विकसित एवं विकासशील देशों के मध्य असमानता का स्तर | 23 May 2017
संदर्भ
उल्लेखनीय है कि पेरिस जलवायु समझौते पर दिसंबर 2015 में हस्ताक्षर किये गए थे| यह वायुमंडल में हरित गृह गैसों के प्रभाव को सीमित करने के लिये विभिन्न देशों द्वारा किया गया एक प्रयास था| इस समझौते के लिये आयोजित बैठक से पूर्व विभिन्न देशों ने अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ व्यक्त कीं जिन्हें जलवायु की भाषा में “राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान” (Nationally Determined Contributions –NDCs) के रूप में संदर्भित किया गया| ये कुछ ऐसे प्रभाशाली कदम थे जिनकी आवश्यकता वर्तमान समय में प्रत्येक देश को है| ध्यातव्य है कि नवंबर 2016 में हुए कोप-22 (Conference of the Parties) सम्मेलन में पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के विषय में विचार-विमर्श किया गया था|
महत्त्वपूर्ण तथ्य
- सूचीबद्ध किये गए 165 देशों में से लगभग तीन-चौथाई देशों ने वित्त और तकनीकी सहायता प्राप्त होने के कारण इस समझौते का सशर्त क्रियान्वयन किया| ये देश इसके क्रियान्वयन के लिये विकसित औद्योगिक देशों से मिलने वाली सहायता पर निर्भर थे|
- दरअसल, यह माना गया कि यदि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित सभी योगदानों का उचित तरीके से क्रियान्वयन नहीं किया गया तो पृथ्वी के तापमान में औद्योगीकरण के पहले के तापमान की अपेक्षा 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी| अतः मुख्य बल इस बात पर दिया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित सभी योगदानों का उचित क्रियान्वयन होना चाहिये तथा इसके लिये आवश्यक समर्थन भी उपलब्ध कराया जाना चाहिये ताकि इस सन्दर्भ में विभिन्न देशों के मध्य विश्वास मज़बूत हो सके| इसके अतिरिक्त, भविष्य के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये देशों का उचित मार्गदर्शन भी किया जाना चाहिये| इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के लिये बनाई गई कोई भी प्रक्रिया विकसित देशों के समर्थन के बिना प्रभावी नहीं होगी|
- विदित हो कि विभिन्न क्षेत्रों की ऊर्जा दक्षता में सुधार करना और नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार करना आदि ऐसी आवश्यक गतिविधियाँ हैं जो कार्बन को न्यूनतम स्तर तक लाने में सहायक सिद्ध होंगी| लेकिन, साथ ही देशों को इस बात से भी अवगत होना होगा कि सतत विकास के लिये अग्रिम पूंजी निवेश महत्त्वपूर्ण है और इसके अभाव में अत्यधिक गरीब देशों के पास नाममात्र के ही विकल्प शेष रह जाते हैं|
- हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा लिये गए नीतिगत निर्णय यह संकेत देते हैं कि अमेरिका अपने एन.डी.सी. लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं होगा| अगर एसा हुआ तो यह पर्यावरण के लिये एक बड़ा खतरा होगा| हालाँकि, एक अन्य समस्या यह है कि ट्रम्प प्रशासन के अंतर्गत वाशिंगटन अन्य देशों को उनके एन.डी.सी. के क्रियान्वयन हेतु आवश्यक सहायता उपलब्ध नहीं करा रहा है| अतः न केवल अमेरिका अपितु अन्य देश भी अमेरिका के समर्थन के बिना क्रियान्वयन संबंधी प्रक्रिया में असफल हो जाएंगे|
ग्रीन क्लाइमेट फंड (green climate fund –GCF)
- ग्रीन क्लाइमेट फंड एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था है जिसे वर्ष 2010 में कानकुन में हुए कोप-16 में स्थापित किया गया था| अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत विकसित अर्थव्यवस्थाओं को सार्वजनिक और निजी स्रोतों के माध्यम से वर्ष 2020 तक इसमें 100 बिलियन डॉलर की सहायता जमा करनी होगी, अब इस समयावधि को बढ़ाकर वर्ष 2025 कर दिया गया है| वर्तमान में इस फंड में अनेक विकसित देशों द्वारा 10 बिलियन डॉलर दिये जा चुके हैं| साथ ही, इन देशों ने ऐसी परियोजनाओं के लिये फंड देंने की प्रतिबद्धता भी जाहिर की है जिससे हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में कमी आएगी तथा जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान किया जा सकेगा|
