‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ विवाद और न्यायिक सुधार | 15 Jan 2018
भूमिका
- हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार मीडिया के ज़रिये देश से सीधा संवाद स्थापित किया है।
- उन्होंने उन तरीके के बारे में चिंता व्यक्त की जिनकी मदद से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायालय को प्रशासित किया जा रहा।
- दरअसल इस विवाद की जड़ है मुख्य न्यायाधीश की ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ (master of the roster) शक्ति।
- सच कहा जाए तो आज न्यायपालिका ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ विवाद ही नहीं बल्कि कई समस्याओं से जूझ रही है।
- बात चाहे जजों की नियुक्ति में अपारदर्शिता की हो या फिर बड़ी संख्या में लंबित पड़े मामलों की आज न्यायपालिका ऐसे दौर से गुज़र रही है, जहाँ उसकी भूमिका पहले से कहीं अधिक व्यापक है।
न्यायिक सुधारों का महत्त्व (importance of judicial reforms)
- एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, चपल व कुशल न्यायपालिका की किसी भी देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक औसत नागरिक का शासन के तीनों अंगों में से सर्वाधिक विश्वास न्यायपालिका में ही है।
- लेकिन हमारी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली बेहद धीमी और लगभग अक्षम हो चली है। अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने, कानून के शासन को बनाए रखने तथा सुशासन की व्यवस्था कायम रखने के लिये न्यायिक सुधारों पर अमल किये जाने की ज़रूरत है।
न्यायिक सुधारों की ज़रूरत क्यों?
- विलंबित न्याय:
⇒ गौरतलब है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय की गारंटी दी गई है।
⇒ आपराधिक मुकदमों के शीघ्र निपटान में होने वाला विलंब संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
⇒ अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने हेतु न्यायिक सुधारों को अमल में लाया जाना चाहिये। - न्यायाधीशों की अत्यधिक कम संख्या:
⇒ न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच चल रहे टकराव के कारण नए जजों की नियुक्ति नहीं हो पा रही है।
⇒ न्यायाधीशों की संख्या कम होने का प्रभाव यह देखा जा रहा है कि शीर्ष न्यापालिका से लेकर ज़िला न्यायालय तक बड़ी संख्या में मामले लंबित पड़े हुए हैं। - मुख्य न्यायाधीशों के लिये एक निश्चित कार्यकाल:
⇒ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की तुलना में भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल अत्यंत ही छोटा है।
⇒ दरअसल, कई अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया जा चुका है कि कार्यकाल की अधिकतम अवधि, उच्च दक्षता और बेहतर प्रदर्शन को सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
⇒ भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की हमेशा से यह शिकायत रही है कि उन्हें न्यायपालिका के लिये सुधारात्मक गतिविधियों को अंजाम तक पहुँचाने का पर्याप्त समय नहीं मिला।
⇒ अतः इस संबंध में सुधार किये जाने की महती आवश्यकता है। - जटिल एवं महँगी न्यायिक प्रक्रिया:
⇒ देश में न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत जटिल एवं महँगी है| यही कारण है कि एक बड़ा तबका जो कि आर्थिक तौर पर सशक्त नहीं है न्याय से वंचित रह जाता है।
⇒ न्यायिक सुधार इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि आर्थिक महत्त्व के मामलों में देर की वज़ह से देश की आर्थिक प्रगति भी बाधित होती है।
क्या सुनिश्चित करने की है ज़रूरत?
- संविधान की बुनियादी विशेषताओं के अनुरूप व्यावहारिक और प्रभावी सुधार।
- न्यायपालिका की जवाबदेही
- शीघ्र न्याय
- मुकदमेबाज़ी (litigation) के खर्चों में कटौती
- अदालतों में व्यवस्थित कार्यवाही
- न्यायिक व्यवस्था में विश्वास
- ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ विवाद का समाधान
इस संबंध में विधि आयोग की रिपोर्ट:
क्या है 'मास्टर ऑफ द रोस्टर' व्यवस्था?
- 'मास्टर ऑफ द रोस्टर' मुख्य न्यायाधीश के उस विशेषाधिकार को संदर्भित करता है, जिसके तहत वह मामलों की सुनवाई के लिये संवैधानिक पीठों का गठन करता है।
- जहाँ तक मामलों की सुनवाई और निर्णय लेने का प्रश्न है तो मुख्य न्यायाधीश समेत सभी जजों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं।
- हालाँकि जहाँ तक सर्वोच्च अदालत में प्रशासन का सवाल है मुख्य न्यायाधीश को ‘समकक्षों में प्रथम’ (first among the equals) कहा जाता है।
हाल ही में चर्चा में क्यों?
