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भारतीय अर्थव्यवस्था

नए विश्व के लिये नया आर्थिक परिदृश्य

  • 07 Apr 2023
  • 18 min read

यह एडिटोरियल 05/04/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A new economics for a new world” लेख पर आधारित है। इसमें पश्चिम में अर्थशास्त्र के बदलते प्रतिमान और भारतीय अर्थशास्त्रियों द्वारा न केवल इन प्रगतियों का अनुसरण करने बल्कि इनका नेतृत्व करने की आवश्यकता के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

बदलते प्रतिमान से अभिप्राय है अर्थशास्त्र के नवशास्त्रीय मॉडल (neoclassical model) से दूर हटते हुए उन वैकल्पिक ढाँचों (alternative frameworks) की ओर आगे बढ़ना जो वास्तविक दुनिया की जटिलताओं और असमानता, शक्ति संबंध, पर्यावरण संबंधी चिंताओं एवं व्यवहारिक अर्थशास्त्र जैसे घटकों को बेहतर ढंग से समायोजित करते हैं।

  • भारत सरकार तीन आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है: मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, विनिमय दरों का प्रबंधन; व्यापार संबंधी समझौता वार्ताओं को आगे बढ़ाना और पर्याप्त आय के साथ सुरक्षित रोज़गार सुनिश्चित करना।
  • अर्थशास्त्रियों के पास इस ‘बहु-संकट’ (poly-crisis) के लिये कोई प्रणालीगत समाधान नहीं है और वे केंद्रीय बैंकिंग, मुद्रास्फीति, कामगारों की आय की सुरक्षा और मुद्रा मूल्यह्रास से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर भिन्न-भिन्न राय रखते हैं।
  • इस संदर्भ में, सरकार को आर्थिक परिदृश्य के एक नए प्रतिमान की आवश्यकता है ताकि ऐसे मुद्दों को सबसे कुशल तरीके से हल किया जा सके।

वर्तमान प्रतिमान

  • अर्थशास्त्र का वर्तमान प्रतिमान अत्यंत रैखिक, अत्यधिक गणितीय और अति यांत्रिक है तथा इसे मूलभूत दोषों के रूप में देखा जाता है।
  • अर्थशास्त्री प्रायः टिनबर्गेन के सिद्धांत (Tinbergen's theory) का उपयोग करते हैं, जिसमें कहा गया है कि मुद्रास्फीति के प्रबंधन के लिये स्वतंत्र मौद्रिक संस्थानों की आवश्यकता को उचित सिद्ध करने के लिये नीतिगत उपकरणों की संख्या को नीतिगत लक्ष्यों की संख्या के बराबर होना चाहिये।
  • हालाँकि, यह दृष्टिकोण भारत सहित विभिन्न देशों के समक्ष विद्यमान आर्थिक चुनौतियों का एक प्रणालीगत समाधान प्रदान नहीं करता है।
  • आर्थिक विकास के कारण के रूप में मुक्त व्यापार नीतियों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने और विकास के साधन के रूप में मानव विकास के महत्त्व को ध्यान में नहीं रखने के लिये भी अर्थशास्त्र के वर्तमान प्रतिमान की आलोचना की जाती है।

