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कृषि

अधिकतम समर्थन नीति: अवधारणा और महत्त्व

  • 25 Nov 2021
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 24/11/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘The MSP that rural India needs: Maximum support policy’’ लेख पर आधारित है। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित समस्याओं की चर्चा की गई है और अधिकतम समर्थन नीति के लिये सुझाव दिया गया है।

संदर्भ 

तीन कृषि अधिनियमों को वापस लेने के अभूतपूर्व निर्णय के बावजूद प्रमुख कृषि वस्तुओं के लिये "न्यूनतम समर्थन मूल्य" (Minimum Support Price- MSP) का मुद्दा सरकार और किसानों के बीच अभी भी चुनौतीपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।  

किसान आंदोलन के नेताओं द्वारा MSP के वैधीकरण, समर्थन मूल्य में वृद्धि और इसे सभी फसलों तक विस्तारित करने की मांग की जा रही है, जबकि सरकार ने इन मांगों को अनसुना कर दिया है। यद्यपि न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुद्दा मुख्य रूप से लागत प्रभावी मूल्य निर्धारण से संबंधित है और निश्चित रूप से यह एक ऐसा आधार है जिस पर कृषि का मूल्यांकन एक उद्यम, व्यवसाय या आजीविका के साधन के रूप में किया जाना चाहिये, लेकिन हमें इन सब से आगे बढ़ कर स्वयं ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की अवधारणा पर विचार करना चाहिये।

अभी तक ग्रामीण भारत की प्रायः आर्थिक रूप से उपेक्षा ही की गई है और वोटों की राजनीति में उसे ठगा भी गया है। इस परिदृश्य में संभवतः यह उपयुक्त समय है कि ‘अधिकतम समर्थन नीतियों’ (Maximum Support Policies) पर विचार किया जाए और इस संबंध में जल्द-से-जल्द कोई महत्त्वपूर्ण कदम उठाया जाए। 

अधिकतम समर्थन नीतियाँ

  • इस नीति की शुरुआत इस दृष्टिकोण के साथ होनी चाहिये कि महज़ कृषि उत्पादों का मूल्य निर्धारण, विपणन और वितरण ही ग्रामीण भारत पर देश की वृहत अर्थव्यवस्था द्वारा लादे गए बोख का उपचार नहीं हो सकता।
  • ग्रामीण भारत की संरचनात्मक असमानताओं, संस्थागत एवं प्रशासनिक कमियों और राजनीतिक विकृतियों को संबोधित करने वाली समग्र नीतियाँ ही इसे एक नया जीवन प्रदान कर सकेंगी।

