बदलती दुनिया की बागडोर किसके हाथ में? | 09 Oct 2017
भूमिका
हाल ही में संपन्न हुए 14वें भारत-यूरोपीयन संघ शिखर सम्मेलन के दौरान बी.टी.आई.ए. (Broad-based Trade and Investment Agreement – BTIA) के संबंध में भारत एवं यूरोपीयन संघ की व्यापार समझौता वार्ता में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। हालाँकि, अन्य बातों के अलावा इस शिखर सम्मेलन में जो एक अहम् बात सामने आई, वह यह कि दोनों पक्षों द्वारा अपनी व्यापारिक सौदेबाजी की शक्ति एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को पहले की अपेक्षा अब अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। हालाँकि, इन दोनों पक्षों द्वारा की गई इन पहलों में व्यापार से इतर भी कुछ महत्त्वपूर्ण सकारात्मक परिणाम निकलकर सामने आए हैं।
- 2016 में ब्रुसेल्स में आयोजित हुए पिछले शिखर सम्मेलन से अभी तक यूरोपीय संघ की स्थिति में बहुत कुछ बदल गया है।
- पिछले एक साल के अंदर ब्रेक्सिट, फाँस और जर्मनी में हुए कई महत्त्वपूर्ण चुनावों तथा यूरोपीयन संघ के साथ पूर्वी एवं पश्चिमी यूरोपीय देशों के उभरते मतभेदों के चलते स्थितियाँ पहले जैसी नहीं रह गई हैं।
- इसके अतिरिक्त अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप का नियुक्त होना और पश्चिम में इसके नेतृत्व के कारण बदलती स्थितियों ने यूरोपीयन संघ की महत्ता एवं स्थिति को काफी हद तक प्रभावित किया है।
"दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र"
- दिलचस्प बात यह है कि वैश्विक परिदृश्य में हो रहे इन सभी बदलावों के बावजूद यूरोपीयन संघ द्वारा भारत एवं यूरोपीयन संघ को "दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र" के रूप में इंगित किया गया है।
- जैसा कि हम सभी जानते हैं कि यूरोपीयन संघ दुनिया का सबसे बड़ा एकल बाज़ार है और इसके अंतर्गत 28 सार्वभौम लोकतांत्रिक देश शामिल हैं, अर्थात् यह स्वयं में संप्रभु नहीं है।
- पिछले साल आयोजित हुए शिखर सम्मेलन के अंत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों द्वारा यह मंसूबा प्रकट किया गया था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की अनिश्चित स्थिति के प्रकाश में यूरोपीय संघ को एक मज़बूत संघ के रूप में स्थापित किया जाए। इस वर्ष के शिखर सम्मेलन में भी इसी बात को महत्ता प्रदान की गई।
- इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत और यूरोपीयन संघ द्वारा "नियम-आधारित" अंतर्राष्ट्रीय आदेश एवं एक "बहुध्रुवीय" दुनिया के प्रति अपनी-अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि भी की गई।
- वस्तुतः अमेरिका द्वारा विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सौदों से इनकार करने के संबंध इन दोनों देशों का मत बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ध्यातव्य है कि कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा जहाँ एक ओर पेरिस समझौते से अपना समर्थन वापस लेने संबंधी नोटिस दाखिल किया गया, वहीं दूसरी ओर ईरान के साथ परमाणु समझौते को भी अप्रमाणित करार देने की इच्छा व्यक्त की गई। हालाँकि, यूरोपीयन संघ की इच्छा इस समझौते को आगे बढ़ाने की है।
