क्या आवश्यक है पानी का निजीकरण | 22 Apr 2017

कहते हैं पानी की तासीर शीतल होती है, लेकिन जल संकट ने पानी को आज सबसे ज्वलंत मुद्दा बना दिया है। कुछ लोगों का मानना है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वह पानी को ही लेकर होगा। पानी के निजीकरण को जल संकट के समाधान के तौर पर पेश किया जाता रहा है लेकिन क्या सच में इससे जल संकट का समाधान हो पाएगा! यह जानना दिलचस्प होगा।

क्यों होना चाहिये पानी का निजीकरण?

  • जल ही जीवन है अर्थात जल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। जल के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वैश्विक जल रिपोर्ट 2006 में कहा है कि “हमारी धरती पर हर किसी के लिये पर्याप्त पानी है लेकिन फिर भी जल संकट बरकरार है। इसका कारण अक्सर कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, उचित संस्थानों की कमी, नौकरशाही की जड़ता और मानव क्षमता एवं भौतिक बुनियादी ढाँचे में निवेश की कमी है”।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि यदि जल स्रोतों के रख-रखाव से लेकर वितरण तक की ज़िम्मेदारी निजी क्षेत्र के हाथ में सौंप दी जाए तो जल प्रबन्धन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। पानी के निजीकरण की वकालत करने वाले अधिकांश लोगों का मानना है कि पानी को आर्थिक मूल्य देकर कुशलतापूर्वक इसका प्रबंधन किया जा सकता है।
  • एक सच यह भी है कि राज्य नियंत्रित जल आपूर्ति व्यवस्था कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को अंजाम देने में लगातार असफल प्रमाणित हो रही है, इन परिस्थितियों में बाज़ार आधारित जल प्रशासन की व्यवस्था कारगर साबित हो सकती है।

पानी का निजीकरण उचित क्यों नहीं?

  • जल यानी जीवन की मूल आवश्यकता का मुनाफे के लिये बाज़ार बनाना कदाचित ही सही नहीं होगा। निजीकरण, सार्वजनिक जवाबदेही को सीमित करता है। यदि जल व्यवस्था को बहुराष्ट्रीय जल निगम के हवाले कर दिया गया तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि वे जनता के हित में नहीं बल्कि अपने शेयरधारकों के लिये कार्य करेंगे क्योंकि वे ज़िम्मेदार भी तो केवल उन्हीं शेयरधारकों के प्रति हैं न कि जनता के प्रति। हालाँकि, जल के निजीकरण के खतरे को समझने के लिये हमें जल के निजीकरण करने वाले वैश्विक अनुभवों से सबक लेना होगा।
  • लैटिन अमेरिका के एक छोटे से देश बोलिविया के एक बड़े शहर कोचाबंबा की जल सेवाओं के लिये ऋण देने से पहले विश्व बैंक ने शर्त रखी कि सरकार सार्वजनिक जल व्यवस्था को निजी क्षेत्र को बेच दे। फलस्वरूप पूरी जल व्यवस्था अमरीका के बैक्टेल उद्योग समूह की एक सहायक कम्पनी के हवाले कर दी गई।
  • जनवरी 1999 में इस कम्पनी ने पानी की दरें दुगनी करने का ऐलान कर दिया। तमाम तरह के जल स्रोतों, जैसे कि कुएँ के पानी पर भी परमिट लेना आवश्यक कर दिया गया। इतना ही नहीं, छोटे किसानों को अपनी ज़मीन पर बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए भी परमिट खरीदना ज़रूरी हो गया। पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर उठे बोलिवियावासी बगावत पर उतर आए और हजारों लोग सड़क पर आ गए।
  • भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो दो वक्त का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं, सरकार ऐसे समूहों को सब्सिडाइज्ड दरों पर जलापूर्ति करती है। यदि निजी क्षेत्रों के हाथ में जल व्यवस्था चली जाती है तो इस प्रकार के संवेदनशील समूहों के प्रभावित होने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।

क्या हो आगे का रास्ता?

  • हाल ही में बनाए गए राष्ट्रीय जल ढाँचा कानून (एनडब्ल्यूएफएल) में कहा गया है; "भारत के प्रत्येक नागरिक का पानी पर एक समान अधिकार है क्योंकि यह भारत के लोगों की साझी विरासत  है”।
  • अतः पानी का निजीकरण तो नहीं करना चाहिये, हालाँकि जल व्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से नगर पालिकाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के साथ साझेदारी करना चाहिये, क्योंकि वे निजी जल कंपनियों की तुलना में अधिक संवेदनशील, विश्वसनीय और लागत प्रभावी हैं।
  • चूँकि निजी क्षेत्र का उद्देश्य लाभ कमाना है इसलिये यह ज़रूरी है कि सरकार जल उपयोग के पैटर्न में बदलाव लाए ताकि जल के संरचनात्मक क्षय को को रोका जा सके।

निष्कर्ष

  • भारत में नागपुर पहला ऐसा बड़ा शहर है जहाँ की जल व्यवस्था निजी क्षेत्र के हाथों में है, वर्ष 2012 में नागपुर नगरपालिका ने 25 वर्षों के लिये एक निजी कंपनी को यह दायित्व प्रदान किया। उल्लेखनीय है कि तब से लेकर अब तक उस कम्पनी पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं वहीं पानी के शुल्क में चार बार बढ़ोतरी भी हो चुकी है।
  • ज़ाहिर है वर्तमान में भारत जैसे विवेकवान और स्वावलंबी समाज को जल व्यवस्था के लिये विदेशी कंपनियों एवं निजी क्षेत्र की और देखने की कोई ज़रूरत नहीं है।
  • भारत के समाज ने जब थार के रेगिस्तान को अपने मेहनत और कौशल से जिन्दा रखा है तो उन प्रदेशों की बात ही क्या है जो राजस्थान की अपेक्षा काफी हरे भरे हैं। यह दावा निराधार नहीं है कि भारत के प्रदेशों में जल के उपयोग की दूरदर्शी गौरवशाली परंपराएँ हैं।
  • आवश्यकता है उन परम्पराओं की पहचान की जाए और उन्हें समसामयिकता के अनुरूप ढाला जाए। इतना ही नहीं भारत का कर्तव्य है कि पानी को बाज़ार के कुचक्र से मुक्त कराने में वह अन्य देशों की अगुवाई करे। भारत के पास गौरवशाली परंपरा की एक मज़बूत नींव है जिसके ऊपर खड़ा होकर वह देश-दुनिया को संदेश दे सकता है कि “पानी बिकाऊ नहीं है, हम इसे बिकने नहीं देंगे।”