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भारतीय अर्थव्यवस्था

क्या ऋण माफी ही एकमात्र समाधान है?

  • 14 Nov 2017
  • 13 min read

भूमिका

आज़ादी के बाद से भारत की कृषि नीति के प्राथमिक उद्देश्यों में से एक उद्देश्य संस्थागत ऋण तक देश के सभी किसानों की पहुंच को बेहतर बनाना और अनौपचारिक ऋण पर उनकी निर्भरता को कम करना रहा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ऋण के अनौपचारिक स्रोत अधिकतर अधिक ब्याज वाले होते हैं। यही कारण है कि भारत सरकार ने वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से कृषि क्षेत्र में पर्याप्त ऋण के प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिये सुधारात्मक प्रयास आरंभ किये। इन प्रयासों के अंतर्गत सरकार द्वारा न केवल क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई बल्कि नाबार्ड (National Bank for Agriculture and Rural Development) जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था को भी स्थापित किया गया। इसके अतिरिक्त वर्ष 1998 में किसान क्रेडिट कार्ड नामक एक योजना भी शुरू की गई। जैसे-जैसे देश विकास की राह में सशक्त होता गया वैसे-वैसे ही कृषि क्षेत्र में भी योजनाओं और नई-नई पहलों का दौर आता गया। कृषि क्षेत्र में बहुत सी योजनाएँ जैसे प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आदि शुरू की गई। 

  • कृषि समस्या नई पहलों या योजनाओं को आरम्भ करने भर से समाप्त होती तो कब की हो जाती। परन्तु, देश में कृषि क्षेत्र की हालत देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि यहाँ कोई विशेष सुधार हुए हैं। आज भी देश का किसान आत्महत्या करने पर विवश है. उसे अपनी उपज का सही ,मूल्य प्राप्त नहीं हो पा रहा है. सही व्य्क्लती तक सहायता पहुँच नहीं पा रही है। ऐसी बहुत सी समस्याएँ हैं जिन के विषय में न केवल विचार किये जाने की आवश्यकता है बल्कि इस दिशा में प्रभावी कदम भी उठाए जाने चाहिये।
  • गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में कृषि क्षेत्र में संलग्नित संस्थागत ऋण में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है। वर्ष 2014-15 में संस्थागत ऋण मात्र 8 लाख करोड़ रूपए था जबकि वर्ष 2017-18 में यह बढ़कर ₹ 10 लाख करोड़ हो गया। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार, इनमें से 3.15 लाख करोड़ रुपए पूंजीगत निवेश हेतु जबकि शेष फसल ऋणों के लिये प्रदान किये गए। वस्तुत: वास्तविक ऋण प्रवाह के अंतर्गत तय लक्ष्य को पार कर लिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कृषि सकल घरेलू उत्पाद के लिये संस्थागत ऋण का हिस्सा वर्ष 1999-2000 के 10% से बढ़कर वर्ष 2015-16 में तकरीबन 41% हो गया है।

