क्या कॉन्ट्रैक्ट लेबर को पुनः परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है? | 13 Feb 2018
संदर्भ
पिछले कुछ समय से श्रमिक सुधार कानून सुर्खियों में बना हुआ है। हाल ही में वित्त मंत्री द्वारा अपने बजट भाषण में "निश्चित अवधि का रोज़गार" (fixed term employment) की वकालत किये जाने के साथ ही एक बार फिर से यह चर्चा में आ गया है। समाज में श्रमिक सुधार का मुद्दा उतना ही पुराना है जितना गणतंत्र का मुद्दा है. मौजूदा श्रम कानून ब्रिटिश शासन से चले आ रहे हैं।
- इन कानूनों को आज़ाद भारत के अनुरूप तैयार करने के लिये वर्ष 1947 में औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act) के रूप में पेश किया गया था। अंग्रेज़ों द्वारा युद्ध के दौरान उद्योगों को विघटन से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से इस अधिनियम को अधिरोपित किया गया था।
- वर्तमान में भी ये इसी रूप में अस्तित्व में है। श्रम कानूनों की सबसे अहम बात यह है कि यदि किसी भी स्थिति में श्रमिकों और प्रबंधन के बीच किसी प्रकार कोई भी विवाद उपजता है तो यह उनके मध्य सुलह कराने संबंधी सरकार के अधिकार क्षेत्र का हिस्सा है। हालाँकि, वास्तविक रूप में कभी ऐसा हो नहीं पाया है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947
- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 सभी औद्योगिक विवादों की जाँच पड़ताल करने तथा उनका निपटान करने हेतु विद्यमान एक प्रमुख विधान है।
- इस अधिनियम को श्रम मंत्रालय द्वारा (औद्योगिक संबंध प्रभाग के माध्यम से) प्रशासित किया जाता है। यह प्रभाग विवादों का निपटान करने हेतु संस्थागत ढाँचों में सुधार करने तथा औद्योगिक संबंधों से जुड़े श्रमिक कानूनों में संशोधन करने का कार्य करता है।
- यह प्रभाग देश को एक स्थायी, प्रतिष्ठित और कुशल कार्यबल उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करता है।
- इसका मुख्य उद्देश्य देश के विकास हेतु आवश्यक एक ऐसे कार्यबल का निर्माण करना है, जिसका शोषण न किया जा सके बल्कि जो उच्च स्तरीय उत्पादन कार्य में भी सक्षम हो।
- यह सीआईआरएम (Central Industrial Relations Machinery - CIRM) के साथ तालमेल स्थापित करके इस कार्य को संपन्न करता है।
सीआईआरएम
- सीआईआरएम, श्रम मंत्रालय का एक संगठन कार्यालय है, जिसे मुख्य श्रम आयुक्त (केन्द्रीय) संगठन के नाम से भी जाना जाता है।
- यह औद्योगिक संबंधों का निर्माण करने, श्रम संबंधी कानूनों को लागू करने तथा केंद्रीय क्षेत्र में व्यापार संघ की सदस्यता के सत्यापन आदि कार्यों का अनुपालन करता है।
- यह निम्निलिखित कार्यों के माध्यम से सद्भावपूर्ण औद्योगिक संबंधों को सुनिश्चित करने का काम करता है-
► केंद्रीय क्षेत्र में औद्योगिक संबंधों की निगरानी करना।
► संबंधित विवादों का निपटान करने हेतु औद्योगिक विवादों में हस्तक्षेप के साथ-साथ मध्यस्थता एवं उनका समाधान करना।
► हड़ताल तथा तालाबंदी की संभावना की स्थिति में हस्तक्षेप।
► इससे संबंधित व्यवस्थाओं और पंचाटों का कार्यान्वयन करना।
पृष्ठभूमि
- आपको बताते चलें कि वर्ष 1950 के दशक की शुरुआत में जगजीवन राम और बाद में वीवी गिरी द्वारा ब्रिटिशकालीन अधिनियम को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किये गए। वस्तुतः जिस प्रकार का परिवर्तन ये लोग चाहते थे वह संघर्ष का द्विपक्षीय समाधान था जो कि किसी भी उदार लोकतंत्र की सामान्य विशेषता है।
