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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया व चरण

  • 22 Jul 2020
  • 13 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया व चरण से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

वैश्विक महामारी COVID-19 के प्रसार की प्रारंभिक अवस्था से ही व्यक्तिगत सतर्कता के साथ वैक्सीन को इस महामारी के नियंत्रण हेतु अंतिम विकल्प बताया जाता रहा है। भारत समेत विश्व के लगभग सभी देश अपने स्तर पर वैक्सीन निर्माण की दिशा में कार्य कर रहे हैं। हाल ही में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University) के वैज्ञानिकों द्वारा संचालित एक प्रायोगिक कोरोनावायरस वैक्सीन के शुरूआती परीक्षण के दौरान सैकड़ों लोगों में सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Protective Immune Response) में वृद्धि देखने को मिली है। ‘लैंसेट’ (Lancet) जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, वैज्ञानिकों ने अपने परीक्षण में पाया कि यह प्रायोगिक वैक्सीन 18 से 55 वर्ष की आयु के लोगों में एक दोहरी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। 

सामान्यतः इस तरह के शुरूआती परीक्षणों का उद्देश्य वैक्सीन की सुरक्षा का मूल्यांकन करना होता है, परंतु इस परीक्षण के दौरान विशेषज्ञ इस बात का भी अध्ययन कर रहे थे कि यह वैक्सीन किस प्रकार की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रेरित करती है। परीक्षण में पाया गया कि किसी व्यक्ति को यह वैक्सीन दिये जाने के बाद उसमें लगभग 56 दिनों तक यह मज़बूत एंटीबॉडी और टी-सेल प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को प्रेरित करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं कि COVID-19 को नियंत्रित करने में टी-सेल और एंटीबॉडी की प्रतिक्रिया क्षमता अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।

इस आलेख में वैक्सीन निर्माण के विभिन्न चरण तथा परीक्षण की अनुमति व उससे संबंधित नैतिक मुद्दों पर विमर्श किया जाएगा।

वैक्सीन से तात्पर्य 

  • किसी संक्रामक बीमारी के विरुद्ध प्रतिरोधात्मक क्षमता (Immunity) विकसित करने के लिये जो दवा ड्रॉप्स, इंजेक्शन या किसी अन्य रूप में दी जाती है, उसे टीका (vaccine) कहते हैं तथा यह क्रिया टीकाकरण (Vaccination) कहलाती है। संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिये टीकाकरण सर्वाधिक प्रभावी विधि मानी जाती रही है। 
  • टीकाकरण व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर शरीर में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने का काम करता है। 
  • टीकाकरण स्वास्थ्य निवेश के सबसे कम लागत वाले प्रभावी उपायों में से एक है। टीकाकरण के लिये जीवन शैली में कोई विशेष परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं होती थी, परन्तु कोरोना वायरस के प्रसार के बाद जीवन शैली में विशेष परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा है।

 वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया 

  • किसी भी वैक्सीन को तैयार करने में कई चरण शामिल होते हैं जो शोध एवं अनुसंधान से प्रारंभ होकर विनिर्माण, गुणवत्ता नियंत्रण और वितरण तक विस्तृत है। वैक्सीन निर्माण के निम्नलिखित चरण हैं-

