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सोशल मीडिया और समाज का ध्रुवीकरण

  • 07 Dec 2018
  • 9 min read

संदर्भ


सूचना क्रांति के आधुनिक दौर में सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रगति में सूचना क्रांति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किंतु सूचना क्रांति की ही उपज, सोशल मीडिया को लेकर उठने वाले सवाल भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। समाज की प्रगति में सोशल मीडिया की भूमिका क्या है? क्या सोशल मीडिया हमारे समाज में ध्रुवीकरण उत्पन्न कर रहा है? प्रस्तुत लेख विश्लेषण कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने का प्रयत्न करता है।


पृष्ठभूमि

  • हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ हम सूचना के न केवल उपभोक्ता है, बल्कि उत्पादक भी हैं। यही अंतर्द्वंद्व हमें इसके नियंत्रण से दूर कर देता है।
  • औसतन प्रतिदिन लगभग 1.49 बिलियन लोग फेसबुक पर लॉग इन करते हैं। औसतन हर सेकंड ट्विटर पर लगभग 6,000 ट्वीट किये जाते हैं और इंस्टाग्राम की शुरुआत के बाद से इस पर अब तक 40 बिलियन से अधिक तस्वीरें पोस्ट की गई हैं।
  • जैसे-जैसे हम इस शताब्दी के दूसरे दशक की समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं सोशल मीडिया और इंटरनेट हमारे बीच की दूरियाँ कम करने एवं व्यक्तिगत नेटवर्क से बाहर मौजूद लोगों से अवगत कराने के अपने वादे से पलट रहे हैं।
  • सोशल मीडिया के व्यापक उपयोग के कारण हम खुद को हठधर्मी बनाते जा रहे हैं। फेक न्यूज़ आज एक व्यवसाय का रूप धारण कर चुका है और लोगों की ताल में ताल मिलाकर चल रहा है। फेक न्यूज़ के उदय ने मुख्य धारा की मीडिया को भी शक के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है।
  • आज फेक न्यूज़ पारंपरिक मीडिया आउटलेट में भी जगह बनाने में सफल हो गए हैं जिनके झाँसे में अक्सर प्रसिद्ध लोग भी आ जाते हैं।

ध्रुवीकरण कैसे हो रहा है?

  • 1950 के दशक में सामाजिक मनोवैज्ञानिक सोलोमन असच (Solomon Asch) द्वारा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों की एक पूरी श्रृंखला की गई थी। ये प्रयोग यह निर्धारित करने के लिये किये गए थे कि बहुमत की राय के आगे किसी व्यक्ति की राय किस प्रकार प्रभावित होती है।
  • इन प्रयोगों के निष्कर्ष में असच ने पाया की कोई व्यक्ति गलत जवाब देने के लिये सिर्फ इसलिये तैयार था ताकि वह बहुमत की राय के साथ शामिल रहे।
  • उत्तरदाताओं ने इसलिये गलत जवाब दिये क्योंकि वे अपना उपहास नहीं उड़ाना चाहते थे या इसलिये क्योंकि उनका मानना ​​था कि समूह उनके मुकाबले बेहतर जानकार है।
  • यद्यपि 1950 के दशक से संचार का यह स्वरूप विकसित होकर नए रूप में प्रकट हुआ है, लेकिन इसके बावजूद मानव का स्वभाव इसके साथ सामंजस्य बैठाने में सफल नहीं हो पाया है। कुछ हद तक यह धारणा ऑनलाइन फेक न्यूज़ के प्रभाव को भी इंगित करती है, जिसने समाज में ध्रुवीकरण के विस्तार में योगदान दिया है।
  • सोशल मीडिया पर बढ़ते ध्रुवीकरण को लेकर एल्टो विश्वविद्यालय, फिनलैंड द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, उपयोगकर्त्ताओं के बीच एकरूपता जैसे कारक (किसी सामाजिक व्यवस्था में उपयोगकर्ता अपने जैसे लोगों के साथ अधिक संबंध रखते हैं) और एल्गोरिदम का ही परिणाम है कि हम भिन्न विचारों को अपनाने में असहज महसूस करते हैं।
  • सोशल मीडिया साइटें किसी उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के लिये तैयार हैं। उदाहरण के लिये, ट्विटर आपको नियमित रूप से उन लोगों का अनुसरण करने के लिये प्रेरित करेगा जो आपके दृष्टिकोण के समान दृष्टिकोण रखते हैं।
  • खुलेपन, अस्पष्टता और गुमनामी जैसी विशेषताएँ जो कभी हाशिए पर स्थित समुदायों को ताकत प्रदान करती थीं, अब तुच्छ इरादों को बढ़ाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभा रही हैं।
  • पिछले कुछ वर्षों के दौरान गलत खबरों (पूर्वाग्रह या मानव त्रुटियों के कारण), झूठी खबरों (जान-बूझकर बनाई गई फेक न्यूज़) और यहाँ तक कि ‘फेक अकाउंट’ की प्रवृत्ति बढ़ी है। यही प्रवृत्ति आगे चलकर सीधे राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने या ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर किसी को परेशान करने में इस्तेमाल की जाती है।

