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कृषि

देश में विकराल होता जल संकट और जल सुधारों की आवश्यकता

  • 14 Jun 2019
  • 17 min read

देश में जल संकट की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इसके लिये जल सुधार बेहद आवश्यक हैं, जिनके बिना इस संकट को हल नहीं किया जा सकता। टीम दृष्टि द्वारा तैयार किये गए इस Editorial में देश में गहराते जल संकट के मद्देनज़र जल सुधारों की आवश्यकता और उपाय सुझाते हुए टिकाऊ, विविधीकृत तथा कम पानी की खपत वाली कृषि प्रणाली विकसित करने से होने वाले लाभों की चर्चा की गई है।

संदर्भ

65 साल में सबसे कम मानसून-पूर्व वर्षा...देश के बड़े बांधों के जलाशयों में कुल क्षमता का एक-तिहाई पानी...शहरों-महानगरों में पानी के लिये मचा हाहकार...निरंतर गिरता जा रहा भूजल स्तर...जल प्रदूषण की वज़ह से भूजल में रासायनिक तत्त्वों का घालमेल...वर्षा जल का संचयन न कर पाना...नदियों के पानी को लेकर राज्यों के बीच तलवारें खिंच जाना...आदि...इत्यादि। इस फेहरिस्त को अभी और विस्तार दिया जा सकता है, लेकिन फिलहाल तो यही इतना बताने के लिये पर्याप्त है कि देश में जल संकट बहुत विकराल हो गया है।

पानी की कमी नहीं है देश में

भारत को नदियों के देश के तौर पर भी जाना जाता है। देश में इतनी नदियाँ हैं कि पानी की कमी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन एक समाज और एक देश के तौर पर भारत ने अपनी जिस प्राकृतिक संपदा की सबसे ज़्यादा अवहेलना की है वह पानी है। देश में इस समय जल संरक्षण को लेकर होने वाली अव्यवस्था अपने चरम पर है और यही कारण है कि लोगों को उनकी न्यूनतम ज़रूरत का पानी भी मयस्सर नहीं है। फिर भी पानी का गलत इस्तेमाल और उसकी बर्बादी लगातार जारी रहती है। भारत में इस समय दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा रहता है, लेकिन हमारे हिस्से जो ज़मीनी पानी आता है वह मात्र 2.4 % है और इसकी वैश्विक गिरावट दर 4% है।

बेहद लचर अवस्था में है जल प्रबंधन

भारत में बहने वाली मुख्य नदियों के अलावा हमें औसतन सालाना 1170 ml बारिश का पानी मिल जाता है, इसके अलावा नवीकरणीय जल संरक्षण से भी हमें सालाना 1608 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी हर साल मिल जाता है। जिस तरह का मज़बूत बैकअप हमें मिला हुआ है और दुनिया का जो नौवां सबसे बड़ा फ्रेश वॉटर रिज़र्व हमारे पास है, उसके बाद भारत में व्याप्त पानी की समस्या स्पष्टतः जल संरक्षण को लेकर हमारे कुप्रबंध को दर्शाती है, न कि पानी की कमी को। देश में मानसून ने दस्तक दे दी है और देश के ज़्यादातर हिस्से को अपनी ज़रूरत से अधिक पानी मानसूनी वर्षा के इन चार महीनों में मिल जाता है। इनमें से कई इलाके ऐसे हैं जहाँ वर्षा से बाढ़ का खतरा बना रहता है, लेकिन यही इलाके कुछ महीनों बाद सूखे की चपेट में आ जाते हैं।

शहरीकरण और जल प्रबंधन

पंजाब के कुछ इलाकों में लोग यूरेनियम मिला हुआ पानी पीने को मजबूर हैं, तो बिहार के अधिकांश भाग में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ रही है। इसके अलावा भी अन्य कई राज्यों में भूजल में संदूषण की मात्रा बढ़ी है। शहरीकरण की दर तेज़ी से बढ़ रही है, जिससे शहरी जलापूर्ति और अपशिष्ट शोधन की हालत बदहाल हो गई है। आज हालात ऐसे बन गए हैं कि पानी को लेकर विवाद न केवल राज्यों के बीच बल्कि शहरों और देशों, कृषि एवं उद्योगों और एक ही गाँव या शहरी कॉलोनी के बीच भी हो रहे हैं।

