महिलाओं के लिये कोई अर्थव्यवस्था नहीं है ! | 08 Mar 2017
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation - ILO) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि श्रम क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी की बात की जाए तो सम्पूर्ण एशिया में भारत तथा पाकिस्तान का स्तर सबसे निम्न है, जबकि इन दोनों की तुलना में नेपाल, विएतनाम, लाओस तथा कम्बोडिया में यह स्तर काफी उच्च है| इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए यदि बात की जाए अमीर देशों की तो सिंगापुर, मलेशिया एवं इंडोनेशिया जैसे राष्ट्रों की स्थिति न तो बहुत अच्छी है और न ही बहुत ख़राब है|
- उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय सैंपल सर्वे (National Sample Survey – NSS) से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 1999 – 2000 में तकरीबन 25.9% महिलाएँ रोज़गार से संबद्ध थीं, जबकि वर्ष 2011-12 में यह स्तर गिरकर 21.9 % हो गया |
- ध्यातव्य है कि वर्ष 1990 से आईएलओ के कुल 185 सदस्य राष्ट्रों में से 114 राष्ट्रों में कार्य क्षेत्रों में में व्यापक रूप से महिलाओं की सकारात्मक वृद्धि देखने को मिली है| जबकि भारत सहित मात्र 41 राष्ट्रों में यह वृद्धि नकारात्मक रही है|
वास्तविक स्थिति
- इस संबंध में हुए बहुत से अध्ययनों में यह पाया गया है कि यदि महिलाओं को पर्याप्त रूप से रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराए जाँए तो उनकी काम करने की क्षमता तथा प्रदर्शन निश्चित रूप से पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक बेहतर होंगे|
- ध्यातव्य है कि भारत की सबसे महत्त्वाकांक्षी परियोजना मनरेगा के तहत कार्यरत जनसंख्या में सर्वाधिक प्रतिशत महिलाओं की ही है|
- यहाँ यह बताना अत्यंत आवश्यक है कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोज़गार के अवसर प्रदान करने हेतु लाई गई इस परियोजना का सबसे अधिक लाभ इन क्षेत्रों की महिलाओं को ही हुआ है| जिसके परिणामस्वरूप इन महिलाओं में न केवल आत्मविश्वास की भावना जगी है बल्कि आजीविका का एक अन्य स्रोत उपलब्ध हो जाने के कारण इनका इनके परिवार एवं ग्रहस्थी पर पहले की अपेक्षा अधिक नियंत्रण भी स्थापित हो गया है|
चुनौतियाँ एवं समाधान
- हालाँकि कार्यक्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता को बढ़ाने तथा समाज के प्रत्येक स्तर पर इन्हें एकसमान अधिकार प्रदान करने के लिये मनरेगा एकमात्र साधन है| परन्तु बदलते समय एवं आवश्यकताओं के मद्देनज़र सरकार को इस दिशा में एक नया विकल्प तलाशने की आवश्यकता है|
- हालाँकि इस सन्दर्भ में नीति-निर्माताओं को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है| इनमें से कुछ समस्याओं के विषय में इस लेख में विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है| जो कि निम्नवत् हैं-
- सर्वप्रथम, कृषि क्षेत्र से संबद्ध क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को कृषि के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्प भी उपलब्ध कराए जाने चाहियें| जिनमें बागवानी, मत्स्य पालन इत्यादि को शामिल किया जा सकता है|
- दूसरा, महिलाओं के लिये (विशेषकर शहरी क्षेत्र की महिलाओं के लिये) रोज़गार के अधिक से अधिक मार्ग प्रशस्त करने के लिये उन्हें काम हेतु एक बेहतर एवं सुरक्षित वातावरण मुहैया कराना किसी चुनौती से कम नही है|
- इसके अतिरिक्त वर्तमान में ऐसे बहुत से खतरनाक क्षेत्र हैं, जहाँ महिला श्रमिक काम कर रही हैं| जिसके परिणामस्वरूप उनके स्वास्थ्य के साथ –साथ उनके पूरे परिवार का स्वास्थ्य प्रभावित होने का खतरा मँडराने लगा है|
