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आर्थिक सर्वेक्षण और न्यायिक सुधार

  • 04 Sep 2019
  • 16 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में न्यायालयों में सुधार हेतु आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाए गए वैकल्पिक दृष्टिकोण की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

वर्ष 2017-18 और 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षणों ने न्यायिक सुधार के पारंपरिक क्षेत्रों के लिये एक नई अंतर्दृष्टि प्रदान की। इन आर्थिक सर्वेक्षणों के साथ ही वर्ष 2018 और 2019 की विश्व बैंक की ‘कारोबार में सुगमता’ (Ease of Doing Business) रिपोर्टों ने न्याय वितरण से जुड़े कुछ मिथकों को उजागर किया है और उनकी पुष्टि भी की है। इन रिपोर्टों से यह इंगित होता है कि स्फूर्त प्रतिक्रियाएँ भर पर्याप्त नहीं हैं और आवश्यकता प्रणालीगत एवं संरचनात्मक सुधारों की है। अर्द्ध-न्यायिक कार्य करने वाले या प्रशासनिक निर्णय लेने वाले सरकारी अधिनिर्णायकों (Adjudicators) को अपने आदेशों की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिये। निर्णय लेखन एक कला है, अतः इसे बेहतर बनाया जाना चाहिये। अपूर्ण/दोषपूर्ण आदेशों के कारण 31 मार्च, 2017 तक लगभग 7.58 लाख करोड़ रुपए तक के कर राजस्व विवाद की स्थिति बनी थी। यह जीडीपी के 4.7 प्रतिशत के बराबर है और इसमें वृद्धि ही हो रही है। कर से संबंधित सरकारी मुकदमेबाज़ी में सफलता की दर 30 प्रतिशत से भी कम है और कुछ मामलों में तो यह 12 प्रतिशत से भी कम है, जबकि मुकदमों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। लगभग 50,000 करोड़ रुपयए अवरुद्ध परियोजनाओं में फँसे हुए हैं और निवेश कम होता जा रहा है। ये दोनों जटिलताएँ न्यायालयों द्वारा मुख्यतः कमज़ोर मसौदे और तर्कों पर आधारित आदेशों पर लगाई गई रोक और स्थगन आदेशों के कारण उत्पन्न हुई हैं।

Indian courts NJDP

मिथक

प्रायः न्यायिक सक्रियता एवं न्यायालयों में न्यायाधीशों की कम संख्या को लंबित मामलों का प्रमुख कारण माना जाता है। किंतु आर्थिक सर्वेक्षण इस विषय पर एक पृथक दृष्टि प्रदान करता है। कुल मामलों में से लगभग 87.54 प्रतिशत मामले जिला न्यायालयों में लंबित हैं जहाँ न्यायिक सक्रियता की कोई भूमिका नहीं है। शेष 13 प्रतिशत लंबित मामलों में एक मामूली हिस्सा जनहित याचिकाओं का है जिस पर अधिक बहस करने की आवश्यकता नहीं है। सर्वेक्षण के अनुसार, न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर भी इस समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता है। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि शत-प्रतिशत निस्तारण दर (Clearance Rate) प्राप्त करने के लिये ज़िला न्यायालयों में केवल 2,279 रिक्तियों को भरना पर्याप्त है। इसी प्रकार उच्च न्यायालयों में शत-प्रतिशत निस्तारण दर प्राप्त करने के लिये केवल 93 रिक्त पदों को भरने की आवश्यकता है। रिक्त पदों को भरने और साथ ही सहायक कर्मचारी भी प्रदान किये जाएँ तो निस्तारण दर में नाटकीय रूप से वृद्धि होगी।

कम बजट आवंटन

यदि यह मान भी लिया जाए कि न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने और पर्याप्त संख्या में सहायक कर्मचारी उपलब्ध कराने से लंबित मामलों के आँकड़ों में अंतर आता है, तो इस कार्य हेतु बजट की कमी है। तथ्य यह है कि न्यायपालिका को आवंटित बजट जीडीपी का मात्र 0.08 से 0.09 प्रतिशत है। जापान, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और आइसलैंड का बजट ही भारत से कम है लेकिन इन देशों में मामलों के लंबित होने की कोई समस्या नहीं पाई जाती।

