालन प्रक्रियाओं को दर्शाने वाला एक दस्तावेज़ सार्वजनिक किया जाना चाहिये, जिससे जनता को आश्वस्त करने वाला स्पष्ट संदेश मिल सके।

आगे की राह

  • पुलवामा जैसे हमले की पुनरावृत्ति को रोकने के लिये यह ज़रूरी है कि गुप्तचर सूचनाओं की गुणवत्ता तथा समयबद्धता और सशस्त्र पुलिस बल के काफिले द्वारा अपनाई जा रही मानक संचालन प्रक्रिया की तत्काल समीक्षा की जाए।
  • पुलवामा हमले ने हमें एक बार फिर यह सोचने-विचारने का मौका दिया है कि इस पर किसी तात्कालिक उग्र या भावनात्मक प्रतिक्रिया के बजाय इसका इस्तेमाल अभी तक संकट की स्थितियों में हमारे प्रबंधन और आत्मनिरीक्षण के एक अवसर के तौर पर किया जाए। विशेषकर कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका के मद्देनज़र ऐसा करना बहुत ज़रूरी हो गया है।
  • राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व को चुनावी विचारों की तात्कालिकता के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को प्राथमिकता देनी होगी।
  • चाहे किन्हीं विकल्पों को चुना जाए, उनके पीछे राजनीतिक सहमति और आंतरिक सामाजिक सामंजस्य का प्रबंधन होना आवश्यक है।
  • इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि यदि कश्मीर घाटी से बाहर रहने वाले कश्मीरी मुसलामानों का शारीरिक शोषण और उत्पीड़न होता है, तो भारत को अपने रणनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में कठिनाई होगी...और न ही देश में रहने वाले मुसलामानों के साथ सोशल मीडिया पर गाली-गलौज़ और अभद्रता करने से इस समस्या का कोई समाधान निकल सकेगा।
  • निस्संदेह भारत के लिये यह समय कठिनाइयों, परेशानियों और मुश्किलों से भरा है, ऐसे में शीर्ष नेतृत्व को यह सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे कि भारतीय सशस्त्र बलों के पास किसी भी कार्रवाई को संचालित करने का मजबूत आधार है...और वैसे भी यह हमेशा एक सैन्य ज़रूरत है।
  • किसी भी गलत कार्रवाई के बाद हुई उग्र प्रतिक्रिया को स्थायी समाधान नहीं माना जा सकता। इसके लिये नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है, जिनसे गुमराह कश्मीरी युवाओं का विश्वास पुनः जीता जा सकता है और इससे कश्मीर के समग्र विकास की एक नई राह भी खुल सकती है।

33 वर्षों से लंबित अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ व्यापक संधि

पुलवामा फिदायीन हमले के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ व्यापक संधि को जल्द अपनाने के लिये दबाव बनाने का फैसला किया है, जो 1986 के बाद से संयुक्त राष्ट्र में लंबित है । यह मुद्दा आतंकवाद की परिभाषा को लेकर एक राय नहीं बन पाने की वज़ह से 33 वर्षो से संयुक्त राष्ट्र में लंबित है। भारत का लगातार यह रुख रहा है कि कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ व्यापक संधि को स्वीकार किये जाने से आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या के खिलाफ लड़ाई को कानूनी आधार मिलेगा और इस तरह की संधि के बिना संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकवाद विरोधी रणनीति अधूरी रहेगी। विभिन्न नामों, क्षेत्रों और उद्देश्यों को लेकर तेज़ी से पाँव पसार रहे इस वैश्विक खतरे को काबू में करने के लिये आतंकवाद पर व्यापक संधि का तुरंत अनुमोदन किया जाना चाहिये। देशों की सीमाओं पर बने मोर्चे हमारे सामाजिक ताने-बाने में प्रवेश कर गए हैं। आतंकवाद और उग्रवाद एक वैश्विक ताकत बन गए हैं जो उनके बदलते नामों, संगठनों, इलाकों और लक्ष्यों से कहीं बड़ी है।

दरअसल, भारत अक्सर पाकिस्तान की तरफ से पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान की दिशा में अपने प्रयासों को लेकर असमंजस में रहा है। जहाँ पाकिस्तान आतंकवाद को अपनी राज्य-नीति के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है, वहीं तमाम आतंकी हमलों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की आंतरिक सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी है। पाकिस्तान छद्म युद्ध के ज़रिये भारत के खिलाफ आतंकी हमलों को अंजाम देता रहा है। पाकिस्तान को लेकर भारतीय नीति निर्माताओं के सामने लंबे समय से सवाल बना रहा है कि सीमा पार से आने वाले गंभीर खतरों का सामना किस तरह से किया जाए। इसका तात्कालिक समाधान तो यही है कि पाकिस्तान जैसे देश के साथ जब जैसी ज़रूरत हो, उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए।

स्रोत: 18 फरवरी को The Indian Express में प्रकाशित Needed: Policy, Not Reaction तथा अन्य पर आधारित

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow