आरक्षण पर सामाजिक सहमति का अभाव | 02 Jan 2017

पृष्ठभूमि

क्या नौकरियों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों में आरक्षण का प्रावधान सामजिक विभेद को बढ़ावा दे रहा है? इस प्रश्न के उजवाब में लम्बे समय से कभी भावनात्मक तो कभी मज़बूत प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित विचार और पक्ष लेकर बहस में शामिल होते हैं और शायद ही कभी अपना मत बदलते हैं, यही वजह है कि देश में अभी भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि आरक्षण एक आवश्यक और उपयोगी नीति है।

हाल ही में एसएआरआई (Social Attitudes Research for india) नामक एक सर्वेक्षण में भारत के गाँवों तथा शहरों में 18 से 65  वर्ष के लोगों के बीच आरक्षण की वांछनीयता और प्रवृत्तियों को लेकर सवाल-जवाब किये गए और कुछ दिलचस्प आँकड़े सामने रखे गए हैं।

सर्वेक्षण के नतीजे

  • लगभग 50 फीसदी लोगों का कहना है कि वे आरक्षण का समर्थन नहीं करते हैं समर्थन नहीं करने वालों में अधिकांशतः समान्य वर्ग के लोग हैं, वही समर्थन करने वाले अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंध रखने वाले लोग हैं।
  • आरक्षण का समर्थन नहीं करने वाले वैसे लोग जो पहले से ही आरक्षण के सबंध में कुछ जानते थे, उन्होंने आरक्षण का समर्थन नहीं करने के पीछे कुछ चौंकाने वाले तर्क दिये| 
  • आरक्षण का समर्थन नहीं करने वाले लोगों में सर्वाधिक 56  प्रतिशत लोगों का मानना है कि मेधा के आधार पर सीटें मिलनी चाहियें।
  • 44 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सीटों के मामले में ‘समानता’ होनी चाहिये।
  • वहीं 20 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि आरक्षण लाभार्थियों को इसका लाभ लेने की बजाय कठिन परिश्रम करना चाहिये।
  • 7 प्रतिशत लोग मानते हैं कि आरक्षण अब प्रासंगिक नहीं रह गया, जबकि 6 प्रतिशत लोगों का मानना है कि दलितों में धनाढ्य वर्ग ही आरक्षण का लाभ ले पा रहा है।
  • सबसे कम 3 प्रतिशत लोगों का मानना है कि आरक्षण से सामाजिक विभेद को बढ़ावा मिल रहा है।

सर्वेक्षण के नतीजों और देश के वास्तविक समाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर विचार करें तो परिस्थितियाँ कुछ इस प्रकार बनती हैं-
1. मेधा के आधार पर सीटों का आवंटन करने का तात्पर्य आरक्षण के प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित जाति और जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की मेधा सूची में मिलने वाली कुछ अंको की छूट से है| हालाँकि यह सिद्धांत इस बात की कोई खबर नहीं लेता कि समाज का वंचित समूह न तो आसानी से स्कूल जा पाता है और न ही बेहतर उच्च शिक्षा हासिल कर पाता है। अतः आरक्षण के माध्यम से प्रतिस्पर्द्धा के स्तर को सबके लिये एकसमान बनाया जाता है। वस्तुतः सदियों से वंचना झेल रहे समूहों की सैकड़ों सालों से सुविधा सम्पन्न वर्ग से अचानक प्रतिस्पर्द्धा बेईमानी होगी।

2. एक सामान्य सी धारणा है कि सामान्य वर्ग से संबंध रखने वाला व्यक्ति स्वाभाविक तौर पर मेधावी होता है। वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक और सांस्कृतिक उत्कृष्टता का निर्माण पीढ़ियों तक चलता रहता है और यह प्रमाणित तथ्य है कि उत्तर लिखने की कला और संवाद श्रेष्ठता में परिवेश की अहम भूमिका होती है, किन्तु एक पिछड़े वर्ग का व्यक्ति समाजिक परिवर्तन से अछूता तो रहता ही है, साथ ही आर्थिक और सांस्कृतिक उत्कृष्टता भी उसके लिये दूर की कौड़ी है।

3.कुछ लोगों का मानना है कि वे आरक्षण का समर्थन इसलिये नहीं करते क्योंकि उनका विश्वास समानता में है, बल्कि इसलिये कि आरक्षण वह साधन है जो समानता को बढ़ावा देता है। भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था इसलिये की गई थी कि सरकार के गठन से लेकर शिक्षा और रोज़गार में पिछड़े वर्गों का हित सुनिश्चित कर वास्तव में “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का सपना सच किया जा सके।

4. बहुत से लोगों का यह मानना है कि आरक्षण समाजिक आधार पर न देकर आर्थिक आधार पर दिया जाए, यह धारणा भी आपने आप में विसंगतियों से युक्त है। विदित हो कि आरक्षण एक गरीबी निवारक योजना नहीं है, सरकार बहुत सी ऐसी योजनाएँ चलाती है जो गरीबी हटाने से संबंधित हैं, आरक्षण का एकमात्र उद्देश्‍य प्रतिनिधित्‍व है। आरक्षण का उद्देश्य यह कतई नहीं है कि किसी समाज के हर व्यक्ति का कल्याण आरक्षण के ही माध्यम से ही होगा, बल्कि आरक्षण केवल उस वर्ग के लोगों को भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व दिलाता है जो भेदभाव का शिकार रहे हैं।

निष्कर्ष

वस्तुतः आरक्षण हमेशा से एक विवादित विषय रहा है, लेकिन आज़ादी के बाद के दशकों में आरक्षण सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा बन गया है। विडम्बना यह है कि भारत में उद्यमिता का अभाव है, ऐसे में हर कोई सरकारी नौकरी की तरफ देखता है और अपनी सुविधानुसार आरक्षण की व्याख्या करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में सामाजिक सहभागिता को बढ़ावा देने के लिये आरक्षण की नितांत आवश्यकता है, किन्तु एक सच यह भी है कि आरक्षण के उद्देश्यों के बारे में अधिकांश लोग अनजान हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को आरक्षण की ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने में मदद की जाए| भारत की जातीय, लैंगिक और क्षेत्रीय विविधताओं के बारे में बच्चों को बाताया जाए और आरक्षण के लिये व्यावहारिक सहमति बनाई जाए| हालाँकि, किन्नरों के लिये कोटा सहित आरक्षण नीति में कुछ सुधारों की आवश्यकता है।