भारतीय अर्थव्यवस्था
खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते दाम चिंता का कारण
- 17 Dec 2018
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संदर्भ
सितंबर 2016 से नवंबर 2018 तक कुल महीने होते हैं 27 यानी सवा दो साल की अवधि। इन 27 महीनों में देश में उपभोक्ता खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति की दर सामान्य मुद्रास्फीति की दर से लगातार कम बनी हुई है। बेशक महँगाई के मोर्चे पर सरकार के लिये यह राहत-भरी खबर है, लेकिन खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार गिरावट ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिये निस्संदेह चिंता का एक बड़ा कारण है।
गौरतलब है कि इन 27 महीनों में से 5 महीने ऐसे रहे जब आधिकारिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में वार्षिक वृद्धि नकारात्मक रही। इसका अर्थ यह है कि हमें सब्जियों, दालों, चीनी या अंडे आदि के लिये एक साल पहले की तुलना में कम दाम चुकाने पड़ रहे हैं।
थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक
देश की खुदरा और थोक महँगाई को मापने वाले इन दोनों सूचकांकों के आँकड़े हर महीने जारी होते हैं, लेकिन इन दोनों सूचकांकों की आधारभूत जानकारी न होने की वज़ह से इन्हें समझने में कठिनाई होती है। मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिये थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दो महत्त्वपूर्ण पैरामीटर हैं।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आँकड़ों के ज़रिये सरकार को महँगाई की मौजूदा स्थिति का पता चलता है। रिज़र्व बैंक ने भी अप्रैल 2014 से अपनी मौद्रिक नीति का मुख्य निर्धारक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को बना लिया है। विश्व के अधिकांश देश मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का ही इस्तेमाल करते हैं।
भारत में नीतियाँ बनाने में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महँगाई दर का इस्तेमाल किया जाता रहा है। थोक बाज़ार में वस्तुओं के समूह की कीमतों में सालाना कितनी बढ़ोतरी हुई है, इसका आकलन महँगाई के थोक मूल्य सूचकांक के ज़रिये किया जाता है। भारत में इसकी गणना तीन तरह की महँगाई दर- प्राथमिक वस्तुओं, ईंधन और विनिर्मित वस्तुओं की महँगाई में हुई कमी-तेज़ी के आधार पर की जाती है।
बन रहे हैं अपस्फीति जैसे हालात
सुनने में यह अजीब लग सकता है, लेकिन सच यही है कि आज देश में सरकार की सबसे बड़ी चिंता खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते हुए दामों को थामने की है। नवंबर महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी रिटेल महँगाई दर 17 महीनों के निचले स्तर 2.33% पर रही, जो एक महीना पहले 3.31% थी। इस गिरावट का प्रमुख कारण विभिन्न आवश्यक खाद्य पदार्थों के मूल्य में कमी होना है। एक साल पहले की तुलना में खाद्य पदार्थों के दामों में 6.96% की भारी कमी आई है। खाद्य पदार्थों के मूल्यों में लगातार आ रही इस प्रकार की कमी से लगभग ‘अपस्फीति’ जैसी परिस्थितियाँ बन रहीं हैं, जो भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई।
क्या है अपस्फीति (Deflation)?: अपस्फीति की स्थिति मुद्रास्फीति से ठीक उल्टी होती है। मुद्रास्फीति में वस्तुओं के दामों में वृद्धि होती है, जबकि अपस्फीति की स्थिति में वस्तुओं के दाम लगातार कम होते जाते हैं। इसके राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं। आर्थिक प्रभावों में इसका असर तब स्पष्ट देखने को मिलता है, जब मुद्रास्फीति को लेकर रिज़र्व बैंक के अनुमानों और वास्तविक अनुमानों में अंतर सामने आता है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार कमी की वज़ह से कृषि क्षेत्र में असंतोष देखने को मिलता है।
मांग और आपूर्ति का सिद्धांत