- यदि अमेरिकी राष्ट्रपति के उक्त फैसलों पर गंभीरता से विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि इन सभी फैसलों के पीछे उनके पास कोई विशेष तर्क मौजूद नहीं थे। ये सभी फैसले केवल उनकी इच्छा पर लिये गए। जो संधि अथवा समझौता उन्हें पसंद आया वो अस्तित्व में है, जो नहीं आया उसे रद्द किया जा रहा है। स्पष्ट रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा इन फैसलों के विषय में कोई बुद्धिमत्ता प्रकट नहीं की गई है।
- वस्तुतः बहुध्रुवीयता का संदर्भ इस मान्यता से स्पष्ट होता है कि है विश्व में किसी एक राष्ट्र के हाथों में ही सारी सत्ता निहित नहीं है, बल्कि इसमें बहुत से देशों की बराबर की भागीदारी होती है। दूसरों शब्दों में कहा जाए तो वर्तमान विश्व में अकेला अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में मौजूद नहीं है, बल्कि इसे टक्कर देने के लिये रूस एवं चीन भी कतार में है।
आतंकवाद के संबंध में
- आतंकवाद के विषय में भारत-यूरोपीयन संघ द्वारा एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया। इससमें हाफिज़ सईद, दाऊद इब्राहिम, लश्कर-ए-तैयबा और आतंक के अन्य पर्यायों के खिलाफ "निर्णायक एवं ठोस कार्रवाई" की मांग की गई।
- दोनों पक्षों द्वारा आतंकवाद के संबंध में बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय सहयोग हेतु बातचीत आगे बढ़ाने पर भी सहमती व्यक्त की गई है।
व्यापार के संबंध में
- भारत एवं यूरोपीयन संघ के मध्य हाल के कुछ शिखर सम्मेलनों का केंद्र बिंदु बी.टी.आई.ए. निरंतर रूप से अपनी अनुपस्थिति के कारण विशेष चर्चा का कारण रहा है।
- हालाँकि, बी.टी.आई.ए. के संबंध में अभी तक जितनी भी वार्ताएँ हुई हैंं, उनके असफल होने का मुख्य कारण इसके अंतर्गत विदेशी निवेशकों की सुरक्षा के मुद्दे को शामिल किये जाने अथवा न किये जाने या फिर उन्हें किसी पृथक संधि के तहत शामिल किये जाने से संबंधित रहा है।
- भारत ने यूरोपीयन संघ के राज्यों के साथ-साथ बहुत सी अन्य द्विपक्षीय निवेश संधियों को समाप्त करने की अनुमति दी है, ताकि यह 2015 से एक मॉडल संधि के अंतर्गत इन्हें शामिल कर सकें।
कुशल श्रमिकों का मुद्दा
- इसके अतिरिक्त भारत द्वारा यूरोपीयन संघ और यूरोपीयन संघ में सेवाएँ प्रदान करने हेतु अस्थायी कुशल श्रमिकों के संबंध में विचार किये जाने के मुद्दे को भी शामिल किया गया।
- ध्यातव्य है कि इन अस्थायी कुशल श्रमिकों द्वारा ऑटोमोबाइल एवं मदिरा आदि हेतु अधिक-से-अधिक बाज़ार तक पहुँच सुनिश्चित किये जाने के संबंध में आंदोलन किये जा रहे हैं।
- यूरोपीयन संघ और अन्य विकसित देश इस विषय में आगे बढ़ने के बारे में अधिक इच्छुक नहीं हैं। यह मुद्दा इसलिये भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यूरोप में लोक-लुभावनवाद और संरक्षणवाद के मुद्दे अधिक चुनौतीपूर्ण मुद्दों के रूप में मौजूद हैं।
- अक्सर यह देखने को मिलता है कि भारत से विदेशों की ओर प्रस्थान करने वाले विकसित कुशल श्रमिकों को वेतन सीमा, योग्यता की मान्यता, वीज़ा फीस, सामाजिक सुरक्षा और ऐसे बहुत से मुद्दों के संबंध में अनेकों बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इस कारण दोनों देशों के मध्य यह मुद्दा और अधिक संवेदनशील रूप में मौजूद है।
“डाटा सुरक्षा प्रमाणीकरण” का मुद्दा
