नगण्य है निजता | 31 Jul 2017

यह एक अहम् सवाल है कि भारत में निजता या गोपनीयता के बारे में अधिकांश आबादी क्या राय रखती है? निजता, केवल किसी व्यक्ति के बारे में कुछ जानकारियाँ  छिपाने या उन्हें गुप्त रखने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि निजता का अर्थ यह है कोई व्यक्ति स्वयं को किस हद तक दुनिया से बाँटना चाहता है।

  • दरअसल, जब भी निजता की बात होती है, तो हमेशा दो पक्ष देखने को मिलते हैं, एक वह जिसके बारे में निजी जानकारियाँ मांगी जा रही हैं और दूसरा वह जो निजी जानकारी माँग रहा है।
  • लेकिन, मामला तब पेचीदा हो जाता है जब निजी जानकारियाँ राज्य द्वारा माँगी जाएं। निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाए जाने को लेकर जारी बहस के बीच यह बात सामने आई है कि बड़ी संख्या में लोग अपनी निजता को लेकर असंवेदनशील हैं।

निजता के अधिकार के संबंध में संवैधानिक स्थिति

  • अभी निजता के अधिकार पर कई कारणों से व्यापक बहस चल रही है। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ को तय करना है कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है या नहीं।
  • विदित हो कि 1954 में एम.पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्र में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अमेरिका के चौथे संविधान संशोधन की तरह भारतीय संविधान में निजता को मौलिक अधिकार के रूप में पहचान नहीं मिली है और अभी इसे आयात करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है। 
  • दरअसल, इस मामले में अपराध प्रक्रिया विधान, 1898 की धारा 96 की वैधता को चुनौती दी गई थी, जिसमें राज्य को छापेमारी का अधिकार प्राप्त है। 
  • यहाँ जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि अमेरिकी संविधान के चौथे संशोधन की तर्ज़ पर संविधान सभा में काज़ी करीमुद्दीन ने एक संशोधन पेश किया था, जो खारिज़ हो गया।
  • बाद में 1963 में खरक सिंह बनाम उत्तर प्रदेश में इसी तरह का प्रश्न उठा कि उत्तर प्रदेश पुलिस नियमन के तहत निगरानी का अधिकार वैध है या नहीं।
  • हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन व व्यक्तिगत आज़ादी का अधिकार) के तहत अवैध करार दिया, और स्पष्ट किया कि चूंकि निजता एक संविधान प्रदत्त अधिकार नहीं है, इसलिये किसी के आने-जाने पर नज़र रखना, जिससे निजता में अतिक्रमण होता हो, मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है।
  • परंतु, न्यायमूर्ति के. सुब्बा राव ने इससे असहमति जताई। उन्होंने स्पष्ट किया कि व्यक्तिगत आज़ादी के अधिकार का अर्थ केवल घूमने-फिरने की आज़ादी नहीं है, बल्कि निजी जीवन में भी घुसपैठ से स्वतंत्रता है। भले ही मौलिक अधिकारों में निजता को शामिल नहीं किया गया हो, पर यह व्यक्तिगत आज़ादी का अभिन्न अंग है।
  • भारतीय दंड विधान की धारा 509 के अनुसार किसी स्त्री की निजता में घुसपैठ अपराध है। वर्ष 2012 में केंद्र सरकार ने निजता के अधिकार व डीएनए प्रोफाइलिंग विधेयक, 2007 के तहत न्यायमूर्ति ए. पी. शाह की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था, जिसे इन दोनों मुद्दों पर अपनी राय देनी थी। 
  • समिति ने स्पष्ट रूप से अनुशंसा की कि ऐसा कोई कानून बनाने से पहले निजता के अधिकार का एक मज़बूत कानून बनना चाहिये।