- भारत ने वर्ष 2030 तक जलवायु कार्यों के लिये 2.5 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता को रेखांकित किया था| यह स्पष्ट है कि सबसे कम विकसित देश, छोटे द्वीपीय राष्ट्र और अफ्रीकी देश वैश्विक तापन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, जबकि ये हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिये बहुत कम योगदान कर सकते हैं| अतः इस प्रकार के देशों को प्रथमिकता दी जानी चाहिये|
- अप्रैल 2017 में ग्रीन क्लाइमेट फंड के बोर्ड ने 755 मिलियन डॉलर वाली आठ परियोजनाओं को मंजूरी दी| गौरतलब है कि वर्तमान में यह फंड 43 परियोजनाओं के लिये धन उपलब्ध करा रहा है| इस समय ग्रीन क्लाइमेट फंड में जमा कुल धनराशि 2.2 बिलियन डॉलर है, जबकि इन परियोजनाओं की लागत 7.3 बिलियन डॉलर है|
- हाल ही में भारत के ओडिशा राज्य में टैंकों के नवीकरण संबंधी एक परियोजना को जी.सी.एफ. द्वारा मंजूरी दी गई है| इस परियोजना की लागत 34 मिलियन डॉलर है| जी.सी.एफ. में जोखिम उठाने ,नवाचार को बढ़ावा देने तथा विकासात्मक परियोजनाओं लिये धन मुहैया कराने की क्षमता है| अतः यह गरीब देशों के लिये एक महत्त्वपूर्ण एजेंसी बन गया है| हालाँकि, कुछ रिपोर्ट ऐसी भी हैं जिनमें यह बताया गया है कि जी.सी.एफ. के लिये निजी फंडिंग में वृद्धि होगी परन्तु इस रिपोर्ट में किसी भी प्रकार की समर्थन प्रक्रिया का उल्लेख नहीं किया गया है| अतः विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा प्राप्त होने वाला धन ही इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा|
- जनवरी में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जी.सी.एफ. में 500 मिलियन डॉलर जमा किये थे| यह अमेरिका द्वारा वर्ष 2014 में तय किये गए 3 बिलियन डॉलर के लक्ष्य की ओर दूसरा भुगतान था| अब तक 40 से अधिक देश (जिनमें कुछ विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ भी शामिल हैं) जी.सी.एफ. में अपना योगदान कर चुके हैं| इसमें सबसे बड़ा योगदान अमेरिका, जापान और ब्रिटेन की ओर से किया गया है| वर्तमान में अमेरिका की ओर से जी.सी.एफ. में प्रति व्यक्ति 9.41 डॉलर का ही योगदान किया जाता है| ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका का यह योगदान कई यूरोपीय देशों की तुलना में कम है|
- हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जमा की गई धनराशि अमेरिका की प्रतिबद्धता को पूर्ण नहीं करती है| विदित हो कि अमेरिका विश्व में हरित गृह गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है|
क्या है स्टॉक और प्रवाह?
- उत्सर्जन के संदर्भ में धन के प्रवाह पर विचार करना उपयोगी सिद्ध हो सकता है| स्टॉक (stock) का तात्पर्य वायुमंडल में उपस्थित सभी अवयवों से है, जबकि प्रवाह (flow) का तात्पर्य वर्ष में होने वाले कुल उत्सर्जन से है| यह सत्य है कि चीन उत्सर्जन के मामले में विश्व का अग्रणी देश है, परन्तु इसकी स्थिति में अब परिवर्तन हो रहा है| चीन के पश्चात क्रमशः अमेरिका तथा भारत का स्थान आता है| प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के अमेरिका भारत से दस गुना अधिक उत्सर्जन करता है|
- वायुमंडल में उपस्थित अवयव तब उत्सर्जित हुए जब औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई| इससे कई देशों को आर्थिक लाभ पहुँचा जो अब विकसित देश बन चुके हैं|
- जब जी.सी.एफ. में योगदान करने की बात हुई तो इसमें राष्ट्रों को उत्सर्जन के केवल उसी स्तर में कमी लाने को कहा गया था जितना उन्होंने उत्सर्जित किया था|
- ध्यातव्य है कि धनी देशों के उत्सर्जन का बोझ उठाना बांग्लादेश में रहने वाले गरीब मछुआरे अथवा उप-सहारा अफ्रीका में रहने वाली महिला अथवा किसी द्वीप में रहने वाले उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी नहीं है जिसका घर प्रशांत महासागर में आए तूफान के कारण नष्ट हो गया हो|
निष्कर्ष
इस तथ्य को पेरिस समझौते में मान्यता प्रदान की गई थी कि सभी देशों की कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं तथा सभी देशों का जलवायु परिवर्तन में योगदान है, परन्तु अमेरिका और यूरोपीय देशों जैसे कुछ धनी देशों को एक स्वच्छ विश्व की ओर अपना अधिक योगदान करना चाहिये| भारत अथवा अन्य विकासशील देश अपने एन.डी.सी. का क्रियान्वयन करने की प्रतिबद्धता जता रहे हैं, परन्तु इन राष्ट्रों का यह कहना है कि वे विकसित राष्ट्रों के समर्थन के बिना इस दिशा मेंज़्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं|