'निजता' अब मूल अधिकार | 25 Aug 2017
भूमिका
- इतिहास को बनते हुए देखना अपने आप में एक सौभाग्य है और फिर इतिहास रोज़ बनते भी तो नहीं, किन्तु निजता के मामले में उच्चतम न्यायालय की नौ जजों की संविधान पीठ का निर्णय आज़ाद भारत में एक ऐसी ऐतिहासिक घटना है, जो आने वाले दशकों में लोकतंत्र को मज़बूती देने का कार्य करती रहेगी। न्यायालय ने कहा है कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जिसे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सरंक्षण प्राप्त है।
- दरअसल, इस मामले की सुनवाई के दौरान एटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने कहा था कि निजता एक इलीट अवधारणा है यानी प्राइवेसी खाते-पीते घरों की बात है और निजता का विचार बहुसंख्यक समाज की ज़रूरतों से मेल नहीं खाता। लेकिन संविधान के पहरेदार उच्चतम न्यायालय का कहना है कि यह कहना कि ‘ज़रूरतमंद लोगों को बस आर्थिक तरक्की चाहिये, नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार नहीं’, उचित नहीं है।
- देश की सबसे बड़ी अदालत के इस निर्णय के निहितार्थ को समझने का प्रयास करें तो आपको यह निर्णय नहीं बल्कि एक सुंदर कविता प्रतीत होगी, जो बार-बार पढ़ी जानी चाहिये। सच कहें तो हम इस निर्णय के ऐतिहासिक महत्त्व की पहचान तब तक नहीं कर पाएंगे, जब तक कि हम निजता के महत्त्व से ही अनजान हों। अतः इस आलेख में पहले हम निजता के महत्त्व को रेखांकित करेंगे, तत्पश्चात न्यायालय के इस निर्णय और अन्य बातों पर चर्चा करेंगे।
निजता का महत्त्व क्यों?
- निजता वह अधिकार है जो किसी व्यक्ति की स्वायतता और गरिमा की रक्षा के लिये ज़रूरी है। वास्तव में यह कई अन्य महत्त्वपूर्ण अधिकारों की आधारशिला है।
- दरअसल निजता का अधिकार हमारे लिये एक आवरण की तरह है, जो हमारे जीवन में होने वाले अनावश्यक और अनुचित हस्तक्षेप से हमें बचाता है।
- यह हमें अवगत कराता है कि हमारी सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक हैसियत क्या है और हम स्वयं को दुनिया से किस हद तक बाँटना चाहते हैं।
- वह निजता ही है जो हमें यह निर्णित करने का अधिकार देती है कि हमारे शरीर पर किसका अधिकार है?
- आधुनिक समाज में निजता का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। फ्रांस की क्रांति के बाद समूची दुनिया से निरंकुश राजतंत्र की विदाई शुरू हो गई और समानता, मानवता और आधुनिकता के सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित लोकतंत्र ने पैर पसारना शुरू कर दिया।
- अब राज्य लोगों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ चलाने लगे तो यह प्रश्न प्रासंगिक हो उठा कि जिस गरिमा के भाव के साथ जीने का आनंद लोकतंत्र के माध्यम से मिला उसे निजता के हनन द्वारा छिना क्यों जा रहा है?
