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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

स्वास्थ्य सेवा में निजी क्षेत्र का बढ़ता वर्चस्व

  • 23 Mar 2017
  • 7 min read

सन्दर्भ

गौरतलब है कि भारत में चिकित्सा पर किये गए कुल व्यय का 70 प्रतिशत लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है जो सीधा निजी क्षेत्र को जाता है| विदित हो कि हमारे यहाँ 70 प्रतिशत छोटे मोटे रोगों का इलाज़ निजी अस्पतालों में होता है जबकि 60 प्रतिशत गंभीर रोगों का इलाज़ भी निजी अस्पतालों में ही होता है| “चिकित्सा सेवा क्षेत्र में निजी क्षेत्र के बढ़ते प्रभाव के आलोक में सरकार की क्या भूमिका है?” यह एक गंभीर प्रश्न है| हाल ही में सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अहम् बिन्दुओं को सामने रखा है| यह उपयुक्त अवसर यह देखने का है कि निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका एवं अन्य चिंताओं के संदर्भ में सरकार ने क्या कदम उठाए हैं और वे कहाँ तक सार्थक हैं|

पृष्ठभूमि

भारत में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न रही हैं| आज़ादी के बाद भारत ने स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र के नेतृत्व वाले मॉडल को अपनाया, जिसमें लोगों को निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने की ज़िम्मेदारी सरकार की थी|  हालाँकि तब सरकार के पास फंड की कमी थी और जनसंख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही थी| अतः इस मॉडल से लोगों को निराशा ही हाथ लगी| 1990 के बाद जब भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिये गए तो निजी क्षेत्र ने स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में मौजूद अवसर को भुनाया और सार्वजनिक क्षेत्र से आगे निकल गया, तब से ही निजी क्षेत्र, लगातार बढ़त बनाए हुए हैं|

पहले से मौज़ूद समस्याएँ 

वर्ष 1991 से ही स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में निजी क्षेत्र का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है लेकिन यह विकास काफी हद तक अनियमित और बेतरतीब रहा है| गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ तो केंद्र सरकार बनाती है लेकिन उन्हें भारतीय गणराज्य के सभी राज्यों में लागू करना होता है, अतः इन नीतियों के संदर्भ में एकरूपता बनाए रखना प्रायः कठिन साबित होता है| यही कारण है कि राज्य ही नहीं बल्कि जिला स्तर पर भी स्वास्थ्य नीतियों में विभिन्नता देखी जा रही है| साथ ही यह एक विरोधाभास की स्थिति है कि जिस भारत में चिकित्सा पर्यटन(medical tourism) तेजी से बढ़ रहा है, वह प्रमुख स्वास्थ्य मानकों पर अपने पड़ोसी देशों से भी पीछे है|

देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा हेतु वित्त की सुविधा से वंचित है| अत्यधिक चिकित्सा व्यय के परिणामस्वरूप लगभग 63 मिलियन लोग प्रत्येक वर्ष गरीबी के चंगुल में फँसते जा रहे हैं| आज स्थिति यह है कि बढ़ता चिकित्सीय खर्च गरीबी का एक प्रमुख कारण बन गया है| गौरतलब है कि भारत अपनी जीडीपी का मात्र 1 से 2 प्रतिशत ही चिकित्सा पर खर्च करता है जबकि वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च का औसत जीडीपी का 5.4 प्रतिशत है|

इन समस्याओं के समाधान में प्रस्तावित स्वास्थ्य नीति की भूमिका

गौरतलब है कि नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च को जीडीपी के तीन प्रतिशत तक करने का लक्ष्य रखा गया है जो निश्चित ही स्वागतयोग्य कदम है लेकिन निराशाजनक यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च को और अधिक प्रभावी बनाने के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर हमने बात नहीं की है| विदित हो कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्धता पर पूर्व योजना आयोग द्वारा बनाई गई एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह ने यह कहा था कि स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी के लिये केवल पैसे का आवंटन कर देना ही काफी नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि राज्य स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये उपलब्ध कराई गई राशि का समुचित उपयोग कर सकें| प्रायः ऐसा देखा जाता है कि राज्य सरकारें आवंटित निधि का पूरी तरह से उपयोग नहीं कर पातीं और केंद्र सरकार को वापस कर देती हैं| ध्यातव्य है कि बांग्लादेश और श्रीलंका, भारत की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं में अपनी जीडीपी का कम हिस्सा खर्च करते हैं, फिर भी कई स्वास्थ्य मानकों पर वे हमसे बेहतर हैं|

क्या हो आगे का रास्ता ?

विदित हो कि स्वास्थ्य सेवाओं में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के भागीदारियों को लेकर विश्व के तमाम देशों में तीन प्रकार के मॉडल देखे जाते हैं| पहले मॉडल में स्वास्थ्य सेवाओं में केवल राज्य की ही भूमिका होती है| जबकि दूसरे मॉडल में स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के माध्यम से चिकित्सीय खर्चों का वहन किया जाता है, जबकि तीसरे मॉडल में केवल निजी क्षेत्र ही स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करता है| यह जानकार दुखद आश्चर्य होता है कि भारत इन तीनों में से किसी भी मॉडल का अनुपालन नहीं करता और शायद यहीं कारण है कि निजी क्षेत्र मनमाने तरीके से बढ़ता जा रहा है और समुचित प्रावधानों के अभाव में राज्य, आवंटित राशियाँ लौटा रहे हैं| राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके, इसके लिये पहले भारत को इन तीनों स्वास्थ्य मॉडल से सबक लेते हुए एक सर्वोत्तम स्वास्थ्य मॉडल विकसित करना होगा, क्योंकि तीनों ही स्वास्थ्य मॉडल में कुछ न कुछ विसंगतियाँ भी है|

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