- इस संबंध में वीवी गिरी का तर्क यह था कि श्रम कानूनों के क्रियान्वयन और श्रमिकों तथा प्रबंधन के मध्य विवाद की स्थिति में राज्य की कोई भूमिका नहीं होती है।
- इसके बाद इंदिरा गांधी के समयकाल में एक बार फिर से इस संबंध में प्रभावकारी नियम बनाने की संभावना व्यक्त की जाने लगी।
- वस्तुतः उस समय ऐसी व्यवस्था की गई कि न तो राज्य की सहमति के बिना स्थायी श्रमिकों को काम से हटाया जा सकता है और न ही काम की जगह को बंदकिया जा सकता है।
अनुबंध श्रम का प्रारंभ
- यह नियम इतना अधिक लोकलुभावन था कि न तो कभी इसे लागू किया जा सका और न ही इसे कभी निरस्त किया जा सका।
- वस्तुतः इस नियम के संदर्भ में अनुबंध श्रम का उदय हुआ। इन समस्त बातों के मद्देनज़र प्रबंधन द्वारा इसके तहत कम-से-कम स्थायी श्रमिक रखते हुए अधिक-से-अधिक कार्य ठेके पर कराने की व्यवस्था आरंभ की गई।
- स्पष्ट रूप से इस निर्णय के मूल में श्रमिक ही हैं, अत: इसका कोई गंभीर विरोध नहीं हुआ।
- इसी प्रकार स्थायी श्रमिकों द्वारा भी इस संबंध में कोई विरोध नहीं किया गया है। संभवतः इसका कारण यह है कि अनुबंध श्रमिकों के रहने या न रहने से जब तक कि उनके हित और प्रतिभूति प्रभावित नहीं होते हैं तब तक उनके लिये चिंता की कोई बात नहीं है।
- हालाँकि पिछले कुछ समय से कुछ यूनियनों द्वारा अनुबंध श्रमिकों को व्यवस्थित करने की शुरुआत की गई है, विशेष रूप से स्टील और कोयला क्षेत्रों में ऐसा देखा गया है।
- ज्ञात हो कि ट्रेड यूनियन का कार्य स्थायी श्रमिकों को प्रबंधित करने से संबंधित हैI लेकिन यहाँ सबसे अधिक गौर करने वाली बात यह है कि वे यूनियन जो नियमित श्रमिकों के लिये बेहद उच्च मज़दूरी की मांग करते हैं, अनुबंध मज़दूरी के संबंध में न्यूनतम मज़दूरी पर सहमति व्यक्त करते हैं।
- जब यूनियन द्वारा ही न्यूनतम मज़दूरी की मांग की जा रही हो तो नियोक्ता किसी भी स्थिति में अधिक भुगतान करने के लिये तैयार नहीं होंगे।
- और यदि यूनियन द्वारा इस संबंध में हड़ताल का ऐलान भी किया जाए तो स्थायी श्रमिक उनका समर्थन नहीं करेंगे और नौकरी खोने के डर से वे स्वयं हड़ताल पर नहीं जाएंगे।
अनुबंध श्रम (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम
[Contract Labour (Regulation and Abolition) Act], 1970
- अनुबंध श्रम (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम में प्रस्तावित परिवर्तनों के अनुसार, ठेकेदारों को अब प्रत्येक परियोजना के लिये एक नए लाइसेंस की आवश्यकता नहीं होगी।
- इस नए प्रस्ताव के अनुसार, यदि कोई ठेकेदार एक ही राज्य में तीन साल तक काम करना चाहता है तो उसे राज्य सरकार से परमिट लेना होगा।
- हालाँकि, ठेकेदार को जब भी किसी कंपनी से काम करने का आदेश प्राप्त होगा, तो उसे सरकार को सूचित करना आवश्यक होगा। ऐसा न करने पर उस ठेकेदार का लाइसेंस रद्द भी किया जा सकता है।
श्रम नियम (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न भरने तथा रजिस्टर बनाने से छूट) अधिनियम, 1988
- श्रम नियम (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न भरने तथा रजिस्टर बनाने से छूट) अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन से अति लघु व लघु इकाइयों को लाभ होगा।
- संशोधन के बाद 40 कर्मचारियों तक वाली फर्में इस कानून के प्रावधानों से मुक्त हो जाएंगी।
- साथ ही, इन फर्मो को मौजूदा 9 के बजाय 16 श्रम कानूनों की संयुक्त अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने की सुविधा मिलेगी।
अनुबंध श्रम के विषय में स्थायी चिंता की वजह क्या है?