ऋण माफी हेतु मांग

  • जैसा की हम जानते हैं कि संस्थागत कृषि ऋण का प्रवाह बढ़ा है, इसके बावजूद हाल के कुछ महीनों में कृषि ऋण माफी योजना के चलते इसकी गति में धीमापन दर्ज़ किया गया है। स्पष्ट रूप से इससे कृषि विकास की राह में चुनौतीयाँ उत्पन्न हो रही हैं। 
  • ध्यातव्य है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 87 लाख किसानों के लिये 0.36 लाख करोड़ रुपए की ऋण माफी का वादा किया गया है, जबकि महाराष्ट्र सरकार द्वारा 89 लाख से अधिक किसानों हेतु 0.34 लाख करोड़ रुपए की ऋण माफी की घोषणा की गई है। इसी क्रम में पंजाब,  कर्नाटक सहित देश के अन्य राज्यों में भी ऋण माफी की मांग तेज़ी से बढ़ रही है। 
  • ऋण माफी के संबंध में सबसे गंभीर बहस वाला मुद्दा यह है कि क्या किसानों को सब्सिडी वाली ब्याज  दर पर ऋण प्रदान किया जाना चाहिये या किसानों के कल्याण में वृद्धि करने के लिये ऋण में छूट दी जानी चाहिये। 
  • इस संबंध में वैश्विक स्तर पर आयोजित एक अध्ययन से प्राप्त जानकारी में यह संकेत मिलता है कि अधिक से अधिक किसानों की औपचारिक ऋण तक पहुँच होने से न केवल कृषि उत्पादकता बढ़ती है बल्कि घरेलू आय में भी वृद्धि होती है। 
  • हालाँकि, भारत में ऐसे परिणाम प्राप्त नहीं हुए है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहाँ अक्सर राजनीतिक निर्णय पर भावनात्मक धारणा हावी हो जाती है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (International Food Policy Research Institute) के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर तकरीबन 48% कृषि परिवारों को किसी भी स्रोत से कोई ऋण-लाभ प्राप्त नहीं हुआ है। 
  • ऋण लेने वाले घरों में तकरीबन 36% द्वारा अनौपचारिक स्रोतों से (सूदखोरों आदि से लिये जाना वाला ऋण) ऋण लिया गया है।  इस प्रकार के ऋणों पर सूदखोरों द्वारा प्रति वर्ष 25% से 70% की दर से ब्याज वसूला जाता है। 
  • इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष  2012-13 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण-स्थिति आकलन सर्वेक्षण (National Sample Survey-Situation Assessment Survey (schedule 33) द्वारा प्रदत्त जानकारी से यह पता चलता है कि गैर-संस्थागत उधारकर्त्ताओं की तुलना में  संस्थागत उधारकर्त्ताओं ने खेती से (17%) अधिक लाभ कमाया है। 
  • गरीबी को कम करने में सीमांत एवं गरीब किसान परिवारों की सहायता के संदर्भ में खेत के आकार और प्रति व्यक्ति खपत व्यय के बीच कायम नकारात्मक संबंध भी औपचारिक क्रेडिट के महत्त्व को रेखांकित करता है। 
  • वास्तविकता यह है कि औपचारिक संस्थागत ऋण तक पहुँच न केवल किसानों की जोखिम-सहन करने की क्षमता को बढ़ाती है बल्कि यह उन्हें जोखिम युक्त उद्यमों एवं निवेशों को अपनाने के लिये भी प्रेरित करती है जो किसान की आय में वृद्धि करने में अहम् भूमिका निभा सकती हैं।
  • एन.एस.एस. की अनुसूची 18.2 (ऋण और निवेश) के अंतर्गत कृषि में वृद्धि  हेतु ग्रामीण परिवारों द्वारा किये जाने वाले निवेश में वर्ष 2002 से 2012 के बीच प्रतिवर्ष 9.15% की उच्च दर से वृद्धि हुई है, जबकि 63.4% कृषि निवेश संस्थागत ऋण के माध्यम से किया गया है। 
  • संस्थागत ऋण के माध्यम से कृषि क्षेत्र में भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों की निवेश मांग भी क्रमशः 40.6%, 52.1% और 30.8% के स्तर पर पहुँच गई है। 

ये प्रयास किसानों के कल्याण हेतु प्रतीत नहीं होते है?