- इसके अतिरिक्त एक अन्य मुद्दा यूरोपीयन संघ द्वारा भारत को "डाटा सुरक्षित" प्रमाणीकरण नहीं देने का है। “डाटा सुरक्षित" प्रमाणीकरण प्राप्त होने का लाभ यह होता है कि इससे व्यक्तिगत डाटा के सीमा-पार हस्तांतरण में सुविधा होती है, विशेषकर आईटी उद्योग की कंपनियों द्वारा प्रदत्त सेवाओं के संबंध में यह बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
- भारत में अभी तक कोई एकल डाटा गोपनीयता कानून मौजूद नहीं है। इसके अतिरिक्त कुछ समय पहले ही भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा निजता के अधिकार के मुद्दे पर सुनवाई के दौरान विकास और निजता के बीच विद्यमान विरोधाभास के विषय में स्पष्टीकरण दिया गया है।
- दूसरी तरफ, यूरोपीयन संघ नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के मामले में बहुत अधिक सजग है। वहाँ उनके नागरिकों के डाटा के साथ ऑनलाइन क्या होता है, यह उनके लिये एक बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
- परंतु, भारत अभी इस दौड़ में बहुत पीछे है। हालाँकि, सरकार के लिये यूरोपीयन संघ द्वारा उचित प्रमाणीकरण प्राप्त करने हेतु निर्धारित मानकों को संरेखित करने का काम आसान साबित नहीं होगा।
दीर्घावधि में विचार करें तो
- वस्तुतः उपरोक्त विवरण के बाद यह तो स्पष्ट है कि भारत और यूरोपीयन संघ को अपने साझा मूल्यों के कारण विश्व में एक दूसरे के नेतृत्व वाली भूमिकाओं को समर्थन देने के साथ-साथ इसका स्वागत किया जाना चाहिये।
- इस संबंध में दूरदर्शिता का रुख अपनाने पर ज्ञात होता है कि यूरोपीयन संघ भारत का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार है। ऐसे में वैश्विक स्तर पर इसका समर्थन एवं सहयोग करना भविष्य में भारत के हितों के संदर्भ में बेहद लाभकारी साबित होगा।
- इसके अतिरिक्त भारत की ही तरह यूरोपीयन संघ भी चीन के बढ़ते राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभुत्व के कारण चिंतित है।
- वस्तुतः यूरोपीयन संघ वैश्विक बाज़ारों में चीन से आने वाली सस्ती स्टील को लेकर अधिक चिंतित है। पिछले कुछ समय से चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना को लेकर यूरोपीयन संघ में असामंजस्य की स्थिति नज़र आ रही है।
- ध्यातव्य है कि इस परियोजना के तहत चीन पूर्वी और मध्य यूरोप में बुनियादी ढाँचे के निवेश के माध्यम से अपनी स्थिति को मज़बूत करने का प्रयास कर रहा है। यह स्थिति भारत को यूरोपीयन संघ के साथ अपने संबंधों को और अधिक सुदृढ़ करने तथा इस विषय में गंभीरता से विचार करने के प्रति सजग करती है।
- वस्तुतः पड़ोस की बदलती स्थितियों को मद्देनज़र रखते हुए भारत को इस विषय में और अधिक दूरदर्शी होने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
पिछले वर्ष द्विपक्षीय वस्तुओं और सेवाओं के 100 अरब डॉलर के कारोबार के अतिरिक्त अभी भारत एवं यूरोपीयन संघ को व्यापार समझौते से बहुत फायदा उठाना है। वस्तुतः यह सिर्फ व्यापार के बारे में नहीं है, बल्कि भविष्य में यूरोपीयन संघ की बदलती स्थिति के मद्देनज़र भारत की स्थिति को सशक्त करने के संबंध में है। हालाँकि, अब वैश्विक परिदृश्य में बदलाव आ रहा है, नेतृत्व और साझेदारी हेतु भारत एवं यूरोपीयन संघ के लिये विकल्प धीरे-धीरे बनते जा रहे हैं, इसलिये इन दोनों पक्षों के लिये आपसी सहयोग बनाए रखना बेहद ज़रूरी है।