वर्तमान प्रतिमान से संबद्ध समस्याएँ

  • इस सहस्राब्दी में उभरे कई संकटों, जैसे वर्ष 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट, वैश्विक कोविड-19 महामारी का असमान प्रबंधन और मंडराते वैश्विक जलवायु संकट ने वर्तमान प्रतिमान की अपर्याप्तता को उजागर किया है।
    • कुछ प्रमुख चुनौतियों में आय असमानता, जलवायु परिवर्तन, संसाधन क्षरण, वैश्वीकरण-संबंधी रोज़गार विस्थापन और डिजिटल एकाधिकार का उदय शामिल हैं।
    • कई देशों में आय असमानता एक बढ़ती हुई चिंता है, क्योंकि जनसंख्या का एक महत्त्वपूर्ण अंश बुनियादी चीज़ों के लिये भी संघर्षरत है जबकि कुछ लोग बड़ी मात्रा में धन संचय करते हैं।
    • जलवायु परिवर्तन, संसाधन क्षरण और पर्यावरणीय गिरावट से आर्थिक विकास की स्थिरता को खतरा पहुँच रहा है, जबकि वैश्वीकरण एवं स्वचालन के कारण रोज़गार विस्थापन आर्थिक असुरक्षा एवं सामाजिक अशांति का कारण बन रहा है।
    • इसके साथ ही, डिजिटल एकाधिकार के उदय के परिणामस्वरूप बाज़ार की एकाग्रता में वृद्धि हुई है और प्रतिस्पर्धा कम हुई है, जो नवाचार को बाधित कर सकती है और उपभोक्ताओं के लिये उच्च कीमतों की स्थिति बना सकती है।

एक नए अर्थशास्त्र की आवश्यकता

  • एक नए अर्थशास्त्र की आवश्यकता है जो सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की जटिलताओं को ध्यान में रखे और मानव विकास को आर्थिक विकास के एक पूर्वशर्त के रूप में देखे।
  • भारत के नीति निर्माताओं को एक ऐसा समाधान पाना होगा जहाँ एक ही समय में आर्थिक वृक्ष के फल भी पाए जा सकें और उसकी जड़ों को मज़बूत भी किया जा सके।
  • इसके लिये वर्तमान रैखिक एवं यांत्रिक प्रतिमान को छोड़ने और अर्थशास्त्र के प्रति अधिक समग्र एवं अनुकूल दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

नए आर्थिक प्रतिमान से संबद्ध संभावनाएँ

  • आर्थिक विकास के प्रति संतुलित दृष्टिकोण
    • यह आर्थिक विकास के प्रति अधिक संतुलित दृष्टिकोण पर बल देता है जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक कल्याण को ध्यान में रखता है।
  • विकास के चालक:
    • यह आर्थिक विकास को संचालन में नवाचार, प्रौद्योगिकी और डिजिटलीकरण के महत्त्व को भी रेखांकित करता है।
  • समावेशी विकास:
    • यह दृष्टिकोण अधिक समावेशी विकास की आवश्यकता को चिह्नित करता है जो केवल कुछ चुनिंदा लोगों के बजाय समाज के सभी वर्गों को लाभान्वित करता है।
  • इसके अतिरिक्त, यह जलवायु परिवर्तन और असमानता जैसी वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सहकार्यता को प्रोत्साहित करता है।

नए आर्थिक प्रतिमान से संबद्ध चुनौतियाँ

  • कुछ संभावित चुनौतियाँ जो उभर सकती हैं-
    • पहले से जमे हुए आर्थिक हितों की ओर से प्रतिरोध,
    • यदि ठीक से प्रबंधित नहीं किया गया तो असमानता में वृद्धि की संभावना,
    • पुराने प्रतिमान से नए प्रतिमान की ओर संक्रमण का प्रबंधन करना,
    • पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना और उन भू-राजनीतिक तनावों को संबोधित करना जो आर्थिक शक्ति संबंध में स्थानांतरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न हो सकते हैं।
  • इसके अतिरिक्त, नए आर्थिक प्रतिमान का समर्थन करने वाली नई नीतियों और विनियमों के प्रवर्तन से भी कई चुनौतियाँ संबद्ध हो सकती हैं। साझा आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों को दूर करने के लिये वैश्विक प्रयासों के समन्वय में भी संभावित कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

