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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

तेल नीति में सुधार करने की आवश्यकता

  • 06 Feb 2017
  • 9 min read

गौरतलब है कि हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में लेखक विक्रम एस. माथुर द्वारा लिखे गए एक लेख में शैल समूह के साथ अपने अनुभवों को साझा करते हुए तेल व्यवसाय के विषय में बहुत सी सकारात्मक एवं नकारात्मक बातों के बारे में उल्लिखित किया गया| लेखक ने अपने अनुभवों से अत्यधिक बड़े एवं एकीकृत पेट्रोलियम व्यापार के क्षेत्र से संबद्ध बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समक्ष एक खतरे की स्थिति बनने का संकेत दिया है| 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि लेखक द्वारा वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली द्वारा 1 फरवरी को पेश किये गए बजट में सरकार द्वारा एकीकृत पेट्रोलियम सार्वजनिक क्षेत्रों (Integrated Petroleum PSUs) का निर्माण करने के विषय में की गई चर्चा के सन्दर्भ में तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गई|
  • इसके अतिरिक्त, लेखक द्वारा पेट्रोलियम क्षेत्र पर बढ़ते दबाव के विषय में निम्नलिखित पाँच व्यापक प्रवृत्तियों के विषय में भी चर्चा की गई है| सर्वप्रथम, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली घातांकीय उन्नति (Exponential Advancement) की तेज़ गति न केवल एक प्रतिस्पर्द्धी विकास के मार्ग को प्रशस्त करने का काम करती है बल्कि एक आंतरिक दहन इंजन (Internal Combustion Engine) तथा तरल ईंधन (Liquid Fuels) के स्थानापन्न का विकल्प भी उपलब्ध कराती है|
  • दूसरा, सार्वजनिक परिवहन के रूप में इलेक्ट्रिक वाहनों (Electric Vehicles) को बढ़ावा प्रदान करने तथा दिनोंदिन बढ़ते शहरीकरण के दौर में यात्रा के विकल्पों का साझाकरण (Shared Mobility) भी पेट्रोलियम के उपयोग को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है|
  • तीसरा, कुछ समय पहले तेल बाज़ार में आए संरचनात्मक परिवर्तन ने ओपेक को कमज़ोर करने का काम किया है जिसके कारण तेल की वैश्विक मांग में कमी आने के साथ-साथ तेल की व्यवस्थात्मक आपूर्ति को सुनिश्चित करने तथा तेल की कीमतों एवं मांग में अपेक्षाकृत कमी दर्ज़ की गई है|
  • चौथा, पेट्रोलियम क्षेत्र को एकीकृत रूप से बहुत बड़े तेल समूहों के व्यापार मॉडल में कमी आने से भी नुकसान पहुँचा है| ऐसा इसलिये हुआ है क्योंकि पिछले कुछ समय से उच्च जोखिम युक्त पूंजी प्रधान इस क्षेत्र से संबद्ध कंपनियाँ तेल एवं गैस कीमतों पर से अपना नियंत्रण खोती जा रही हैं| पूंजी की कमी के कारण ये कंपनियाँ राष्ट्रीय पेट्रोलियम कंपनियों के स्वामित्व एवं नियंत्रण वाले तेल भंडारों से कम कीमतों पर तेल प्राप्त करने की परेशानी का सामना कर रही हैं|
  • हालाँकि, यह भी स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि पेट्रोलियम क्षेत्र के लगभग सभी उपखंडों में प्रौद्योगिकी ने नई तथा अभिनव उद्यमी कंपनियों को पेट्रोलियम क्षेत्र में प्रवेश करने एवं बाधाएँ उत्पन्न करने से दूर रखा गया है| वस्तुत: जिसका उद्देश्य इस क्षेत्र विशेष की एकीकृत मूल्य श्रंखला को प्रतिस्पर्द्धा से मुक्त रखना है|
  • हालाँकि, वर्तमान में ये सभी प्रवृत्तियाँ भारत में दृष्टिगत नहीं होती हैं| इसके विपरीत, यहाँ तरल ईंधन की मांग घटने के बजाय निरंतर बढ़ती जा रही है| साथ ही, यहाँ आम जन का इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग के सन्दर्भ में भी कोई विशेष रुझान दिखाई नहीं पड़ रहा है|