- तकनीक और अधिकारों के बीच हमेशा से टकराव होते आया है और 21वीं शताब्दी में तो तकनीकी विकास अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है। ऐसे में निजता को राज्य की नीतियों और तकनीकी उन्नयन की दोहरी मार झेलनी पड़ी।
- आज हम सभी स्मार्टफोंस का प्रयोग करते हैं। चाहे एपल का आईओएस हो या गूगल का एंड्राइड या फिर कोई अन्य ऑपरेटिंग सिस्टम, जब हम कोई भी एप डाउनलोड करते हैं, तो यह हमारे फ़ोन के कॉन्टेक्ट, गैलरी और स्टोरेज़ आदि के प्रयोग की इज़ाज़त मांगता है और इसके बाद ही वह एप डाउनलोड किया जा सकता है।
- ऐसे में यह खतरा है कि यदि किसी गैर-अधिकृत व्यक्ति ने उस एप के डाटाबेस में सेंध लगा दी तो उपयोगकर्ताओं की निजता खतरे में पड़ सकती है।
- तकनीक के माध्यम से निजता में दखल, राज्य की दखलंदाज़ी से कम गंभीर है। हम ऐसा इसलिये कह रहे हैं क्योंकि तकनीक का उपयोग करना हमारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु राज्य प्रायः निजता के उल्लंघन में लोगों की इच्छा की परवाह नहीं करता।
- आधार का मामला इसका जीता जागता उदाहरण है। जब पहली बार आधार का क्रियान्वयन आरंभ किया गया तो कहा यह गया कि यह सभी भारतीयों को एक विशेष पहचान संख्या देने के उद्देश्य से लाई गई है। जल्द ही मनरेगा सहित कई बड़ी योजनाओं में बेनिफिट ट्रान्सफर के लिये आधार अनिवार्य कर दिया गया।
- यहाँ तक कि आधार पर किसी भी प्रकार के विचार-विमर्श से किनारा करते हुए इसे मनी बिल यानी धन विधेयक के तौर पर संसद में पारित कर दिया गया। इन सभी बातों से पता चलता है कि निजता जो कि लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिये आवश्यक है, गंभीर खतरे में है।
मामले की पृष्ठभूमि
- वर्ष 1954 में एम. पी. शर्मा मामले में 8 जजों की और वर्ष 1962 में खड़क सिंह मामले में 6 जजों की खंडपीठ ने निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना था। अतः इसी वर्ष जब इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई आरंभ की तो न्यायालय के नौ जजों की खंडपीठ बैठाई गई।
- दरअसल, सबसे पहले वर्ष 2013 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आधार की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की गई थी। न्यायमूर्ति चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने 11 अगस्त 2015 को निर्णय दिया कि आधार का इस्तेमाल केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और एलपीजी कनेक्शनों के लिये ही जाए।
- कुछ ही दिनों के बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एच.एल दत्तु की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मनरेगा सहित कई अन्य योजनाओं में आधार के इस्तेमाल की इज़ाज़त दे दी। तत्पश्चात शीर्ष न्यायालय में एक और याचिका दायर की गई कि क्या आधार मामले में निजता के आधार का उल्लंघन हुआ है और क्या निजता एक मौलिक अधिकार है?
- संविधान का भाग 3 जो कुछ अधिकारों को 'मौलिक' मानता है में निजता के अधिकार का जिक्र नहीं किया गया है। इन सभी बातों का संज्ञान लेते हुए इस वर्ष जुलाई में नौ जजों की संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई आरम्भ कर दी और निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करना शुरू कर दिया।
1. निजता के अधिकार का दायरा क्या है?
2. निजता का अधिकार सामान्य कानून द्वारा सरंक्षित अधिकार है या एक मौलिक अधिकार है?
3. निजता की श्रेणी कैसे तय होगी?
4. निजता पर क्या प्रतिबंध हैं?
5. निजता का अधिकार, समानता का अधिकार है या फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का?
न्यायालय के फैसले में क्या?
- शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि जीने का अधिकार, निजता के अधिकार और स्वतंत्रता के अधिकार को अलग-अलग करके नहीं बल्कि एक समग्र रूप देखा जाना चाहिये।
- न्यायालय के शब्दों में “निजता मनुष्य के गरिमापूर्ण अस्तित्व का अभिन्न अंग हैं और यह सही है कि संविधान में इसका जिक्र नहीं है, लेकिन निजता का अधिकार वह अधिकार है, जिसे संविधान में गढ़ा नहीं गया बल्कि मान्यता दी है।
- निजता के अधिकार को संविधान संरक्षण देता है क्योंकि यह जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक बाईप्रोडक्ट है। निजता का अधिकार, स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीने के अन्य मौलिक अधिकारों के सहचर्य में लोकतंत्र को मज़बूत बनाएगा।
- निजता की श्रेणी तय करते हुए न्यायालय ने कहा कि निजता के अधिकार में व्यक्तिगत रुझान और पसंद को सम्मान देना, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, शादी करने का फैसला, बच्चे पैदा करने का निर्णय, जैसी बातें शामिल हैं।
- किसी का अकेले रहने का अधिकार भी उसकी निजता के तहत आएगा। निजता का अधिकार किसी व्यक्ति की निजी स्वायत्तता की सुरक्षा करती है और जीवन के सभी अहम पहलूओं को अपने तरीके से तय करने की आज़ादी देती है।
- न्यायालय ने यह भी कहा है कि अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक जगह पर हो तो ये इसका अर्थ यह नहीं कि वह निजता का दावा नहीं कर सकता
- अन्य मूल अधिकारों की तरह ही निजता के अधिकार में भी युक्तियुक्त निर्बन्धन की व्यवस्था लागू रहेगी, लेकिन निजता का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून को उचित और तर्कसंगत होना चाहिये।
- न्यायालय ने यह भी कहा है कि निजता को केवल सरकार से ही खतरा नहीं है बल्कि गैरसरकारी तत्त्वों द्वारा भी इसका हनन किया जा सकता है। अतः सरकार डेटा सरंक्षण का पर्याप्त प्रयास करे।
- न्यायालय ने सूक्ष्म अवलोकन करते हुए कहा है कि ‘किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी जुटाना उस पर काबू पाने की प्रक्रिया का पहल कदम है’। इस तरह की जानकारियों का प्रयोग असहमति का गला घोंटने में किया जा सकता है। अतः ऐसी सूचनाएँ कहाँ रखी जाएंगी, उनकी शर्तें क्या होंगी, किसी प्रकार की चूक होने पर जवाबदेही किसकी होगी? इन पहलुओं पर गौर करते हुए कानून बनाया जाना चाहिये।
इस फैसले का प्रभाव क्या होगा?
- बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक भारतीयों को एक धागे में पिरोने के कई कारण हैं। उपनिवेशवाद के विरुद्ध लम्बे संघर्ष की साझी यादें, चुनावों को उत्सव की तरह मनाने का भाव, क्रिकेट के लिये प्यार और बॉलीवुड के लिये पागलपन, ये कुछ ऐसे लक्षण हैं, जो कमोबेश सभी भारतीयों में पाए जाते हैं। फिर भी वह संविधान और संविधान प्रदत्त मूल अधिकार ही हैं, जो विविधताओं से भरे भारत में एकता का सूत्रपात करते हैं।
- भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार अच्छे जीवन की आवश्यक और आधारभूत परिस्थितियों के लिये दिये गए हैं। ये मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में निहित हैं।
- नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा सर्वोच्च कानून के द्वारा की जाती है, जबकि सामान्य अधिकारों की रक्षा सामान्य कानून के द्वारा की जाती है।
- दरअसल, संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकार के प्रावधान हैं, जिन्हें भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ. अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा है।
- ध्यातव्य है कि अनुच्छेद 21 में जीवन तथा स्वतन्त्रता का अधिकार है और न्यायपालिका ने पहले भी कई निर्णयों के माध्यम से इसके दायरे का विस्तार करते हुए इसमें भी शिक्षा, स्वास्थ्य, त्वरित न्याय, बेहतर पर्यावरण आदि को जोड़ा है। ज़ाहिर है निजता का अधिकार इस विस्तारीकरण का अगला पड़ाव है।
- संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत उच्चतम न्यायालय का निर्णय देश का कानून माना जाता है। जब निजता भी मौलिक अधिकार का हिस्सा बन गई है तो फिर कोई भी व्यक्ति अपनी निजता के हनन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायायलय में सीधे याचिका दायर कर न्याय की मांग कर सकता है।
न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका?
- विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में शासन के दो महत्त्वपूर्ण स्तंभों- न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है। इतिहास पर नज़र डालें तो केशवानंद भारती मामले से लेकर विवादित कोलेजियम व्यवस्था तक हमेशा न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच खींचातानी चलती रही है।
- बहरहाल, इस टकराव ने कभी उल्लेखनीय कानूनों को जन्म दिया है, तो कभी अत्यंत ही दुर्भाग्यजनक परिस्थितियाँ भी सामने आई हैं। सरकार ने बार-बार निजता को मूल अधिकार न बनाए जाने का पक्ष लिया और ऐसा नहीं है कि ऐसा केवल एनडीए सरकार ने ही निजता के अधिकार को लेकर असंवेदनशीलता दिखाई है, बल्कि पूर्ववर्ती सरकारों ने भी इस संबंध में कोई विधायी प्रावधान नहीं किये।
- इस निर्णय का वर्तमान सरकार ने स्वागत किया है, हालाँकि यह कहा जा रहा है कि आधार मामले में यदि सरकार की उम्मीदों के विपरीत परिणाम आया तो न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव मुखर हो सकता है।
- सरकार को समझना होगा कि शासन के दो प्रमुख स्तंभों के बीच टकराव उचित नहीं है। संविधान का सरंक्षक होने के नाते उच्चतम न्यायालय का यह दायित्व है कि वह इसके मूल्यों को अक्षुण्ण बनाए रखे।
- लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों का महत्त्व एकसमान है, परन्तु आदर्श स्थिति वही होती है, जिसमें सभी अपनी-अपनी मर्यादा का बिना राग-द्वेष के पालन करें।
- न्यायालय के फैसलों के खिलाफ हायतौबा मचाना स्वस्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिये सामान्यतः उचित नहीं माना जाता है, लेकिन इसे एक अलग दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता हैं और वह यह कि यदि न्यायपालिका और कार्यपालिका के संबंध प्रगाढ़ होंगे तो न्याय के लिये संकट खड़ा हो जाएगा।