कृषि में होता है सर्वाधिक पानी इस्तेमाल

  • संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के नवीनतम आँकड़ों के मुताबिक भारत में 90% पानी का इस्तेमाल कृषि में होता है।
  • इसमें कमी किये बिना ग्रामीण एवं शहरी घरेलू ज़रूरतों और उद्योगों के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध करा पाना लगभग असंभव है।
  • इसके लिये जल सुधार बेहद आवश्यक हैं, जिनके बिना कृषि संकट को हल नहीं किया जा सकता।
  • देश में पानी की अधिकांश खपत गेहूँ, चावल और गन्ने जैसी पानी की अधिक जरूरत वाली फसलों में होती है। महाराष्ट्र जैसे सूखे की आशंका वाले राज्य में भी यही स्थिति है, जहाँ कुल फसली क्षेत्र में गन्ने का हिस्सा केवल 4% है, लेकिन इस फसल में 65% सिंचाई के पानी की खपत होती है।
  • पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी किसान पानी की अधिक ज़रूरत वाली फसलें उगा रहे हैं। इसकी मुख्य वज़ह यह है कि इनके लिये सरकारी खरीद या निजी खरीद के रूप में एक भरोसेमंद बाज़ार है।

सामने आ रहे हैं हरित क्रांति के दुष्परिणाम

देश में हरित क्रांति का एक मुख्य पहलू गेहूं और चावल की सरकारी खरीद करना था। इससे हमें अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनने में मदद मिली है। लेकिन समय के साथ हरित क्रांति के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। अत्यधिक पानी और रसायनों की ज़रूरत वाली खेती में लागत और जोखिम अधिक हैं और अब यह भारत के ज़्यादातर किसानों के लिये लाभकारी नहीं रह गई है। किसानों की शुद्ध आमदनी ऋणात्मक होने लगी है, क्योंकि लाभ घट रहा है और लागत बढ़ रही है।

इसके साथ किसानों को मौसम की अनिश्चितता के रूप में एक अतिरिक्त जोखिम का भी सामना करना पड़ता है। ऐसे जोखिम वाले क्षेत्र में एक ही प्रकार की फसल उगाना कोई समझदारी की बात नहीं है, लेकिन सरकारी नीतियाँ किसानों को फसल विविधीकरण प्रोत्साहन देने में नाकाम रही हैं। इसके लिये जरूरी है कि सरकारी खरीद में परंपरागत मोटे अनाज और दलहन जैसी क्षेत्र विशेष और कम पानी की खपत वाली फसलों को शामिल किया जाए। इन फसलों में बाजरा, ज्वार, कोदों-कुटकी जैसी फसलें शामिल हैं, जिन्हें अब सरकार भी 'पोषक खाद्य' कह रही है।

चलन से बाहर साबुत खाद्य पदार्थ

मोटे अनाज जलवायु के अनुसार ढलने वाली फसलें हैं, इसलिये ये भारत में सूखे क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं। इन्हें समन्वित बाल विकास सेवाओं और मध्याह्न भोजन कार्यक्रम में भोजन के रूप में शामिल करके इन फसलों की बड़ी और अनवरत मांग पैदा की जा सकती है। इसके कई अन्य लाभ भी हैं, जैसे- ज़्यादा जल सुरक्षा, बेहतर मृदा स्वास्थ्य, किसानों को ज़्यादा और स्थिर शुद्ध आमदनी तथा उपभोक्ता की बेहतर सेहत आदि। गौरतलब है कि मध्याह्न भोजन कार्यक्रम बच्चों के लिये विश्व का अब तक का सबसे बड़ा पोषण कार्यक्रम है।