- संगठित उद्योगों द्वारा प्राय: सस्ती मज़दूरी दर पर कार्य कराया जाता है। इसका कारण यह है कि श्रम कानून के अंतर्गत उद्यम पर अक्षमता और उसके कर्मचारियों की संख्या में अंतःस्थापितता (Embedded) का आश्वासन दिया गया है।
- ट्रेड यूनियन के प्रतिरोध के डर से कोई भी सरकार इस कानून में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है।
- भले ही इस समस्त व्यवस्था में स्थायी रोज़गार एक मिथक हो, लेकिन यूनियनों के संचालन और अस्तित्व के लिये यह मुकुट में मणि के समान है। स्थायी श्रमिकों हैं तो ही यूनियनों का कोई महत्त्व है अन्यथा नहीं।
- यदि इस समस्त विवरण से इतर अनुबंध श्रम के विषय में विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह जीवनपर्यन्त बेहतर रोज़गार के विकल्प के रूप में उपलब्ध सुविधा नहीं है, तथापि यह कम-से-कम एक स्पष्ट कार्यकाल को तो सुनिश्चित करती ही है।
- यह वर्तमान में प्रयोग में लाई जा रही उस व्यवस्था से कहीं अधिक बेहतर है जिसमें किसी प्रकार की कोई गारंटी नहीं दी जाती है, साथ ही किसी भी समय रोज़गार छिनने का डर भी बना रहता है।
- जैसा कि किसी भी व्यवस्था में होना चाहिये, वर्तमान में अनुवंध श्रम में यह व्यवस्था है कि एक अच्छा कार्यकर्त्ता यह अपेक्षा करता है कि नियोक्ता द्वारा उसके कार्य-निष्पादन को मद्देनज़र रखते हुए उसके अनुबंध को नवीनीकृत किया जाएगा, अवसर ऐसा होता भी है।
- किसी भी अनुबंध श्रमिक के लिये जो आमतौर पर एक स्थायी श्रमिक की तुलना में अत्यधिक निम्न भुगतान प्राप्त करता है, उसके लिये यह अवसर किसी लॉटरी से कम नहीं होता है।
- नियत अनुबंध की व्यवस्था श्रमिकों और प्रबंधन दोनों के विरोध में हो सकती है। इसका मुख्य कारण है कि जहाँ एक ओर नियत अनुबंध से मज़दूरी बिल को बढ़ावा मिलेगा वहीं, दूसरी ओर नियोक्ताओं द्वारा भी इसका विरोध किया जाएगा।
बाल श्रम (रोकथाम और विनियमन) संशोधन नियम, 2017
- बाल श्रम (रोकथाम और विनियमन) संशोधन नियम, 2017 के आधार पर किसी भी बाल कलाकार को एक दिन में पाँच घंटे से अधिक समय तक कार्य करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जबकि विश्राम के बिना उसे तीन घंटे से अधिक समय तक कार्य करने नहीं दिया जाएगा।
- इस प्रस्ताव के अनुसार, बच्चों को उनके पारिवारिक उद्यमों में अपने परिवार का सहयोग करने की अनुमति तभी प्रदान की जाएगी जब उनके इस कार्य से उनकी स्कूली शिक्षा पर कोई असर न पड़ रहा हो।
- पारिवारिक सदस्यों में बच्चे के माता-पिता, वास्तविक भाई-बहन और माता-पिता के वास्तविक भाई व बहन शामिल होंगे। ऐसे बच्चों को किसी भी उत्पादन, आपूर्ति अथवा रिटेल श्रृंखला (जो परिवार के लिये लाभकारी परन्तु बच्चों के लिये खतरनाक हो) में संलग्न होने की अनुमति नहीं प्रदान की जाएगी।
- सरकार ने बाल श्रम नियमों में परिवर्तन हेतु नए कानून का प्रस्ताव रखा है जिसे बाल श्रम (रोकथाम और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 के नाम से जाना जाता है।
- इसके तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोज़गार पाने पर प्रतिबंध लगाया गया है। हालाँकि इसमें बाल श्रम के पक्ष में दो अपवाद भी हैं जैसे- बच्चे बाल कलाकार के रूप में मनोरंजन क्षेत्र में कार्य कर सकते हैं और अपने पारिवारिक उद्यमों में सहायता कर सकते हैं।
- प्रस्तावित नियमों के तहत बाल कलाकारों के द्वारा कमाई गई कम-से-कम 20% धनराशि को किसी राष्ट्रीकृत बैंक के जमा खाते में जमा करना होगा। यह धनराशि बच्चे को उसके 18 वर्ष के होने के पश्चात् मिल जाएगी।