आगे की राह

  • एक समग्र और व्यापक दृष्टिकोण अपनाना:
    • सरकार, शिक्षा जगत, नागरिक समाज, निजी क्षेत्र और स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए बहुक्षेत्रीय सहयोग स्थापित करना होगा। यह मौजूदा मुद्दों के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय आयामों को संबोधित करने वाले एकीकृत समाधान विकसित करने हेतु विविध दृष्टिकोणों, विशेषज्ञता और संसाधनों का लाभ उठाने में मदद कर सकता है।
    • निर्णयन, नीति निर्माण और कार्यान्वयन को सूचना-संपन्न करने के लिये डेटा एवं साक्ष्य का सहारा लेना होगा। सुदृढ़ निगरानी, मूल्यांकन और लर्निंग तंत्र प्रगति पर नज़र रखने, अंतरालों की पहचान करने और साक्ष्य एवं प्राप्त अनुभवों पर आधारित हस्तक्षेपों को परिष्कृत करने में मदद कर सकते हैं।
  • मानव विकास को प्राथमिकता देना:
    • शिक्षा में निवेश: शिक्षा में निवेश के माध्यम से सरकारें और विभिन्न संगठन व्यक्तियों को अपने कौशल एवं ज्ञान को विकसित करने में मदद कर सकते हैं, जिससे उच्च स्तर की आर्थिक एवं सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न हो सकती है।
    • स्वास्थ्य सेवा को बढ़ावा देना: स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना और स्वस्थ व्यवहार को बढ़ावा देना व्यक्तियों को स्वस्थ एवं उत्पादक जीवन जीने में मदद कर सकता है।
  • स्थानीय संदर्भों के लिये अनुकूल समाधान:
    • एक संपूर्ण आवश्यकता आकलन का आयोजन करना: स्थानीय समुदाय की विशिष्ट आवश्यकताओं और चुनौतियों को समझना महत्त्वपूर्ण है। सर्वेक्षणों, फोकस समूहों और समुदाय के सदस्यों के साक्षात्कार के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है।
    • मौजूदा अवसंरचना और संसाधनों पर आगे बढ़ना: शून्य से शुरू करने के बजाय, स्थानीय संदर्भ में मौजूदा अवसंरचना और संसाधनों पर समाधान तैयार किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये, एक स्वास्थ्य कार्यक्रम मौजूदा क्लीनिकों या सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता का उपयोग कर सकता है।
  • वास्तविक लोगों से संलग्न होना:
    • यह सुनिश्चित करने के लिये कि समाधान प्रासंगिक और प्रभावी बने रहें, समुदाय के सदस्यों के साथ जारी संवाद और फीडबैक से संलग्न होना होगा।
    • समावेशी, सुलभ और विविध प्रकार के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले समाधानों के सृजन के लिये मानव-केंद्रित अभिकल्पना सिद्धांतों का उपयोग करना।
    • स्थानीय लोगों के लिये प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में निवेश करना ताकि वे समाधानों के विकास एवं कार्यान्वयन में सक्रिय भूमिका निभा सकें।
  • सहकार्यता और समन्वय को बढ़ावा देना:
    • स्पष्ट संचार चैनल स्थापित करना: विभिन्न हितधारकों के बीच सहकार्यता एवं समन्वय सुनिश्चित करने के लिये प्रभावी संचार महत्त्वपूर्ण है।
    • साझा लक्ष्यों की पहचान करना: उन साझा लक्ष्यों और उद्देश्यों की पहचान करनी होगी जिनके लिये सभी हितधारक मिलकर कार्य कर सकते हैं। यह प्रयासों को संरेखित करने और संघर्षों को कम करने में मदद कर सकेगा।
    • विश्वास निर्माण: सहकार्यता और समन्वय को बढ़ावा देने के लिये हितधारकों के बीच विश्वास निर्माण महत्त्वपूर्ण है। विश्वास निर्माण और सहकार्यता को बढ़ावा देने के लिये खुले संचार, सक्रिय रूप से लोगों की बात सुनने (active listening) और परस्पर सम्मान को बढ़ावा देना होगा।
  • नवाचार और अनुकूलनशीलता को अपनाना:
    • नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा देना: समस्याओं को हल करने के लिये प्रयोगात्मकता (experimentation) और रचनात्मक सोच (creative thinking) को प्रोत्साहित करना होगा।
    • उभरती हुई प्रौद्योगिकियों को अपनाना: नई प्रौद्योगिकियों के साथ अद्यतन बने रहने की आवश्यकता है, जो समस्याओं को अभिनव तरीकों से हल करने में मदद कर सकती हैं और जोखिम लेने के रवैये को प्रोत्साहित करती हैं।
  • समावेशिता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना:
    • वंचित समूहों के लिये अवसर सृजित करना: समावेशिता को बढ़ावा देने के लिये, हमें महिलाओं, जातीय अल्पसंख्यकों और दिव्यांगजन जैसे वंचित/उपेक्षित समूहों के लिये अवसर सृजित करने की आवश्यकता है। इसमें शिक्षा, प्रशिक्षण, रोज़गार और अन्य संसाधनों तक पहुँच शामिल है जो उन्हें अपनी पूरी क्षमता साकार करने में मदद कर सकते हैं।
    • भेदभाव उन्मूलन: समावेशिता और सामाजिक न्याय के लिये भेदभाव एक प्रमुख बाधा है। समावेशिता को बढ़ावा देने के लिये हमें नस्लवाद, लिंगवाद और पूर्वाग्रह के अन्य रूपों सहित भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • अर्थशास्त्र का वर्तमान प्रतिमान भारत और अन्य देशों के सामने मौजूद जटिल आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने हेतु अपर्याप्त है। चीन एवं वियतनाम के सबक सतत् आर्थिक विकास की प्राप्ति में मानव विकास और इसके साथ आय वृद्धि के महत्त्व को रेखांकित करते हैं।
  • जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने और उनके समाधान के लिये अर्थशास्त्रियों को अर्थशास्त्र के प्रति अधिक व्यापक एवं अनुकूल दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। भारत और अन्य देशों के नीति निर्माताओं को एक नई दुनिया के लिये एक नए अर्थशास्त्र को अपनाने हेतु तैयार रहना चाहिये। अधिक समावेशी और सतत् आर्थिक भविष्य के निर्माण के लिये वर्तमान आर्थिक प्रतिमान पर पुनर्विचार करने और इसमें सुधार लाने का समय आ गया है।