लंबित मामले तथा न्यायालय के कार्यदिवस

प्रश्न उठता है कि मामलों के लंबित होने या पेंडेंसी (Pendency) को परिभाषित कैसे किया जाए? वर्तमान में आधे घंटे पहले दर्ज किये गए मामले को भी लंबित/पेंडेंसी में गिन लिया जाता है, जो उचित नहीं है। ऐसा किया जा सकता है कि केवल एक वर्ष से अधिक समय से लंबित मामलों को ही लंबित मामलों की श्रेणी में गिना जाए। यह एक उपयुक्त और यथार्थवादी अंतर उत्पन्न करेगा तथा आँकड़ों को लेकर एक विवेकपूर्ण मूल्यांकन का अवसर प्रदान करेगा। इस बात का प्रायः उल्लेख किया जाता है कि भारतीय न्यायालय छुट्टियों के कारण लंबी अवधि के लिये बंद रहते हैं। इन छुट्टियों की अवधि अलग-अलग न्यायालयों में भिन्न होती है। कार्यदिवसों की संख्या को बढ़ाने से उच्चतम न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों की उत्पादकता में सुधार लाया जा सकता है, परंतु इससे निचली अदालतों पर कोई खास प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है। अधीनस्थ न्यायालयों, जिनमें लंबित मामलों की संख्या काफी अधिक है, में कार्यदिवसों की संख्या सरकारी कार्यालयों के कार्यदिवसों के लगभग समान है। प्रत्येक न्यायाधीश द्वारा मामलों के निपटान का वार्षिक औसत 746 है। इसे एक अच्छा औसत मान सकते हैं, यदि इस तथ्य पर गौर करें कि प्रत्येक सुनवाई (Trial) में साक्ष्य पर विशेष रूप से ध्यान देना भी आवश्यक होता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक वर्ष में अपेक्षाकृत कम दिन काम करते हैं लेकिन उनके द्वारा मामलों के निपटान का वार्षिक औसत 2,348 है। छुट्टियों में कटौती कर कार्यदिवसों को बढ़ाने से हालाँकि मामलों के निपटान की दर बढ़ाया जा सकता है लेकिन छुट्टियों को कम करके लंबित मामलों की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है, इसके लिये बेहतर ‘केस और कोर्ट प्रबंधन’ (Case and Court Management) महत्त्वपूर्ण है।

Indian Courts

न्यायालय प्रबंधन

विश्व बैंक की वर्ष 2018 और 2019 की ‘कारोबार में सुगमता’ रिपोर्टें बताती हैं कि भारत में किसी मामले के निर्णयन में लगने वाला समय औसतन 1,445 दिनों पर स्थिर बना हुआ है। इस रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक प्रक्रिया की गुणवत्ता में मामूली सुधार आया है (वर्ष 2017 के 10.3 से बढ़कर वर्ष 2018 में 10.5)। स्पष्ट है कि भारत में न्यायिक प्रक्रिया में उल्लेखनीय सुधार लाने के लिये भारी निवेश की आवश्यकता है। फास्ट ट्रैक कोर्ट या विशेष अदालतों की स्थापना अथवा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करना व्यवहार्य समाधान नहीं हैं, बल्कि तदर्थ उपाय भर हैं। किसी मामले की कुल अवधि का लगभग 30 प्रतिशत नोटिस भेजने (Service of Notice) में ही बर्बाद हो जाता है। नोटिस और सम्मन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिये एक समाधान के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की ई-कमेटी ने ‘राष्ट्रीय सेवा और इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं की निगरानी (National Service and Tracking of Electronic Processes- NSTEP) नामक एक मोबाइल एप्लीकेशन लॉन्च किया है, लेकिन इसका उपयोग अभी भी सीमित है। सर्वोच्च न्यायालय के ई-प्रोजेक्ट्स के माध्यम से न्यायाधीशों और प्रशासनिक कर्मचारियों को कई अन्य साधन प्रदान किये गए हैं। इसका एकमात्र उद्देश्य वादी के लिये न्याय वितरण को अधिक उत्तरदायी बनाना है। इसकी नवीनतम कड़ी में दिल्ली में एक ‘वर्चुअल कोर्ट’ का शुभारंभ करना शामिल है। किंतु कंप्यूटरीकरण और स्वचालन (Automation) प्रक्रिया का उच्च न्यायालयों और जिला न्यायालयों द्वारा पूर्ण और प्रभावी उपयोग नहीं किया जा रहा है।

पेशेवर प्रबंधक की अवधारणा

एक अन्य प्रबंधकीय समाधान के रूप में पेशेवर प्रबंधकों की अवधारणा पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस परिप्रेक्ष्य में 13वें वित्त आयोग द्वारा भी सिफारिश की गई है। इस प्रकार के प्रबंधक न्यायालय में न्यायाधीशों के अन्य प्रशासनिक कार्यों में सहायता करने के लिये उपयोगी हो सकते हैं तथा ऐसे प्रबंधक प्रबंधन क्षेत्र में शिक्षित तथा विशेषज्ञता को धारित करते हैं। न्यायालयों में न्यायालय प्रबंधकों (Court Managers) की नियुक्ति किये जाने पर कुछ मुख्य न्यायाधीशों ने न्यायालय प्रबंधन में उनकी संलग्नता को गंभीरता से लिया, जिसके परिणामस्वरूप यह प्रयोग पूर्ण रूप से विफल रहा। न्यायालय प्रबंधक या समकक्ष पेशेवर वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत उपयोगी हो सकते हैं और न्याय वितरण में तभी सुधार आ सकता है जब न्यायालय अपने प्रशासन में पेशेवरों की सहायता स्वीकार करें और उन्हें अपनाएँ।