मांग कम और उत्पादन अधिक होने की वज़ह से किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिल पाता। खाद्य पदार्थों की कीमतों में कमी की एक बड़ी वज़ह इनका देश में बढ़ता उत्पादन और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कीमतों का कम होना है। इससे देश से होने वाले कृषि निर्यात में भी कमी आ जाती है, जबकि देश में होने वाले इनके आयात का खतरा बराबर बना रहता है। इसे एक उदाहरण की सहायता से समझने का प्रयास करते हैं- हाल ही में महाराष्ट्र में प्याज़ की बंपर फसल हुई। इतना अधिक उत्पादन हुआ कि कीमतें रसातल में चली गईं और किसान अपनी उपज को सड़कों पर फेंकने या औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हो गए। उनके उत्पादन की लागत भी नहीं निकल पाई। साथ ही इससे ग्रामीण मांग में भी कमी आती है और भूमिहीन मज़दूरों पर इसका बेहद विपरीत प्रभाव पड़ता है।
तरलता: इसी के साथ तरलता (Liquidity) का पहलू भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। भारत में कृषि उपज का व्यापार मुख्यतः नकदी पर आधारित है। इसका सबसे बढ़िया उदहारण 2016 में विमुद्रीकरण के दौर में देखने को मिला। तब बाज़ार में नकदी की कमी हो गई थी तो किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिलना तो दूर, खरीदार तक मिलने मुश्किल हो गए थे। अर्थशास्त्र में सबसे काम का और सबसे सरल सिद्धांत ऊपर बताया गया मांग और आपूर्ति का सिद्धांत है। मांग ज़्यादा हो और आपूर्ति कम, तो महँगाई बढ़ती है। देश में गेहूं-चावल की मांग बढ़ रही है, लेकिन दाम नहीं बढ़ पा रहे हैं। हालत यह है कि अपनी उपज के दाम बढ़वाने के लिये किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है। दूसरी ओर, जब कभी किसानों को उनकी उपज का अच्छा दाम मिलने के हालात बनते भी हैं, तो देश का कृषि विपणन सिस्टम एकजुट होकर हरसंभव यह प्रयास करता है कि किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत न मिल सके।
शहरी वर्ग को मिलती है राहत
खाद्य पदार्थों की कीमतें कम होने से एक ओर जहाँ ग्रामीण या कृषि अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता है, वहीं शहरों में रहने वाले निम्न-मध्यम वर्ग को इससे राहत मिलती है। सीमित आमदनी के कारण वस्तुओं के दाम कम होने से उन्हें अन्य मदों पर खर्च करने की सुविधा मिल जाती है। दूसरी तरफ, वस्तुओं के दाम कम होने से रिज़र्व बैंक को भी ब्याज दरें कम करने में आसानी रहती है।
क्या करना होगा?
- सबसे पहले तो यह ध्यान में रखना होगा कि कृषि क्षेत्र से प्राप्त आय ही किसानों की आजीविका का प्रमुख स्रोत है। इसलिये आय केंद्रित बिंदु को ध्यान में रखते हुए कृषि क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव किये जाने बेहद ज़रूरी हैं।
- इनके तहत उच्च उत्पादकता सुनिश्चित करते हुए कृषि लागत में कमी करने और किसानों को उनके उत्पादों का पारिश्रमिक मूल्य दिलाये जाने संबंधी लक्ष्यों पर ध्यान देना होगा।
- खरीद प्रक्रिया और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) नेटवर्क को सुव्यवस्थित बनाने पर विशेष ज़ोर देना होगा।
- ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें किसान अपनी उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत या उससे अधिक पर MSP प्राप्त करने के साथ-साथ अधिकतम लाभ भी हासिल कर सकें।
- कृषि क्षेत्र में विशेषकर छोटे एवं सीमांत किसानों की मुश्किलें कम करने के लिये आमदनी बढ़ाने के अन्य उपाय भी करने की ज़रूरत है।
- उत्पादन, बाज़ार और मूल्यों से जुड़े जोखिम के चलते किसानों की अस्थिर आय के मद्देनज़र किसानों की आय बढ़ाने के ऐसे उपाय करने होंगे जो लंबे समय तक प्रभावकारी रह सकें।
- घटती श्रम-शक्ति और बढ़ती लागत की वज़ह से कृषि कम लाभदायक और गैर-लाभकारी होती जा रही है। ऐसे में कृषि उपजों के प्रसंस्करण और उनके मूल्य-वर्द्धन में भी किसानों की आय बढ़ाने की काफी संभावनाएं हैं।
किसानों में व्याप्त असंतोष इस बात का संकेत है कि हम जिस विकास की बात करते हैं उसका संबंध गाँवों से न होकर बाज़ार के उस गणित से है, जो उत्पादन और मूल्य के बीच अपनी जगह बनाता है। इससे विकास की रफ्तार का अंदाज़ा तो लगता है, लेकिन उसके प्रभाव का कहीं कोई अता-पता नहीं होता। यह उलझन तब और बढ़ जाती है जब देश की 60 प्रतिशत कृषि आधारित व ग्रामीण जनता को इसका कोई आभास ही नहीं होता और यह विकास उन्हें अपनी कृषि उपज के दामों में दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलता।