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भारतीय राजव्यवस्था

संसदीय अवरोध: समस्या और समाधान

  • 04 Aug 2021
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 03/08/2021 को 'द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘More days is a solution for disruption of Parliament’’ लेख पर आधारित है। इसमें संसद की कार्यवाही में लगातार अवरोध की समस्याओं और उनके समाधान के संबंध में विचार किया गया है।

संदर्भ

बीते कुछ समय में भारतीय विधायी कार्यकलाप में चर्चा काफी कम हो गई हैं, जबकि अवरोध के मामले बढ़ गए हैं। जबकि भारतीय संसद के अतिरिक्त हर जगह तीव्र बहसें चल रही हैं।

इस बीच सरकार संसद के मानसून सत्र को पूर्ण अवधि के पूर्व ही समाप्त करने पर विचार कर रही है। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका अर्थ होगा कि पिछले वर्ष से अब तक संसद के सभी चार सत्र समय-पूर्व ही समाप्त हो गए। पहले दो सत्र कोविड-19 के कारण, जबकि वर्ष 2021 का बजट सत्र राज्य चुनावों में प्रचार के कारण पूरे नहीं हो सके थे।    

संसद का कार्य विभिन्न विषयों पर चर्चा करना है, लेकिन हाल के वर्षों में संसद की कार्यवाही बार-बार होने वाले अवरोधों से प्रभावित हुई है।

संसदीय अवरोध- आँकड़े और विश्लेषण

  • एक पीआरएस (PRS Legislative Research) रिपोर्ट के अनुसार,15वीं लोकसभा (2009-14) की अवधि के दौरान संसदीय कार्यवाही में बार-बार अवरोधों के परिणामस्वरूप लोकसभा अपने निर्धारित समय का 61% और राज्यसभा अपने निर्धारित समय का 66% ही कार्य कर पाई। 
  • एक अन्य पीआरएस रिपोर्ट में बताया गया है कि 16वीं लोकसभा (2014-19) ने अवरोधों के कारण अपने निर्धारित समय का 16% हिस्सा गँवा दिया। यद्यपि यह स्थिति 15वीं लोकसभा (37%) से तो बेहतर थी लेकिन 14वीं लोकसभा (13%) की तुलना में खराब थी।     
  • वर्ष 2014-19 की अवधि (16वीं लोकसभा) के दौरान, राज्यसभा ने अपने निर्धारित समय का 36% हिस्सा गँवाया, जबकि 15वीं (2009-14) और 14वीं (2004-09) लोकसभा कार्यकाल के दौरान, राज्यसभा ने अपने निर्धारित समय का क्रमश: 32% और 14% गँवा दिया।

अवरोध के कारण

  • विवादास्पद मुद्दों और सार्वजनिक महत्त्व के विषयों पर चर्चा: संसद की कार्यवाही में अधिकांश अवरोध या तो उन सूचीबद्ध विषयों पर चर्चा से उत्पन्न होते हैं जो विवादास्पद हैं या उन गैर-सूचीबद्ध विषयों पर चर्चा से होता हैं जो सार्वजनिक महत्त्व के हैं।     
    • पेगासस प्रोजेक्ट, नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 आदि उन विषयों के उदाहरण हैं जो बीते दिनों संसदीय कार्यवाही में अवरोधों के कारण बने।   
  • अवरोधों से सत्ता पक्ष को अपने उत्तरदायित्वों से बचने में सहायता मिल सकती है: प्रश्नकाल और शून्यकाल के दौरान सबसे अधिक अवरोध देखे गए हैं।   
    • यद्यपि इन अवरोधों का दोष काफी हद तक विपक्ष के सदस्यों के व्यवहार पर लगाया जाता है, लेकिन वे कार्यकारी कार्रवाई का परिणाम भी हो सकते हैं।
  • गैर-सूचीबद्ध चर्चा के लिये समर्पित समय की कमी: किसी विशेष सत्र में या किसी विशेष संसदीय कार्यवाही के दौरान गैर-सूचीबद्ध  विषयों के संबंध में प्रश्न और आपत्ति उठाने हेतु पर्याप्त समय की कमी के कारण भी प्रायः अवरोध उत्पन्न होते हैं। 
  • अनुशासनात्मक शक्तियों का न्यूनतम उपयोग: अवरोधों पर प्रभावी नियंत्रण नहीं किये जा सकने का एक अन्य प्रणालीगत कारण यह है कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा अनुशासनात्मक शक्तियों का न्यूनतम उपयोग किया जाता है।  
    • इसके परिणामस्वरूप ‘उच्छृंखल आचरण’ (Disorderly Conduct) में लिप्त अधिकांश सदस्य न तो इस प्रकार के आचरण में शामिल होने से विचलित होते हैं और न ही उन्हें रोका जाता है।
  • दलगत राजनीति: जब भी कोई विवादास्पद मुद्दा संसद के समक्ष आता है तो सरकार उस पर बहस करने से कतराती है, जिससे विपक्षी सांसद आचरण नियमों का उल्लंघन करने को बाध्य होते हैं और संसद की कार्यवाही को बाधित करते हैं।  
    • चूँकि उन्हें नियमों के उल्लंघन या हंगामे में भी अपने दलों का समर्थन प्राप्त होता है, इसलिये सदन से निलंबन की चुनौती भी उन्हें नियंत्रित नहीं कर पाती।
  • अन्य कारण: वर्ष 2001 में संसद के सेंट्रल हॉल में विधानमंडलों में अनुशासन और मर्यादा पर चर्चा करने के लिये एक बैठक आयोजित की गई थी। इसमें संसद सदस्यों के उच्छृंखल आचरण के लिये चार कारणों की पहचान की गई थी:  
    • अपनी शिकायतों को अभिव्यक्त कर सकने के लिये अपर्याप्त समय के कारण सांसदों में असंतोष।
    • सरकार का अनुत्तरदायी रवैया और ट्रेजरी बेंचों की प्रतिशोधी कार्यवाही।
    • राजनीतिक दल संसदीय मानदंडों का पालन नहीं करते हैं और अपने सदस्यों को अनुशासित नहीं बनाते हैं।
    • विधायिका के नियमों के तहत हंगामा करने वाले संसद सदस्यों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई का अभाव।