भारतीय न्यायालयों और अधिकरण सेवाओं की स्थापना

अधिकतर न्यायिक सुधारों का रुझान न्यायाधीशों की गुणवत्ता और उनकी संख्या पर ही विशेष ध्यान देना रहा है, परंतु प्रमुख समस्या न्यायालयों की प्रणाली प्रमुखतः अनुषंगी और अप्रत्यक्ष कार्यप्रणालियों और प्रक्रियाओं के प्रशासन की गुणवत्ता से संबंधित है। राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त और नीति संस्थान द्वारा पेश की गई हालिया रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि कार्यक्षम कार्यप्रणाली के लिये न्यायालयों को सक्षम प्रशासन की अपेक्षा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रक्रियाओं का अनुसरण हो, दस्तावेज़ों का प्रस्तुतीकरण एवं संग्रहण तथा मानव संसाधन का प्रबंधन हो। न्यायालय प्रशासन को न्यायाधीशों के महत्त्वपूर्ण न्यायिक कार्य में सहायता करनी चाहिये। वर्तमान प्रणाली में भारतीय न्यायालयों में प्रशासन की मुख्य ज़िम्मेदारी मुख्य न्यायिक अधिकारी को सौंपी गई है। उसके पास इस कार्य के लिये अत्यधिक कम समय होने के अलावा यह अवधारणा प्रणालीगत सुधारों और प्रशासनिक सुधारों संबंधी संस्थागत ज्ञान के क्रमिक संचय में सहायक नहीं है। इस संदर्भ में भारतीय न्यायालय और अधिकरण सेवा (ICTS) नामक विशिष्ट सेवा का सृजन करने का प्रस्ताव किया गया है जो विधिक प्रणाली के प्रशासनिक पहलूओं पर विशेष ध्यान देती है। ICTS सेवा पहले भी अन्य देशों में न्यायालय प्रबंधन सेवा की दृष्टि से कार्य कर रही है तथा यह ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा आदि में भी मौजूद है। ICTS द्वारा निम्नलिखित कार्य किये जाएंगे-

  • न्यायपालिका के लिये आवश्यक प्रशासनिक सहायक कार्य करना।
  • प्रक्रिया से जुड़ी अक्षमताओं की पहचान करना और न्यायपालिका को विधिक सुधारों के संबंध में सलाह देना।

प्रौद्योगिकी का उपयोग

प्रौद्योगिकी से न्यायालय की क्षमता में काफी सुधार आ सकता है। इस दिशा में ई-न्यायालय मिशन मोड परियोजना एक प्रमुख प्रयास है, जो विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा विभिन्न चरणों में क्रियान्वित की जा रही है। इससे राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (NJDG) का सृजन संभव हो पाया है। यह प्रणाली अधिकतर मामलों, उनकी स्थिति और प्रगति संबंधी सूचना प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है। मामलों का डिजिटलीकरण होने से हितधारक व्यष्टिगत मामलों और उनकी बदलती स्थिति का हिसाब रख सकते हैं। अभी यह संभव नहीं है कि इस प्रयास से कार्यक्षमता में हुई बढ़ोतरी का सांख्यिकीय रूप से आकलन किया जा सके, परंतु यह निश्चित रूप से काफी बड़ा भावी कदम है।

निष्कर्ष

बेहतर प्रशासन, कार्यदिवसों की संख्या बढ़ाकर और प्रौद्योगिकी (कृत्रिम बुद्धिमत्ता के भावी अनुप्रयोगों सहित) के प्रयोग से महत्त्वपूर्ण परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। सुधारों का सटीक पूर्वानुमान लगाना काफी कठिन है, लेकिन बैकलॉग को समाप्त करने के लिये अपेक्षित कार्यक्षमता का वर्द्धन आवश्यक है। यदि न्यायिक सुधार पर गंभीरता से विचार करें तो शीघ्र व प्रभावी न्याय का स्वप्न सच हो सकता है और न्यायिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाले विश्व बैंक तथा अन्य संस्थानों व संगठनों की रिपोर्टों में भारत की स्थिति में सुधार आ सकता है। इस मुद्दे के सामाजिक और आर्थिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए नीति-निर्धारकों द्वारा इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिये।

प्रश्न: आर्थिक सर्वेक्षण में न्यायालय में लंबित मामलों के लिये न्यायालय के कुप्रबंधन को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। इस संदर्भ में अपने विचार स्पष्ट कीजिये।

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