अन्य माध्यमों से ध्रुवीकरण

  • इतिहास पर नज़र डालें तो पता चलता है कि उस्मानी साम्राज्य द्वारा प्रिंटिंग प्रेस को एक मुसीबत की तरह देखा जाता था। किताबों की छपाई तथा वितरण की दर ने एक संदेह उत्पन्न कर दिया था। विडंबना यह है कि 1627 में स्थापित पहला ग्रीक प्रिंटिंग हाउस यहूदियों को लक्ष्य बनाने वाली एक पुस्तिका प्रिंट करता था।
  • किताबें सोशल मीडिया की तरह ही एक साधन मात्र थीं। किताबों पर प्रतिबंध लगाना और सोशल मीडिया को दोषी ठहराना दोषपूर्ण तर्क के ही द्योतक हैं।
  • यदि सोशल मीडिया में बुराई के प्रति पक्षपात अंतर्निहित होता तो #metoo जैसे अभियान हमारे समक्ष कभी नहीं आ पाते।
  • खोए हुए बच्चों का मिलना, विभिन्न आपदाओं में सहायता के लिये पैसों का वितरण और तमाम अन्य अच्छे काम सोशल मीडिया के माध्यम से हो रहे हैं।
  • सोशल मीडिया मल्टीमीडिया तथा अन्य प्लेटफॉर्मों का एक तंत्र है जो बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और समावेशी है। यह वर्ग, पंथ, जाति, धर्म, लिंग, आयु या वित्तीय संसाधनों की कमी के बावजूद सबके लिये समान अवसरों की सुविधा प्रदान करता है। हर (ऑनलाइन और ऑफ़लाइन) दुर्व्यवहार के लिये सोशल मीडिया को दोषी मानने का कोई तार्किक आधार नहीं है।

निष्कर्ष

  • सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण लोगों के सोचने का दायरा संकुचित होता जा रहा है जो न केवल मतदान के समय व्यवहार में परिवर्तन लाता है बल्कि हर रोज़ व्यक्तिगत वार्ताओं में भी इसका भारी प्रभाव पड़ रहा है। यह आज के दौर में गंभीर चिंता का विषय है।
  • यह सच है कि सोशल मीडिया का उपयोग एक ऐसे व्यक्ति के लिये समर्थन हासिल करने में किया गया था, जिसने राजस्थान में एक मुस्लिम व्यक्ति को ज़िंदा जला दिया था, लेकिन यह वही सोशल मीडिया है जिसका इस्तेमाल उस बच्ची के माता-पिता हेतु धन जुटाने के लिये भी किया गया था, जिसकी जम्मू-कश्मीर के कठुआ में सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस हत्या कर दी गई थी।
  • उक्त तथ्य से यह साबित होता है कि सोशल मीडिया एक साधन मात्र है जिसका इस्तेमाल पूर्णतः उपयोगकर्त्ता पर निर्भर करता है।
  • सोशल मीडिया निश्चित रूप से सूचनाओं के भरमार (तथ्यात्मक और फेक दोनों) की वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहा है लेकिन साथ ही यह लोगों को उनके अधिकारों तक पहुँचने और उनकी राय सुनाने में भी सक्षम बनाता है। उम्मीद है कि समय के साथ लोग इंटरनेट पर कोई भी सामग्री शेयर करने की ज़िम्मेदारी लेंगे और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के प्रति घटते जा रहे विश्वास को पुनः प्राप्त करेंगे।

स्रोत- द हिंदू

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