- विदित हो कि मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के लिये जजों द्वारा कथित तौर पर रिश्वत लिये जाने के मामले को लेकर दायर याचिका पर जस्टिस चेलामेश्वर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीत की एक पीठ न अपने आदेश में कहा था कि याचिका पर शीर्ष अदालत के पाँच वरिष्ठतम जजों की संवैधानिक पीठ को सुनवाई करनी चाहिये।
- हालाँकि, प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने जस्टिस चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ का आदेश उलट दिया और कहा कि कौन सी पीठ कब गठित की जानी चाहिये यह निर्णय केवल मुख्य न्यायाधीश ही ले सकता है।
'मास्टर ऑफ द रोस्टर' व्यवस्था की कमियाँ
अन्य देशों से तुलना:
- गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय में अभी 26 न्यायाधीश हैं, जो मुख्य रूप से दो बेंचों में बैठते हैं।
- वहीं अमेरिका में सभी 9 जज एक बेंच में बैठते हैं, जबकि इंग्लैण्ड में 12 जज 5 पैनलों में बैठते हैं।
- अमेरिका में यह ज़रूरत ही नहीं पड़ती की कौन सी बेंच किन मामलों की सुनवाई करेगी क्योंकि बेंच ही एक है।
- वहीं इंग्लैण्ड की बात करें तो यहाँ मुख्य न्यायाधीश की मामलों की चयन के शक्ति काफी सीमित है।
- हमारे भारत में न तो अमेरिका की तरह एक सिंगल बेंच है और न ही इंग्लैण्ड की तरह मुख्य न्यायाधीश के सीमित अधिकार।
- दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को दो अन्य महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक देशों से सीख लेते हुए “मास्टर ऑफ द रोस्टर” की इस व्यवस्था में अपेक्षित सुधार करने होंगे।
मुख्य न्यायाधीश की शून्य जवाबदेहिता:
- एक ऐसी वैधानिक व्यवस्था जिसमें कि:
⇒ अधिकांश मामलों की सुनवाई एक बड़ी बेंच द्वारा किये जाने की बजाय अलग-अलग जजों द्वारा की जाती है।
⇒ जहाँ पेंडिंग पड़े मामलों की संख्या लाखों में है।
⇒ जहाँ जजों का व्याख्यात्मक दर्शन अलग-अलग है। - ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ की अपनी शक्ति के प्रयोग से मुख्य न्यायाधीश “समकक्षों में प्रथम” की व्यवस्था से आगे निकलते नज़र आते हैं। सबसे बढ़कर यह कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है।
- मान लिया जाए की किन्हीं परिस्थितियों में मुख्य न्यायधीश के ऊपर ही आरोप हों और वह स्वयं के मामले की सुनवाई के लिये जजों का एक पैनल बना रहा है।
- यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ तब तक शिकायत दर्ज़ नहीं कराई जा सकती, जब तक कि सरकार की अनुसंसा पर सुप्रीम कोर्ट का ही कोई जज मुहर नहीं लगा देता फिर भी निष्पक्षता सुनिश्चित करने हेतु ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ पद्धति में सुधार आवश्यक है।
मामले से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय
- जहाँ तक किसी पीठ के गठन के अधिकार का प्रश्न है तो वर्ष 1997 के राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद (State of Rajasthan vs. Prakash Chand) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि:
- उच्च न्यायालयों की प्रशासनिक नियंत्रण संबंधी शक्तियाँ केवल मुख्य न्यायाधीश में ही निहित हैं।
- मुख्य न्यायाधीश समकक्षों में प्रथम है और उसे अकेले ही अदालत की न्यायपीठों के गठन और मामले आवंटित करने का विशेष अधिकार है।
आगे की राह
- इसमें कोई शक नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश पीठ गठित करने के लिये स्वतंत्र है। लेकिन कहा जा रहा है कि मेडिकल कॉलेज मान्यता मामले में कई ऐसे टेप हैं जिनमें शीर्ष न्यायपालिका से जुड़े व्यक्तियों के नाम आ सकते हैं।
- ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को जस्टिस चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ का आदेश पलटने की बजाय गरिमा दिखाते हुए अदालत की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देनी चाहिये थी।
- साथ ही ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ विवाद के अलावा अन्य न्यायिक सुधारों पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।
- हमें यह ध्यान रखना होगा कि कानून के शासन का अर्थ ही यह है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के ऊपर वरीयता नहीं दी जा सकती और मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय से जनता का विश्वास खत्म हो जाना अत्यंत ही चिंताजनक स्थिति होगी।