  • वर्तमान में भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के पेट्रोलियम उपक्रमों की संख्या भी अत्यंत सीमित है| और जो उपक्रम स्थापित हैं भी उन्हें प्रतिस्पर्द्धी दबाव तथा भारत सरकार द्वारा अधिरोपित मानदंडों, यथा- पर्यावरण (विशेषकर वायु प्रदूषण) को प्रभावित करने वाले कारकों तथा अन्य मानदंडों के उल्लंघन से संबंधित मानकों के कारण बहुत अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है| 
  •  उपरोक्त चर्चा के पश्चात् यह स्पष्ट है कि देश के नीति निर्माताओं को उक्त बिन्दुओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि अभी तक भारत की ऊर्जा नीति को तेल आपूर्ति के सुरक्षात्मक प्रारूप में ही विकसित किया गया है|
  • ध्यातव्य है कि देश के ऊर्जा क्षेत्र में कोयला तथा नवीकरणीय ऊर्जा दो प्रमुख ऊर्जा क्षेत्र हैं| 
  • गौरतलब है कि एक राष्ट्र के रूप में हम अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के तकरीबन 80% भाग की पूर्ति हेतु तेल के आयात पर निर्भर करते हैं जिसका सबसे अधिक प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर परिलक्षित होता है| क्योंकि जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों एवं आपूर्ति में उतार-चढ़ाव आता है, वैसे-वैसे ही इसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता जाता है|
  • ऐसी स्थिति में अहम प्रश्न यह है कि क्या तेल आपूर्ति के सन्दर्भ में बहुत अधिक तेल एवं गैस उत्पादकों की उपस्थिति से न केवल पेट्रोलियम के उत्खनन पर बल्कि पर्यावरण के क्षरण एवं वायु प्रदूषण के क्षेत्र पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है अथवा नहीं? 
  • ऐसी स्थिति में सरकार को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि एकीकृत पीएसयू की स्थापना करने हेतु संसाधनों एवं मेहनत को व्यर्थ करने के बजाय, विशेषकर उस स्थिति में जब प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने तेल भंडारों से संबद्ध सभी आकारों, अनुपातों तथा इमारत के प्रारूपों की निवारण क्षमता को कमज़ोर कर दिया है, सरकार द्वारा नई ऊर्जा नीति के सटीक अनुपालन तथा इससे संबद्ध सभी उपखंडों के संस्थागत तंत्रों की देखभाल करने संबंधी प्रयासों पर बल दिये जाने की आवश्यकता है|
  • वस्तुतः इस सन्दर्भ में पेट्रोलियम की बढ़ती मांग के सन्दर्भ में आपूर्ति का सही तालमेल न हो पाना तथा पर्यावरण को क्षति पहुँचना प्रमुख समस्याओं के रूप उभरकर सामने आया है| हालाँकि, इस सन्दर्भ में सबसे बड़ी बात यह है कि इस विषय में अभी तक किसी की प्रतिबद्धता एवं जवाबदेहिता सुनिश्चित नहीं की गई है|

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि हमारी ऊर्जा समस्या अब बहुत हद तक क्षमता एवं आपूर्ति से ही संबंधित नहीं रह गई है बल्कि मुख्य समस्या विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की व्यक्तिगत अपर्याप्तता के सामूहिक प्रभाव की है| वस्तुतः इस प्रकार की किसी भी गतिविधि से समस्त प्रणालीगत व्यवस्था (systemic collapse) के ध्वस्त होने का खतरा बना रहता है| अत: अब हमें एक राष्ट्र के रूप में एक एकीकृत नीति के अनुपालन के माध्यम से ऊर्जा संबंधी सभी समस्याओं का सामना करने तथा इसी फ्रेम में समस्त प्रक्रिया को हल करने का प्रयास करने पर बल देना चाहिये।

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