- एक बच्चे को बाल कलाकार बनाने के लिये ज़िला अधीक्षक की अनुमति अनिवार्य है।
- इस प्रारूप के नियमों के अनुसार, उत्पादन इकाई को एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति करनी होगी जो बाल कलाकारों के बचाव और सुरक्षा के लिये ज़िम्मेदार होगा। इस प्रस्ताव के अनुसार, कोई भी बच्चा पैसों के लिये सड़क पर प्रदर्शन नहीं करेगा।
श्रम कानूनों में सुधार
- देश को मौजूदा कम उत्पादकता और कम वेतन वाली नौकरी की स्थिति से बाहर लाने के लिये श्रम कानूनों में उल्लेखनीय सुधार की आवश्यकता है।
- श्रम कानूनों में सुधार किये बिना मौजूदा बड़ी संख्या में श्रम कानूनों को चार प्रमुख कोड्स में एकीकृत करने से मकसद बहुत ज़्यादा पूरा नहीं होगा।
- वित्त मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता वाली समिति 44 श्रम कानूनों को चार आसान कोड्स में बदलने पर विचार कर रही है जो औद्योगिक संबंध, मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और कर्मचारी सुरक्षा से संबंधित होंगी।
- स्पष्ट है कि ऐसे प्रयासों से आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो गई है। हालाँकि इन सबके बावजूद सुधारों का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसने सबसे अधिक मात्रा में ध्यान आकर्षित किया है, वह है श्रम सुधार।
- बदलते समय एवं परिस्थितियों के मद्देनज़र श्रम सुधारों में फर्मों और कर्मचारियों के बीच संबंधों को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढाँचे में पर्याप्त बदलावों को शामिल करने के संदर्भ में सरकार श्रम सुधारों के विषय में बहुत सतर्कता से कार्य कर रही है।
- इसके बावजूद सी.एस.डी.एस. आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, सरकार द्वारा ट्रेड यूनियनों के प्रति दिखाई गई सहानुभूति और उनके द्वारा स्वीकृत की गई शर्तों के बाद से हड़ताल जैसी परिस्थितियों में कमी आई है।
- संभवतः ऐसा इसलिये भी है क्योंकि वैश्वीकरण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में श्रम के क्षेत्र में जिन मानकों का अनुसरण किया जा रहा है वे सभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मानक हैं।
- जहाँ तक बात है अर्थव्यवस्था के निजीकरण की, तो इस संबंध में अभी भी देश में संदेह की स्थिति व्याप्त है। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका यह मानना है कि अर्थव्यवस्था का निजीकरण विभिन्न वर्गों के मध्य शोषण में वृद्धि करेगा जो कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये घातक सिद्ध हो सकता है।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2009 के आम चुनावों के बाद किये गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं (46%) का अधिकतर हिस्सा सरकारी कारखानों और व्यवसायों के निजीकरण के विरोध में था, जबकि मात्र 22% लोगों द्वारा ही निजीकरण के पक्ष में उत्तर दिया गया तथा शेष 32% लोगों द्वारा इस संबंध में कोई राय व्यक्त नहीं की गई।
निष्कर्ष
स्पष्ट रूप से एक असुरक्षित और गरीब श्रम शक्ति के आधार पर भारत विनिर्माण प्रमुख के रूप में स्वयं को स्थापित करने के स्वप्न को पूरा नहीं कर पाएगा। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि वर्तमान में श्रम सुधार एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, लेकिन यह किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का मूल भी है। अत: इस समस्या का जितनी जल्दी समाधान हो सके, किया जाना चाहिये ताकि इससे आर्थिक संवृद्धि की दर को क्षति न पहुँचने पाए।