हमारे भोजन में से साबुत खाद्य पदार्थ बाहर हो गए हैं और इनकी जगह अधिक ऊर्जा वाले कम पोषक और अत्यधिक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों ने ले ली है। इसके साथ ही खाद्य पदार्थों एवं पानी के ज़रिये उर्वरक एव कीटनाशक हमारे शरीर में पहुँच रहे हैं। ऐसे में विविधीकृत फसल प्रणाली अपनाने की दिशा में प्रयासों के साथ ही कृषि रसायन के विकल्पों के लिये गहन अनुसंधान होना चाहिये और इसमें विशेष रूप से पानी की अधिक खपत वाली फसलों के लिये जल बचत तकनीकों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये। ऐसा आंध्र प्रदेश में पहले से ही हो रहा है, जहाँ कुल कृषि क्षेत्र के 80 लाख हेक्टेयर को 2027 तक प्राकृतिक कृषि में तब्दील करने की योजना बनाई गई है। इस कदम की नीति आयोग ने भी प्रशंसा की है।

असंतुलित कृषि उपाय भी ज़िम्मेदार

भारत में बिना सोचे-समझे तात्कालिक फायदे के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले कृषि उपाय भी पानी की इस कमी के लिये ज़िम्मेदार हैं। इसका खामियाज़ा कुछ प्रदेशों को पानी की कमी के रूप में झेलना पड़ रहा है और पूरे देश का जल-संतुलन बिगड़ रहा है। पंजाब, महाराष्ट्र और हरियाणा ऐसे राज्यों में शामिल हैं जहाँ युवा किसानों की कृषि संबंधी प्राथमिकताएँ बदल गईं हैं, जिससे हालात और खराब हो गए हैं। महाराष्ट्र के जो किसान पहले बाजरा, ज्वार और धान उगाया करते थे, वे अब गन्ना उगाने लगे हैं। गन्ना भले ही उन्हें अधिक आमदनी देता है, लेकिन बहुत अधिक पानी सोखता है। इसी प्रकार पंजाब और हरियाणा के किसान चावल और गेहूं उगाने लगे हैं, जबकि उनके यहाँ भूजल स्तर पहले ही काफी नीचे जा चुका है।

नीति आयोग ने भी जताई चिंता

हमें जल प्रबंधन के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना होगा। पिछले वर्ष नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक रिपोर्ट में इसे लेकर चेतावनी भी दी थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि यह बेहद चिंताजनक है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में लगभग 70% जल प्रदूषित है, जिसकी वज़ह से जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है। रिपोर्ट में भारत के मुख्य जल विज्ञान आँकड़ा संग्राहक यानी केंद्रीय जल आयोग के कामकाज पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि आँकड़े जुटाने का काम अपने दायरे, मज़बूती और कार्यक्षमता में बेहद सीमित है, जिसके परिणामस्वरूप दोयम दर्जे के असंगत और कम विश्वसनीय आँकड़े मिलते हैं।

भारत में होता है सबसे अधिक भूजल दोहन

  • भारत हर साल 230-250 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का निष्कर्षण करता है, जो पूरी दुनिया में निकाले जा रहे भूजल का एक-तिहाई है।
  • जो किसान इस भूजल का इस्तेमाल खेती के लिये करते हैं वे ज़मीन पर मौजूद पानी की तुलना में दोगुना अनाज पैदा करते हैं, क्योंकि भूजल किसानों को अपनी सुविधा के अनुसार खेती करने की अनुमति देता है।
  • 1960-70 के दशक में भारत भूजल का सबसे अधिक दोहन करने वाला देश नहीं था, लेकिन हरित-क्रांति ने सबकुछ बदल दिया।
  • आज़ादी के दौरान भारत की कृषि में भूजल का 35% हिस्सा इस्तेमाल होता था, जो आज 70% तक पहुँच गया है।
  • आज कृषि क्षेत्र निकाले गए भूजल का लगभग 90% पानी इस्तेमाल करता है, लेकिन देश की GDP में उसका योगदान मात्र 15-16% है। घरेलू कामकाज में 9% और उद्योगों में 2% भूजल का इस्तेमाल होता है।
  • पानी के लगातार दोहन से भूजल स्तर लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। अब समय आ गया है कि हम जितना पानी धरती से लेते हैं उतना ही पानी धरती को किसी-न-किसी रूप में लौटाएँ। यह रेनवाटर हार्वेस्टिंग से ही संभव है। हमारा दायित्त्व है कि हम पानी की एक बूँद भी बेकार न जाने दें। इससे हमारा भूजल रिचार्ज हो जाएगा तथा जलस्तर भी ऊपर उठेगा।