vaccine-development

  • शोध एवं अन्वेषण (Exploratory stage): वैक्सीन निर्माण में शोधरत वैज्ञानिक प्राकृतिक और कृत्रिम एंटीजन (Antigen) की पहचान करते हैं, जो किसी भी बीमारी की रोकथाम में मदद कर सकता है। एंटीजन की पहचान सुनिश्चित होने के बाद इसका संश्लेषण कर प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को प्रेरित करने का कार्य किया जाता है। इस चरण में रोगाणुओं की वृद्धि और उनका संग्रह या उस रोगाणु से किसी रिकंम्बिनेंट प्रोटीन (ऐसा प्रोटीन जिसे डीएनए तकनीक से बनाया जाता है) का निर्माण करना जैसी प्रक्रिया शामिल है।
  • नैदानिक पूर्व (Pre Clinical): इसमें कोशिका संवर्धन प्रणाली का उपयोग किया जाता है और इसका जंतुओं पर परीक्षण किया जाता है, इससे वैक्सीन की प्रभावकारिता सुनिश्चित होती है। परीक्षण के क्रम में चूहों, बंदरों और खरगोश इत्यादि पर टीके का प्रयोग किया जाता है। इस चरण में वैज्ञानिक इस तथ्य का परीक्षण करना चाहते हैं कि क्या वैक्सीन से जंतु या पौधे में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न होती है या नहीं। यदि प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न नहीं होती है तो पुनः प्रथम चरण से प्रारंभ करते हैं, और यदि प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो जाती है तो तृतीय चरण में प्रवेश करते हैं।  
  • नैदानिक परीक्षण (Clinical Trial): यह चरण वैक्सीन के विकास में सबसे संवेदनशील और अहम होता है क्योंकि इसमें कोशिका संवर्धन प्रणाली के माध्यम से जंतु या पौधों में उत्पन्न प्रतिरोधी क्षमता का परीक्षण मानव शरीर पर किया जाता है। इस चरण में तीन फेज़ शामिल होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
  • फेज़ 1- इसमें वैक्सीन का इस्तेमाल लोगों के छोटे समूह (लगभग 20 से 80 लोग) पर किया जाता है और यह परीक्षण किया जाता है कि वैक्सीन का प्रभाव मानव शरीर पर किस प्रकार से पड़ रहा है। पर्यवेक्षण की इस अवधि में वैक्सीन की मात्रा (Doses) व समय का विशेष ध्यान रखा जाता है।
  • फेज़ 2- लोगों के जिस समूह को वैक्सीन दी जानी है, उसमें वृद्धि कर इसे सैकड़ों व्यक्तियों की संख्या तक ले जाया जाता है। इसमें वैक्सीन की मात्रा (Doses) में परिवर्तन किया जाता है और वैक्सीन की अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता का भी विश्लेषण किया जाता है। इस अवस्था में सभी आयुवर्ग के लोगों को शामिल करने का प्रयास किया जाता है। इसमें औसतन 8 से 12 माह का समय लगता है।
  • फेज़ 3- इस अवस्था में कई हजार लोगों के समूह पर वैक्सीन का परीक्षण किया जाता है और यह आकलन करने की कोशिश की जाती है कि वैक्सीन बड़ी जनसँख्या में किस प्रकार प्रभाव उत्पन्न करती करती है। इस अवस्था में वैक्सीन के दीर्घकालिक प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। जब यह सिद्ध हो जाता है कि परीक्षण के सभी उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया गया है तो इसे नियामकीय समीक्षा हेतु आगे बढ़ा दिया जाता है।
  • नियामकीय समीक्षा व अनुमोदन (Regulatory review and Approval): इस अवस्था में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया(Drug Controller General of India- DCGI) द्वारा वैक्सीन परीक्षण के सभी चरणों की समीक्षा की जाती है तदुपरांत उस वैक्सीन के विनिर्माण का अनुमोदन किया जाता है।
  • विनिर्माण और गुणवत्ता नियंत्रण (Manufacturing and quality control): इस अवस्था में बेहतर अवसंरचना के साथ वैक्सीन के विनिर्माण का कार्य प्रारंभ किया जाता है। वैक्सीन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिये समय-समय पर वैज्ञानिकों तथा विनियामक प्राधिकरणों के माध्यम से गुणवत्ता परीक्षण का कार्य किया जाता है।

नैदानिक परीक्षण की चुनौतियाँ

  • भारत में नैदानिक परीक्षण से संबंधित स्पष्ट व कारगर नीति के अभाव में कई अनियमितताएँ देखने को मिलती हैं। एक आँकड़े के अनुसार, वर्ष 2007 से 2019 के बीचे पूरे देश में लगभग 4800 लोगों की मृत्यु नैदानिक परीक्षण के कारण हुई।
  • भारत में नैदानिक परीक्षण से संबंधित सबसे बड़ी समस्या नियामकीय विफलता है। आय की पूरकता के लिये वालंटियरों की बड़ी संख्या स्वेच्छा से नैदानिक परीक्षणों में भाग लेती है। बेहतर नियामकीय ढाँचे के अभाव में वालंटियरों के स्वास्थ्य से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण आँकड़ों व तथ्यों की उपेक्षा कर दी जाती है, जो न केवल वालंटियरों के स्वास्थ्य को जोखिम में डालती है बल्कि परीक्षण के आँकड़ों पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।
  • दूसरी समस्या अनैतिक नैदानिक परीक्षण से संबंधित है जिसमें नकली दवाओं व उपकरणों की जाँच के लिये दवा कंपनी व डॉक्टरों की मिलीभगत से रोगियों व वालंटियरों से सच्चाई छुपाई जाती है, जिसका कुप्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। 
  • कई बार नैदानिक शोध संस्थानों (CROs) द्वारा लोगों की वित्तीय आवश्यकताओं और अज्ञानता का लाभ उठाकर उनका शोषण किया जाता है। इस प्रकार की अनियमितताओं से संबंधित कई उदाहरण हाल के वर्षों में प्रकाश में आए हैं। वर्ष 2009 में एच.पी.वी. टीके के लिये 24000 लड़कियों को नामांकित किया गया था, बाद में जाँच में पता चला कि इनको झूठी जानकारियाँ प्रदान की गई थीं।

निष्कर्ष 

ध्यातव्य है कि वैक्सीन निर्माण में अत्यधिक समय लगता है। COVID-19 की विभीषिका को देखते हुए सभी देशों व शोध एवं अनुसंधान संगठनों को सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है ताकि उपलब्ध संसाधनों का सदुपयोग करते हुए शीघ्र ही वैक्सीन का निर्माण किया जा सके। भारत में भी भारत बायोटेक कंपनी द्वारा COVID-19 की वैक्सीन को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research- ICMR) तथा राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान(National Institute of Virology- NIV) के सहयोग से विकसित किया जा रहा है।

प्रश्न- वैक्सीन निर्माण के विभिन्न चरणों का उल्लेख करते हुए नैदानिक परीक्षण से संबंधित चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये

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