- भारतीय शासन व्यवस्था में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत लागू है। इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र अलग-अलग है। कानून बनाना जहाँ विधायिका का काम है, वहीं इसे लागू करना कार्यपालिका का काम है और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है।
हेबस कार्पस मामले की वैधानिकता पर सवाल
- उच्चतम नयायालय की 9 जजों की खंडपीठ ने निजता को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण बात कही है। दरअसल, 40 साल पहले एडीएम जबलपुर मामले में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि आपातकाल के दौरान नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी नहीं दी जा सकती। विदित हो कि इस मामले को हेबस कार्पस मामला भी कहा जाता है।
- वर्ष 1976 में इस मामले में उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों में से केवल न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए. एन. खरे, न्यायमूर्ति एम. एच. बेग, न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती से अलग राय रखते हुए आपातकाल के दौरान जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने की वकालत की थी।
- एच. आर. खन्ना के इस विरोध का जवाब सरकार ने अपने तरीके से दिया और वरिष्ठ होने के बावजूद उनकी जगह न्यायमूर्ति एम. एच. बेग को उच्चतम न्यायालय मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। इसके बाद उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
- बहरहाल, न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ जो कि संयोगवश 1976 में फैसला सुनाने वाले जज न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ के पुत्र हैं, ने 1976 के फैसले को स्पष्ट रूप से खारिज़ कर दिया था और एक अरसे से न्यायालय के दामन पर लगे दाग को धो डाला।
- एडीएम जबलपुर मामले में दिये गए निर्णय को इस खंडपीठ ने दोषपूर्ण करार दिया और कहा कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिना मानव का अस्तित्व असंभव है।
निष्कर्ष
- 24 अगस्त के दिन ने इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा लिया है। दरअसल, अब तक निजता को गौण महत्त्व वाला समझा जाता था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले के माध्यम से यह चरितार्थ कर दिया है क्यों इसे अंतिम जन की अदालत कहा जाता है। न्यायालय की नज़र में निजता वह यौगिक है जो किसी की खानपान संबंधी आदतें, किसी की साथी चुनने की आज़ादी, समलैंगिकता का सवाल, बच्चा पैदा करने संबंधी निर्णय जैसे तत्त्वों से मिलकर बना है।
- सरकार के नए सरोगेसी बिल में प्रावधान है कि समलैंगिक जोड़े सरोगेसी के ज़रिये बच्चा पैदा नहीं कर सकते हैं, जबकि इस फैसले में सेक्सुअल संबंध और चुनाव को मौलिक अधिकार माना है। ऐसे में इस तरह के मामलों को लेकर बड़ी संख्या में लोग न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं।
- ज़ाहिर है आने वाले दशक में यह निर्णय कई अन्य महत्त्वपूर्ण फैसलों की आधारशिला बनने का कार्य करेगा।
- न्यायालय ने साफ़ किया है कि किसी के कल्याण के नाम पर उससे उसके अधिकार नहीं छीने जा सकते हैं। जनता सरकार की आलोचना कर सकती है, उसके खिलाफ प्रदर्शन कर सकती है, अपने मानवाधिकारों के हनन को लेकर सड़क पर उतर सकती है। न्यायालय की 9 जजों की संविधान पीठ ने इन बातों को बड़े ही सुस्पष्ट ढंग से कहा है।
- निजता का अधिकार के यह फ़ैसला एक नागरिक को उनके तमाम अधिकारों के प्रति उन्हें सचेत करता है।
- अनुसूचियों, भागों, अनुच्छेदों और उपबंधों से भरी संविधान की बोझिल सी किताब में सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय वाकई वह सुन्दर कविता है जो बार-बार पढ़ी जानी चाहिये।