रेन वाटर हार्वेस्टिंग

स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की सभी पंचायतों को पत्र लिखकर बारिश के मौसम में वर्षा-जल संचयन करने को कहा है। वर्षा-जल एक अनमोल प्राकृतिक उपहार है जो प्रतिवर्ष लगभग पूरी पृथ्वी को बिना किसी भेदभाव के मिलता रहता है। परंतु समुचित प्रबंधन के अभाव में वर्षा जल व्यर्थ में बहता हुआ नदी, नालों से होता हुआ समुद्र के खारे पानी में मिलकर खारा बन जाता है। ऐसे में वर्तमान जल संकट को दूर करने के लिये वर्षा जल संचय ही एकमात्र विकल्प है। यदि वर्षा-जल के संग्रहण की समुचित व्यवस्था हो तो न केवल जल संकट से जूझते शहर अपनी तत्कालीन ज़रूरतों के लिये पानी जुटा पाएंगे बल्कि इससे भूजल भी रिचार्ज हो सकेगा। अतः शहरों के जल प्रबंधन में वर्षा-जल को सहेज कर रखना ज़रूरी है।

हमारे देश में प्राचीन काल से ही जल संचय की परंपरा थी तथा वर्षा-जल का संग्रहण करने के लिये लोग प्रयास करते थे। इसीलिये कुएँ, बावड़ी, तालाब, नदियाँ आदि पानी से भरे रहते थे। इससे भूजल स्तर भी बढ़ जाता था तथा सभी जलस्रोत रिचार्ज हो जाते थे। लेकिन मानवीय उपेक्षा, लापरवाही, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण ये जलस्रोत लगभग नष्ट हो गए। वर्षा-जल के संचय से इन जलस्रोतों को पुनः जीवित किया जा सकता है।

कैसे हो कुशल जल प्रबंधन

भारत एक संघीय ढाँचे के रूप में कार्य करने वाला देश है, जहाँ केंद्र एवं राज्य सरकार अपने-अपने अधिकार व कर्त्तव्य के अनुरूप अपनी ज़िम्मेदारी का संवैधानिक निर्वहन करती हैं। पर्यावरण, जंगल, जीव-जन्तु के साथ ही वर्षा-जल संरक्षण को लेकर कर्त्तव्य के निर्वहन की जिम्मेदारी वर्तमान परिस्थितियों में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जबकि संपूर्ण विश्व के देश अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों के बाद भी पीने के पानी को लेकर चिंतित हैं।

देश में कुशल जल प्रबंधन के लिये कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे हैं, जिन पर प्रायः ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन उपयुक्त जल प्रबंधन के लिये ये बेहद ज़रूरी हैं। इनमें पर्यावरण (पानी केवल कोई वस्तु नहीं है, बल्कि एक ऐसा संसाधन है जो हमारे इकोसिस्टम में है, इकोसिस्टम का प्रबंधन हम कैसे करते हैं, इस पर ही यह निर्भर करता है कि हमें कितना पानी मिलेगा), पानी का औद्योगिक इस्तेमाल, जल प्रदूषण प्रबंधन, वर्षा-जल, नदियाँ, बाढ़ प्रबंधन, लघु सिंचाई, जल संरक्षण, संस्थागत परिचालन, जलवायु परिवर्तन, एजेंसियों में समन्वय और वास्तविक भूजल नियमन आदि शामिल हैं।

अभ्यास प्रश्न: “हर साल पड़ने वाले सूखे और आने वाली बाढ़ देश में जल संसाधनों के प्रबंधन और संरक्षण के तरीकों पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।“ कुशल जल प्रबंधन के लिये अपने सुझाव देते हुए कथन की तर्कसहित विवेचना कीजिये।

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