- इसके अतिरिक्त पुरुषों की तुलना में काम पर जाने वाली महिलाओं के लिये कार्य की स्थिति तथा प्रणाली को उनकी शारीरिक बनावट तथा सामाजिक स्थिति के अनुरूप बनाया जाना चाहिये ताकि समाज को महिलाओं की इस बदलती स्थिति के अनुरूप तैयार किया जा सके|
- इसके अतिरिक्त जैसा कि हम सभी जानते है कि भारतीय परिवारों में बच्चों की बेहतर परवरिश के साथ-साथ गृहस्थी की समस्त ज़िम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर ही होती है| ऐसी स्थिति में यदि उन्हें कभी भी काम अथवा परिवार के मध्य किसी एक का चयन करना होता है तो सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव के कारण वे सदैव परिवार के विकल्प को ही प्राथमिकता देती हैं|
- हालाँकि इस सन्दर्भ में परिवार के पुरुषों को भी अपनी ज़िम्मेदारी समझने की आवश्यकता है ताकि त्याग की इस बहु-कथित प्रथा को बदलते समय एवं आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जा सके|
- इसके अतिरिक्त काम के स्थान तथा घर के मध्य यदि अधिक दूरी होती है तो ऐसी स्थिति में महिलाओं के लिये काम के साथ-साथ परिवार को समय दे पाना बहुत कठिन हो जाता है, ऐसी स्थिति में वे प्रायः नौकरी छोड़ने को ही एक बेहतर विकल्प के रूप में चुनती हैं|
अन्य आवश्यक पहलें
- इस समस्या के समाधान हेतु सबसे बेहतर विकल्प यह है कि काम की जगहों को पहले की अपेक्षा और अधिक सहज होने की आवश्यकता है ताकि कार्यालयों में काम करने वाली महिलाओं के लिये उनके काम के साथ-साथ घर की ज़िम्मेदारियों को सम्भालना थोड़ा आसान हो सके|
- इसके अतिरिक्त समाज को भी एक ऐसी व्यवस्था की ओर अग्रसर होने की ज़रूरत है, जहाँ महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी अपनी पारंपरिक छवि से बाहर निकलकर विकास की इस नई बयार में इस बदलते हुए समाज का एक नया एवं अधिक स्वस्थ स्वरूप प्रस्तुत कर सकें|
- हालाँकि इस भारतीय सन्दर्भ में यदि भारत की बात करें तो विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत की सरकार के साथ-साथ यहाँ कार्यरत कम्पनियाँ भी काफी अधिक उदारवादी तथा सहायता प्रदान करने वाली संस्थाएँ हैं|
वर्तमान परिदृश्य
- जैसा कि हम सभी जानते है कि पिछले कुछ समय में समाज के प्रत्येक स्तर पर बहुत तेज़ी से कुछ परिवर्तन हुए हैं| जहाँ एक ओर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर विश्व की समस्त अर्थव्यवस्थाओं के मध्य प्रतिस्पर्द्धा की भावना दिन-प्रतिदिन तीव्र होती जा रही है|
- प्रतिस्पर्द्धा की इस तीव्र होती भावना का परिणाम यह है कि पिछले कुछ समय से विश्व की कुछ संस्थाओं में शनिवार के साथ-साथ रविवार को काम के दिन के रूप में निहित किया गया है|
- एक अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रत्येक एक सप्ताह में किसी एक युवा के कार्य के घंटे तकरीबन 52 घंटे होते है जबकि इसकी तुलना में कनाडा में यह समय मात्र 42 घंटों का होता है|
- गौरतलब है कि भारत सरकार द्वारा 1 फरवरी को प्रस्तुत किये गए आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस संबंध में चिंता व्यक्त की गई|
- सर्वेक्षण में यह स्पष्ट किये गया कि यदि भारत को इसके समकक्ष पूर्वी एशियाई देशों के साथ एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा करनी है तो इसे कार्यशील जनसंख्या के आँकड़ों में महिलाओं की प्रतिशतता को बढ़ावा देना होगा| वस्तुतः भारत जैसी तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था के लिये इस दिशा में गंभीर कदम उठाया जाना अत्यंत आवश्यक है|