  • उक्त विवरण से ज़ाहिर है कि किसानों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ब्याज की सब्सिडी दर की नीति के दायरे से बाहर है। ऐसी स्थिति में ये किसान संबंधित राज्य सरकारों द्वारा घोषित ऋण माफी योजनाओं के दायरे से भी स्वत: ही बहार हो जाते हैं। 
  • इस विसंगति को केवल तभी संशोधित किया जा सकता है जब कृषि बाज़ार में कृषि श्रमिकों, सीमांत और छोटे भूमि धारकों को शामिल करने के लिये क्रेडिट बाजार का विस्तार किया जाए। इसलिये यह कहना गलत न होगा कि इस संबंध में जितना ज़रुरी बैंकों और वित्तीय समावेशन पर ध्यान देना है उतना ही ज़रुरी क्रेडिट पॉलिसी की समीक्षा करना भी है।
  • किसानों के कल्याण के संदर्भ में दूसरी बड़ी समस्या यह है कि किसानों की लॉबी के साथ-साथ सरकार को भी ऋण माफी के क्रम में होने वाले घोटाले से सतर्क रहने की आवश्यकता है, क्योंकि ऋण माफी जैसे निर्णय भले ही किसानों को तत्काल ऋण चुकाने की समस्या से राहत प्रदान करते हों, लेकिन ये निर्णय लंबे समय तक किसानों के कल्याण हेतु योगदान करने में विफल साबित होते हैं।
  • इसका मुख्य कारण यह है कि किसानों की ऋण संबंधी आवश्यकता केवल कृषि कार्यों से संलग्नित नहीं है बल्कि कई मामलों में किसान द्वारा इन ऋणों का उपयोग गैर-कृषि उद्देश्यों के लिये भी किया जाता है। इतना ही नहीं इनमें आवश्यकतानुसार वृद्धि भी होती रहती है। यदि वाकई सरकार किसानों को क्षतिपूर्ति प्रदान करने के संबंध में गंभीर है तो इसे किसानों को फसल बीमा और बेहतर विपणन प्रणालियों के माध्यम से निरंतर प्राकृतिक आपदाओं एवं कीमतों में आने वाली अस्थिरता से बचाव हेतु ईमानदारी से प्रयास करने चाहिये।
  • किसानों की आय के दोहरीकरण पर बनी एक समिति की रिपोर्ट में कृषि अनुसंधान और प्रौद्योगिकी, सिंचाई और ग्रामीण ऊर्जा के साथ-साथ, कम विकसित पूर्वी राज्यों एवं अधिक बारिश से पीड़ित राज्यों के संबंध में ठोस कदम उठाने तथा निवेश में वृद्धि करने का सुझाव दिया गया है। 
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022-23 तक देश के 20 राज्यों हेतु अतिरिक्त पूंजी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये तकरीबन 2.55 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता (जिसमें सिंचाई और ग्रामीण बुनियादी ढाँचे हेतु राज्य सरकारों को ₹ 1.9 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी, जबकि ₹ 0.645 लाख करोड़ किसानों हेतु निर्धारित किये गए हैं) का अनुमान लगाया गया है। 
  • इसी क्रम में अगले सात सालों में सार्वजनिक और निजी निवेश दर में भी क्रमशः 14.8% और 10.9% की दर से वृद्धि होने की आशा व्व्यक्त की गई है। 

निष्कर्ष

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि ऋण माफ़ी जैसे फैसले जो न केवल वास्तविकता में अनुत्पादक होते हैं, बल्कि वह राज्य के वित्तपोषण पर भी प्रतिकूल रूप से प्रभाव डालते हैं। ऐसे निर्णयों से जहाँ एक ओर  बैंकों में एन.पी.ए. की समस्या बढ़ती है बल्कि इससे वर्ष 2022-23 तक किसानों की आय को दोगुना करने के सरकार के व्यापक लक्ष्य पर भी प्रतिकूल असर हो सकता है। अत: सरकार को किसान-कल्याण हेतु केवल ऋण माफी के घेरे से निकलकर दूसरे विकल्पों पर भी गौर करने की आवश्यकता है। मात्र ऋण माफी किसानों की समस्त समस्याओं का हल तो नहीं है। इसके लिये सरकार द्वारा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना एवं प्रधानमंत्री सिंचाई योजना जैसे प्रभावशाली उपायों के कार्यान्वयन एवं प्रबंधन पर अधिक बल देना होगा, ताकि सारे देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूखा न रहे।

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