अभ्यास प्रश्न: भारत के संदर्भ में अर्थशास्त्र के वर्तमान प्रतिमान में विद्यमान मूलभूत दोषों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2018)

एक अवधारणा के रूप में 'मानव पूंजी निर्माण' को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में समझाया गया है जो सक्षम बनाती है:

  1. किसी देश के व्यक्ति को अधिक पूंजी जमा करने के लिये।
  2. देश के लोगों के ज्ञान, कौशल स्तर और क्षमता में वृद्धि करने लिये।
  3. मूर्त संपत्ति का संचय करने के लिये।
  4. अमूर्त संपत्ति का संचय।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

 (A) 1 और 2
 (B) केवल 2
 (C) 2 और 4
 (D) 1, 3 और 4

उत्तर: (C)

  • व्याख्या:संसाधन के रूप में राष्ट्र के लोग देश की कामकाजी आबादी को उनके मौजूदा उत्पादन कौशल और क्षमताओं के संदर्भ में संदर्भित करते हैं। सकल राष्ट्रीय उत्पाद के निर्माण में योगदान करने की लोगों की क्षमता पर जोर देने के साथ एक राष्ट्र की जनसंख्या का यह पहलू मानव पूंजी के रूप में जाना जाता है।
  • मानव पूंजी निर्माण को मानव संसाधन के स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास में निवेश करके मानव संसाधन के विकास के रूप में परिभाषित किया गया है। दूसरे शब्दों में मानव पूंजी निर्माण में देश के लोगों के ज्ञान, कौशल स्तर और क्षमताओं को बढ़ाने की प्रक्रिया शामिल है। अतः कथन 2 सही है।
  • शिक्षा, कौशल विकास, व्यावसायिक प्रशिक्षण और ऑन-द-जॉब प्रशिक्षण मानव संसाधन और मानव पूंजी की अमूर्त संपत्ति का हिस्सा हैं। अतः कथन 4 सही है और कथन 1, 3 सही नहीं हैं।

 अतः विकल्प (C) सही उत्तर है।

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