MSP से संबद्ध समस्याएँ

  • कृषि-संबद्ध क्षेत्र के लिये कोई MSP नहीं: किसानों की आय बढ़ाने में पशुपालन (मत्स्य पालन सहित) जैसे संबद्ध क्षेत्रों की अधिक भूमिका है। लेकिन इसके बावजूद पशुपालन या मत्स्य पालन क्षेत्र के उत्पादों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की कोई व्यवस्था लागू नहीं है, न ही सरकार द्वारा इनकी खरीद की जाती है। 
    • यह मुख्यतः मांग-प्रेरित उद्योग की तरह संचालित है और इसका अधिकांश विपणन APMC मंडियों के बाहर संपन्न होता है।
  • अपर्याप्त भंडारण व्यवस्था: कई लोग मानते हैं कि अनाजों के MSP में नियमित रूप से वृद्धि और सरकारी खरीद के माध्यम से किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। 
    • लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि सरकार के पास अनाज का भंडार पहले से ही ‘ओवरफ्लो’ हो रहा है और यह बफर स्टॉकिंग मानदंडों के दोगुने से भी अधिक है।
  • धान और गेहूँ के पक्ष में MSP का झुकाव: चावल और गेहूँ के पक्ष में झुकी MSP प्रणाली ने इन फसलों के आवश्यकता से अधिक उत्पादन को प्रेरित किया है। 
    • इसके अलावा, यह किसानों को अन्य फसलों और बागवानी उत्पादों की खेती के लिये हतोत्साहित करता है, जबकि उनकी मांग अधिक है और वे किसानों की आय की वृद्धि में अधिक सार्थक और सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
  • आर्थिक रूप से असंवहनीय: सरकारी खरीद की आर्थिक लागत चावल के लिये लगभग 37 रुपए प्रति किलोग्राम और गेहूँ के लिये लगभग 27 रुपए प्रति किलोग्राम है। भारतीय खाद्य निगम (FCI) द्वारा वहन की जा रही इस आर्थिक लागत की तुलना में चावल और गेहूँ के बाज़ार मूल्य पर्याप्त कम हैं।  
    • इससे FCI का आर्थिक बोझ लगभग 3 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच गया है।
    • इस बोझ का वहन अंततः केंद्र सरकार को करना होगा और इसके परिणामस्वरूप कृषि अवसंरचना क्षेत्र में निवेश हो सकने वाले धन का विचलन अन्य क्षेत्रों में हो सकता है।
  • MSP योजना के कार्यान्वयन में विद्यमान दोष: वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन पर सुझाव देने के लिये गठित ‘शांता कुमार समिति’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किसानों को MSP का केवल 6% ही प्राप्त हो सका, जिसका प्रत्यक्ष अर्थ यह है कि देश के 94 प्रतिशत किसान MSP के लाभ से वंचित रहे हैं। 
  • इसके साथ ही, MSP आधारित खरीद प्रणाली बिचौलियों, कमीशन एजेंटों और APMC अधिकारियों पर निर्भर रही है और उन तक पहुँच पाने में छोटे किसान कठिनाई महसूस करते हैं।

