बुरे बैंक के उपाय से इतर अन्य विकल्पों की आवश्यकता | 04 Mar 2017
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बैंकिंग प्रणाली में संपत्ति की गुणवत्ता भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष एक गंभीर चुनौती के रूप में उभरती जा रही है| यही कारण है कि इस समस्या से निपटने के लिये ‘बुरे बैंक’ की अवधारणा पर बहुत अधिक बल दिया जा रहा है| हाल ही में सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने भी भारत में बुरे बैंक की स्थापना किये जाने पर बल दिया है| इसके साथ-साथ आरबीआई (Reserve Bank of India - RBI) एक डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी परिसम्पत्ति प्रबंधन कंपनियों की संरचना में आवश्यक परिवर्तनों को वास्तविक रूप प्रदान करने पर ज़ोर दिया है ताकि ‘बुरी परिसम्पत्तियों’ की समस्या से बचा जा सके| इतना ही नहीं इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस समस्या से पार पाने के लिये ‘पारा’ (Public Sector Asset Rehabilitation Agency - PARA) के गठन का विचार प्रस्तुत किया है|
प्रमुख बिंदु
- वस्तुतः इस प्रकार की किसी एजेंसी की स्थापना का विचार न तो नया है और न ही अप्रासंगिक|
- ध्यातव्य है कि सितम्बर 2016 में सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ Gross Non-Performing Assets - NPAs) अब तक के सबसे उच्च स्तर 9.1% पर पहुँच गई थी| सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से अधिकतर परिसंपत्तियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से संबद्ध हैं|
- इसके अतिरिक्त कुछ वर्ष पहले इस संबंध में आरबीआई द्वारा किये गए विशेष परिवर्तनों का भी कोई वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुआ है| यही कारण है कि देश के नीति-निर्माताओं को ‘बुरे बैंक’ की संकल्पना के विषय में विचार करना पड़ रहा है|
- गौरतलब है कि आर्थिक सर्वेक्षण में प्रस्तावित ‘पारा’ की संकल्पना के अंतर्गत पेशेवरों द्वारा वाणिज्यिक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य किया जाएगा|
- इस एजेंसी के द्वारा कम से कम समय में अधिक से अधिक परिसंपत्तियों के संग्रहण पर बल दिया जाएगा, हालाँकि इसके अंतर्गत सरकार की हिस्सेदारी केवल 49% की ही होगी|
- आरबीआई के डिप्टी गवर्नर आचार्य द्वारा परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों के संबंध में दो मॉडल की संकल्पनाओं के विषय में प्रकाश डाला गया है| ये संकल्पनाएँ इस प्रकार हैं-निजी परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी (Private Asset Management Company) तथा राष्ट्रीय परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी (National Asset management Company) |
- हालाँकि, एनपीए की समस्या से निपटने के लिये बहुत से देशों ने अनेकों सफल प्रयास किये हैं| उदाहरण के तौर पर, वर्ष 1990 के आर्थिक संकट के उपरांत स्वीडन में स्थापित की गई परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों के पश्चात् इस समस्या का सार्थक समाधान निकालने में सफलता हासिल हुई है|
- हालाँकि, इस सन्दर्भ में स्वीडन की सफलता का राज़ इस देश की राजनैतिक एकता थी|
- इसके अतिरिक्त एशियाई आर्थिक संकट के उपरांत कोरिया बहुत बुरी तरह से कर्जदार हो गया था तत्पश्चात् कोरियाई सरकार ने परिसम्पत्ति प्रबंधन कंपनियों की स्थापना की तथा इसका परिणाम भी सकारात्मक रहा|
- हालाँकि बैंक निवेश प्रोग्रामों को टीएआरपी (Troubled Asset Relief Program – TARP) के तहत वर्ष 2008 के आर्थिक संकट के उपरांत लागू किया गया|
- भारत यदि चाहे तो उपरोक्त उदाहरणों से बहुत कुछ सीख सकता हैं| हालाँकि इन उपायों को लागू कर पाना काफी चुनौतीपूर्ण कार्य होगा|
- स्पष्ट है कि इस समस्या का समाधान करने के लिये बैंकों द्वारा परिसम्पत्तियों को परिसम्पत्ति प्रबंधन कंपनियों अथवा पुनर्निर्माण कंपनियों के लिये और अधिक आकर्षक बनाना होगा|
- हालाँकि ‘बुरे ऋणों’ को बैलेंस शीट के रूप में उल्लिखित करने से जाँच कंपनियों (Investigative Agencies) का ध्यान इस ओर अधिक जाएगा जिसका खामियाज़ा ऋण ग्रस्त कम्पनियों के साथ-साथ बैंकों को भी उठाना पड़ेगा|
- इसके अतिरिक्त सरकार भी स्वयं को कुछ विशेष उद्योगपतियों के प्रति सहिष्णु होने के टैग से दूर रखना चाहेगी, ताकि इसकी छवि को कोई नुकसान न पहुँचे|
- यही कारण है कि इस समस्या के संबंध में एक राज्य-आधारित एजेंसी की स्थापना करना कोई आसान काम नहीं होगा|
- उल्लेखनीय है कि राजकोषीय संसाधनों की दिशा में किसी भी प्रकार का परिवर्तन आने से सरकार के पूँजीगत व्यय पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा| स्पष्ट रूप से इससे निजी क्षेत्र की निवेश दर कमज़ोर होगी, जिसका परिणाम विकास दर के प्रभावित होने के रूप में सामने आएगा|
- यही कारण है कि देश की राजनैतिक एवं आर्थिक जटिलता को मद्देनज़र रखते हुए मौजूदा परिस्थितियों में इस समस्या का समाधान कर पाना आसान नहीं है|
- इस समस्या का एक प्रमुख कारण यह भी है कि बहुत से क्षेत्रों पर सरकारी स्वामित्व होने के कारण बैंकों को ‘बुरे ऋणों’ को लिखित रूप में संयोजित करने, पूँजी के प्रवाह को बढ़ाने तथा आगे बढ़ने की अनुमति नहीं होती है|
- इसके इतर यदि कोई व्यापारिक निर्णय गलत हो जाता है तो शेयरधारकों को उसका नुकसान सहन बाध्यकारी है| और यदि ऐसा कुछ सरकारी स्वामित्व वाले क्षेत्रों के साथ होता है तो नुकसान का सारा भार करदाताओं के ऊपर आ जाता है|
निष्कर्ष
स्पष्ट है कि बैंकिंग व्यवस्था में तनाव को कम करने के तरीके हमेशा ही विवाद का कारण बने रहते हैं| अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि बैंकों के साथ-साथ वाणिज्यिक उद्यमों तथा करदाताओं के वित्तीय बोझ को कम किया जाए, क्योंकि यदि समय रहते इस समस्या का समाधान नहीं किया जाता है तो इसका प्रभाव देश की विकास दर पर पड़ेगा| हालाँकि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस संबंध में एक व्यापक सुधार की नींव रखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण करने का मार्ग खोल दिया है जो कि स्वयं में एक बहुत साहसी एवं प्रशंसनीय कदम है|