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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विधायी विशेषाधिकार

  • 30 Jun 2017
  • 7 min read

संदर्भ
संविधान ने विधायिका एवं उसके सदस्यों को अपनी गरिमा की रक्षा हेतु कुछ विशेषाधिकार प्रदान किये हैं। इन्ही विशेषाधिकारों के प्रावधानों के तहत हाल ही में कर्नाटक विधानसभा ने दो पत्रकारों को विशेषाधिकारों के उल्लंघन के लिये दोषी ठहराते हुए उन्हें सज़ा सुनाई है। यह कोई नया मामला नहीं है, बल्कि पहले भी ऐसा हो चुका है। उदाहरण के लिये वर्ष 2003 में तमिलनाडु विधानसभा ने ‘द हिंदू’ समाचार पत्र के प्रकाशक, संपादक, कार्यकारी संपादक को अवमानना के आरोप में 15 दिनों के कारावास की सज़ा सुनाई थी। अत: यह मामला एक बार फिर से यह सवाल खड़ा करता है कि आखिर विधायी विशेषाधिकार क्या होने चाहिये?

अन्य देशों में प्रावधान

  • विशेषाधिकार का प्रयोग सबसे पहले इंग्लैंड में किया गया था, जहाँ संसद ने खुद को राजा के अतिक्रमण से बचाने के लिये इन अधिकारों का प्रयोग किया था। इंग्लैंड संसद ने संसद में स्वतंत्र रूप से बोलने और वोट करने के लिये संसद सदस्यों की स्वतंत्रता सहित कई अधिकारों और विशेषाधिकारों का प्रावधान किया था।
  • इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि ऑस्ट्रेलिया ने वर्ष 1987 में ‘संसदीय विशेषाधिकार अधिनियम’ पारित किया था। यह अधिनियम कहता है कि "शब्दों या कृत्यों को सदन के खिलाफ अपराध के रूप में इसलिये नहीं लिया जाना चाहिये कि इन शब्दों या कृत्यों के द्वारा संसद, एक सदन, एक समिति या एक सदस्य की आलोचना की गई है। अधिनियम के तहत अधिकतम एक वर्ष के कारावास की सज़ा और 5,000 डॉलर के जुर्माने का उपबंध भी किया गया है।
  • वर्ष 1999 में ब्रिटिश संसद की एक संयुक्त समिति ने विशेषाधिकार के संहिताकरण की सिफारिश की थी, लेकिन इस सिफारिश को 2013 में गठित एक अन्य समिति ने उलट दिया था।

संवैधानिक प्रावधान 

  • भारतीय संविधान में अनुच्छेद-105 संसद के तथा अनुच्छेद-194 राज्य विधानमंडलों के अधिकारों और विशेषाधिकारों को निर्दिष्ट करता है।
  • संविधान के अन्य प्रावधानों और सदन के स्थायी आदेशों के अधीन संसद में भाषण की स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
  • संसद में भाषण और मतों की न्यायिक जाँच से छूट प्रदान की गई है।
  • संसद (और राज्य विधानसभाओं) को विशेषाधिकारों को संहिताकृत करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन तब तक वैसे ही विशेषाधिकार प्राप्त होंगे, जैसे 1950 में ब्रिटिश संसद को प्राप्त थे।
  • अभी तक न ही संसद और न ही राज्य विधानमंडलों ने अपने विशेषाधिकारों के संहिताकरण हेतु कोई भी कानून पारित किया है।

प्रशन 

  • क्या विशेषाधिकार का उपयोग व्यक्तिगत सदस्य की कार्यवाईयों पर टिप्पणी करने वालों पर करना चाहिये? 
  • विधायिका के सदस्यों और सदन की रक्षा करने वाले विशेषाधिकार क्या होने चाहिए? 
  • अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और विशेषाधिकारों के बीच कैसे संतुलन बैठाया जाए? 
  • एक और मुद्दा यह है कि क्या सदन को किसी व्यक्ति को जेल की सज़ा देने की शक्ति होनी चाहिये। ध्यातव्य है कि ब्रिटिश संसद के पास ऐसी शक्तियाँ हैं, लेकिन उसने वर्ष 1880 के बाद से इसका प्रयोग नहीं किया है। 
  • एक और  मूलभूत सवाल यह है कि विशेषाधिकार क्या हैं? एक संहिता की अनुपस्थिति में यह कैसे निर्धारित होगा कि कोई कार्रवाई विशेषाधिकार का उल्लंघन है या नहीं? यही कारण है कि विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध किया जाना चाहिये।

किये गए प्रयास 

  • यह स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने विशेषाधिकारों के संहिताकरण का उल्लेख किया था। 
  • संविधान सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संसद ही शक्तियों और विशेषाधिकारों को परिभाषित करेगी, लेकिन जब तक संसद इस कानून को पारित नहीं कर देती, तब तक ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ के ही विशेषाधिकार और शक्तियां लागू रहेंगी। अत: यह एक अस्थायी प्रावधान था। 
  • संसद ने संहिताकरण से संबंधित मुद्दे की जाँच की है। वर्ष 2008 में लोक सभा के विशेषाधिकारों की समिति ने महसूस किया कि संहिताकरण की कोई आवश्यकता नहीं है।

अन्य बिंदु  

  • यह ध्यान देने योग्य है कि सदन ने पहली लोक सभा के बाद ऐसे मामलों में अब तक केवल पाँच बार ही सज़ा की सिफारिश की है। 
  • लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिये यह आवश्यक है कि विधायिका के सदस्यों को बिना किसी अवरोध के अपने विधायी कर्त्तव्यों का पालन करने में सक्षम होना चाहिये तथा कानूनी कार्यवाही के डर के बिना बोलने और मतदान करने की स्वतंत्र होनी चाहिये।

निष्कर्ष 
अत: विशेषाधिकार का केवल तब उपयोग किया जाना चहिये, जब इसके कारण विधायिका के कार्यो में वास्तविक रुकावट उत्पन्न हो जाए, न कि आम टिप्पणी और आलोचना के खिलाफ। इन मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए संसद और विधानमंडलों के लिये यह आवश्यक है कि विशेषाधिकार के संहिताकरण के लिये कानून बनाए। समय की यह मांग है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों और विधायिका के विशेषाधिकारों के बीच सही संतुलन बिठाया जाए। अत: इस दिशा में हमारे नीति-निर्माताओं को विश्व के अन्य देशों में विद्यमान व्यवस्था का सहारा लेते हुए उचित एवं व्यावहरिक कदम उठाने चाहिये।

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