आगे की राह- अधिकतम समर्थन नीति

  • प्राकृतिक खेती को अपनाना: औद्योगिक रसायनों के उपयोग पर आधारित सब्सिडी प्राप्त कृषि को बढ़ावा देने के हरित क्रांति मॉडल से उल्लेखनीय और चरणबद्ध रूप से बाहर निकलने की आवश्यकता है। 
    • ‘शून्य-बजट प्राकृतिक खेती’ (Zero-Budget Natural Farming) के माध्यम से सतत् कृषि की ओर आगे बढ़ना संभव है, लेकिन भारत के विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिये ‘प्राकृतिक खेती’ के एकल मॉडल पर ही समग्र रूप से निर्भर होना उपयुक्त नहीं होगा।
    • क्षेत्रीय रूप से विकसित और स्थापित सतत् कृषि-संस्कृतियों के संयोजन की आवश्यकता है, जिसे उनकी सामाजिक असमानताओं (जैसे बंधुआ मज़दूरी और किरायेदारी) से छुटकारा पाने के लिये कुछ रूपांतरित किया जा सकता है और नई जलवायु प्रवृत्तियों के अनुकूल बनाया जा सकता है।
  • संसाधनों का समान वितरण: भूमि और जल जैसे संसाधनों के समान वितरण और साथ ही वैकल्पिक आर्थिक प्रथाओं और समर्थन संरचनाओं की एक शृंखला तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये नीतियाँ बनाई जानी चाहिये। 
    • ‘सब्सिडी’ (जो बड़े पैमाने पर गैर-ग्रामीण लाभार्थियों को प्राप्त होती है), ऋणों के अधिस्थगन और चुनाव के ठीक पहले दिये जाने वाले लोकलुभावन लाभों के बजाय आवश्यक यह है कि ‘पुनरुत्थान कृषि" (Restorative Agriculture)—जो हमारी मृदा और जल को पुनर्जीवित करती है और बीज एवं कृषि जैव विविधता को बढ़ावा देती है—के प्रसार को बढ़ावा देने के लिये भुगतान किया जाए। 
  • जलवायु परिवर्तन शमन रणनीतियों को बढ़ावा देना: एक व्यापक कार्यक्रम के माध्यम से न केवल सतत् कृषि की ओर ट्रांजीशन को सक्षम किया जाना चाहिये बल्कि लोगों को जलवायु परिवर्तन शमन एवं अनुकूलन रणनीतियों को विकसित करने हेतु समर्थ बनाया जाना चाहिये। 
    • किसानों को ऐसे समूह/संघ निर्माण में सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है जहाँ उत्पादन, मूल्यवर्द्धन और विपणन के लिये संसाधनों, श्रम, कौशल और ज्ञान को एकत्र किया जाता है। यह उन कई समस्याओं को दूर करने का दीर्घकालिक समाधान हो सकता है जो किसानों को लाभ या प्रगति से वंचित या बहिर्वेशित करते हैं।
  • कृषि नियोजन के लोकतंत्रीकरण और विकेंद्रीकरण को पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त खेती को पुनर्जीवित करने, स्थानीय संग्रह एवं वितरण को सुगम करने और स्थानीय खाद्य संस्कृतियों को संरक्षित करने से संबद्ध किया जा सकता है जो कुपोषण की समस्या को कम कर सकेंगे।
    • एक नई बीज नीति (Seed Policy)—जो स्थानीय बीज बैंकों को सक्षम करने पर केंद्रित हो, किसानों को समस्याग्रस्त वाणिज्यिक बीज उद्योग से बचने में मदद कर सकती है।
  • एक ओर ग्रामीण एवं कृषि प्रधान और दूसरी ओर शहरी एवं उद्योग प्रधान भारत के बीच का विभाजन वर्तमान समय में स्वीकार्य नहीं हो सकता। लघु उद्योगों और प्रसंस्करण केंद्रों को बढ़ावा देना—जो रोज़गार सृजन के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के संसाधनों एवं कौशल को बनाए रखने में मदद करेंगे, बेरोज़गारी और प्रवास जैसी गंभीर समस्या का समाधान हो सकते हैं।
    • ग्रामीण भारत को एक नए आर्थिक सौदे की आवश्यकता है जो पिछली गलतियों को संबोधित करे और स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा एवं जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने वाले अन्य विषयों में वर्षों की उपेक्षा के कारण उभरी रुग्नताओं को दूर करे।
  • पंचायत, आँगनवाड़ी, स्कूलों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों जैसे सार्वजनिक संस्थानों में तत्काल सुधारों की आवश्यकता है, जो राज्य-नागरिक अंतर्संवाद को नौकरशाही से मुक्त करे और यह सुनिश्चित करे कि ग्रामीण निवासियों को नागरिक के रूप में देखा जाए, न कि अनुनय-विनय करते याचिकाकर्त्ता की तरह।
    • संरचनात्मक असमानताओं और वंचनाओं से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को दूर करने के लिये सुविकसित नीतियों की आवश्यकता है जो जाति, नृजाति, लिंग और वर्ग से संबद्ध असमानताओं को सार्थक रूप से संबोधित कर सके।

निष्कर्ष

कहा जा रहा है कि किसानों और राज्य के बीच वर्ष भरे चले इस संघर्ष में ट्रैक्टरों ने टैंक पर विजय पा ली है। अहिंसक आंदोलन से मिली इस जीत से देश को ग्रामीण और कृषि प्रधान भारत के लिये "अधिकतम समर्थन नीतियों" की एक शृंखला के प्रति अपनी एकजुटता को बढ़ाने के लिये उत्साहित होना चाहिये।

पहला प्रयास यह हो कि अपने-अपने क्षेत्र के सांसदों को याचिका सौंपी जाए ताकि आगामी संसदीय सत्र केवल तीन कृषि अधिनियमों को वापस लेने तक सीमित न रहे, बल्कि ग्रामीण भारत के लिये सर्वोत्तम परियोजनाओं को साकार करने का मार्ग भी प्रशस्त हो।

अभ्यास प्रश्न: न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) किसानों के कल्याण के लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये, संभवतः समय आ गया है कि "अधिकतम समर्थन नीतियों" के एक पैकेज की तलाश की जाये। चर्चा कीजिये।

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