निजता के संबंध में नगण्य जागरूकता

  • एक ऐसे समाज में, जहाँ एक वयस्क व्यक्ति भी परिवार, जाति या सामाजिक दबावों के कारण खुद की स्वतंत्र इच्छा के अनुसार निर्णय नहीं ले सकता, वहाँ यह स्वाभाविक है कि गोपनीयता के बारे में कम ही लोग जानते और समझते होंगे।
  • हमारे समाज में दूसरों की इच्छा से चलने कि प्रवृत्ति के कारण कम ही लोग अपनी निजता को लेकर जागरूक हैं।
  • प्रायः हमारे देश में भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर बात होती है, लोगों के धर्म और जाति पर वाद विवाद होते हैं, बीफ और भीड़तंत्र जैसे विषयों पर आंदोलन हो जाते हैं, लेकिन निजता के अधिकार पर कोई बात नहीं होती।
  • सच तो ये है कि लोग अपनी निजी सूचनाओं की सुरक्षा को लेकर जागरूक ही नहीं हैं। गूगल, फेसबुक, व्हाट्सएप, फ्लिप्कार्ट और अमेज़न जैसी तमाम कंपनियों के पास लाखों लोगों की निजी जानकारियाँ मौजूद है। फ्री वाई-फाई के लिये तो लोग अपने कॉन्टेक्ट डिटेल्स सहित तमाम संवेदनशील जानकारियाँ तक शेयर कर देते हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • गौरतलब है कि आधार एक कल्याणकारी उद्देश्यों वाली योजना है, जिसकी सहायता से “डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर” जैसे उपक्रमों को आसान बनाया जा सकता है, भ्रष्टाचार में कमी लाई जा सकती है और अपराधियों को कानून की जद में लेना आसान बनाया जा सकता है, लेकिन इससे जुड़ी हुई तमाम चिंताओं को नज़रंदाज़ करना उचित नहीं कहा जा सकता है।
  • आधार के संबंध में सरकार का प्रयास निश्चित ही सराहनीय है, लेकिन लोगों की निजी सूचनाएँ निजी ही बनी रहें, इसके लिये न्यायपालिका अथवा विधायिका को निजता संबंधी ठोस कानून लाना होगा।
  • यह जानकर हैरानी के साथ-साथ दुःख भी होता है कि हमारे देश में निजता या डाटा की सुरक्षा का कोई कानून तक नहीं है।
  • ठीक इसी तरह डीएनए प्रोफाइलिंग विधेयक अपराधों के अनुसंधान के लिये महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति की पहचान होगी, जिससे उसके डीएनए की जाँच होगी, परंतु संवेदनशील आंकड़ों का दुरुपयोग भी संभव है।
  • एडवर्ड स्नोडेन द्वारा किये गए खुलासे से ज़ाहिर है कि निजी अधिकारियों के पास जो संवेदनशील गोपनीय सूचनाएं होती हैं, वे अन्य के साथ साझा की जाती हैं।
  • यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि संवेदनशील आंकड़े व जानकारियाँ सुरक्षित रहें और ऐसा निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाकर ही किया जा सकता है।

निष्कर्ष

  • प्रौद्यौगिकी का लाभ उठाना वक्त की ज़रूरत है, किंतु संतुलन बनाना अनिवार्य है, ताकि उससे किसी की निजता प्रभावित न हो।
  • दरअसल, फैसला लेने का हर अधिकार निजता का अधिकार नहीं हो सकता। ये प्रत्येक मामले पर निर्भर करेगा- किसी का बच्चा स्कूल जाएगा यह उसकी पसंद है, यह उसकी निजता के अंतर्गत नहीं आएगा लेकिन कोई व्यक्ति अपने बेडरूम में क्या करता है, ये निजता का अधिकार होगा।
  • जहाँ तक लोगों के डेटा को असुरक्षित हाथों में जाने से रोकने का सवाल है तो सरकार को जल्द से जल्द एक प्रभावशाली डेटा सरंक्षण कानून लाना चाहिये। नौ जजों की संविधान पीठ के पिटारे से क्या निकलकर आता है यह देखने वाला होगा। हालाँकि, इसके दूरगामी परिणाम होंगे जिससे इनकार नहीं किया जा सकता।