संबद्ध समस्याएँ

  • संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन: प्रश्न पूछने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 से प्राप्त होता है जिसके मुताबिक, मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति और इस प्रकार देश के लोगों के प्रति उत्तरदायी होगी।   
    • इस प्रकार, प्रश्नकाल और शून्यकाल में कटौती कार्यपालिका पर संसदीय निरीक्षण के सिद्धांत को कमज़ोर करती है।
  • प्रतिनिधिक लोकतंत्र के लिये एक बाधा: संसदीय चर्चा एक प्रतिनिधिक लोकतंत्र के कार्यरत होने की अभिव्यक्ति है, क्योंकि इसके माध्यम से लोगों का प्रतिनिधित्व शासन के मामलों पर सरकार से सीधे सवाल कर सकता है। 

आगे की राह

  • आचार संहिता: सदन में अव्यवस्था पर रोक के लिये सांसदों और विधायकों हेतु आचार संहिता को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। 
    • हालाँकि यह विचार नया नहीं है। उदाहरण के लिये लोकसभा में इसके सदस्यों के लिये वर्ष 1952 से ही आचार संहिता लागू है। विरोध के नए तरीकों को देखते हुए वर्ष 1989 में इन नियमों को अपडेट भी किया गया था।
    • इन नियमों का पालन नहीं करने वाले और सदन की कार्यवाही को बाधित करने वाले सदस्यों पर लोकसभा अध्यक्ष द्वारा यथावश्यक कार्रवाई की जानी चाहिये।
  • कार्य-दिवसों की संख्या में वृद्धि करना: वर्ष 2001 में आयोजित बैठक की अनुशंसा के अनुसार संसद के कार्य-दिवसों में वृद्धि की जानी चाहिये। बैठक में प्रतिवर्ष संसद के लिये 110 कार्य-दिवसों और राज्य विधानसभाओं के लिये 90 कार्य-दिवसों का संकल्प लिया गया था।  
    • यूनाइटेड किंगडम में, जहाँ संसद प्रत्येक वर्ष 100 से अधिक कार्य करती है, विपक्षी दलों को 20 कार्य-दिवस किये जाते हैं जब वे संसद में चर्चा के लिये अपना एजेंडा प्रस्तुत कर सकते हैं। कनाडा में भी विपक्षी दलों के लिये विशिष्ट कार्य-दिवसों की ऐसी ही अवधारणा का प्रयोग किया जा रहा है।
  • लोकतांत्रिक भागीदारी: संसद की कार्यवाही में सभी अवरोध प्रायः आवश्यक रूप से प्रतिकूल नहीं होते हैं। एसे में सरकार को अधिक लोकतांत्रिक रवैया अपनाते हुए विपक्ष को अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करना चाहिये।  
  • व्यक्तिगत स्तर पर प्रस्तुत किये गए प्रस्ताव: 
    • वर्ष 2019 में राज्यसभा के उपसभापति ने संसद और राज्य विधानमंडलों में अवरोधों की निगरानी के लिये एक 'संसद अवरोध सूचकांक' (Parliament Disruption Index) के विकास का प्रस्ताव रखा था।   
    • लोकसभा में कुछ सदस्यों ने हंगामा करने वाले सदस्यों के स्वत: निलंबन का प्रस्ताव भी रखा था।       
    • लेकिन ये प्रस्ताव अभी अपने आरंभिक चरण में ही हैं।
  • प्रोडक्टिविटी मीटर: किसी सत्र की समग्र उत्पादकता का अध्ययन भी किया जा सकता है और इसे साप्ताहिक रूप से जनता को प्रसारित किया जा सकता है।  
    • इसके लिये एक ‘प्रोडक्टिविटी मीटर’ (Productivity Meter) का निर्माण किया जा सकता है जो अवरोध और स्थगन के कारण नष्ट हुए घंटों की संख्या को ध्यान में रखेगा और संसद के दोनों सदनों के दिन-प्रतिदिन के कार्यकलाप की उत्पादकता की निगरानी करेगा।

निष्कर्ष

लोकतंत्र की लोकतंत्र की सफलता इस बात से निर्धारित की जाती है कि वह विचार-विमर्श और वार्ता का कितना प्रोत्साहन दिया जा रहा है। संसद की कार्यवाही में अवरोध का समाधान संसद को और अधिक सशक्त बनाए जाने में निहित है। महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिये एक मंच के रूप में संसद की भूमिका को और गहन किया जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: विधायी निकाय की भूमिका को सशक्त और गहन किये जाने की आवश्यकता है ताकि कार्यवाही में अवरोध का अवसर ही न रहे। टिप्पणी कीजिये।

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