क्या बैंकरप्सी कोड में निहित है एनपीए समस्या का समाधान? | 28 Jun 2017
सन्दर्भ
पिछले कुछ सालों से शायद ही कोई ऐसा सप्ताह गुजरा होगा, जब सरकार के किसी न किसी नियामक ने एनपीए की लाइलाज बनती जा रही बीमारी के उपचार के लिये बैंकों को एक नई दवा पिलाने की कोशिश न की हो। ऐसा इसलिये है, क्योंकि उल्लेखनीय रूप से बढ़ी हुई एनपीए जनित समस्या का समाधान सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है। फिर भी सोचने का विषय यह है कि आखिर क्यों एनपीए की समस्या ज्यों कि त्यों बनी हुई है। ऐसे समय में ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’ (दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता 2016) की भूमिका बढ़ी हुई प्रतीत हो रही है। हालाँकि इस संबंध में हम लोगों के सम्मुख दो यक्ष प्रश्न खड़े हैं, पहला यह कि बैंकरप्सी कोड 2016 क्या है और दूसरा यह कि बैंकरप्सी कोड कैसे एनपीए समस्या के समाधान से जुड़ा हुआ है? इस आलेख में एक-एक करके हम दोनों ही प्रश्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास करेंगे साथ ही हम नियामकों द्वारा जारी नए अनुदेशों से जुड़ी हुई समस्याओं और उनके समाधान की भी बात करेंगे।
क्या है ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’ ?
- विदित हो कि विगत वर्ष केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाते हुए एक नया दिवालियापन संहिता संबंधी विधेयक पारित किया था।
- गौरतलब है कि यह नया कानून 1909 के 'प्रेसीडेंसी टाउन इन्सॉल्ववेन्सी एक्ट’ और 'प्रोवेंशियल इन्सॉल्ववेन्सी एक्ट 1920 को रद्द करता है और कंपनी एक्ट, लिमिटेड लाइबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट और 'सेक्यूटाईजेशन एक्ट' समेत कई कानूनों में संशोधन करता है।
- दरअसल, कंपनी या साझेदारी फर्म व्यवसाय में नुकसान के चलते कभी भी दिवालिया हो सकते हैं। यदि कोई आर्थिक इकाई दिवालिया होती है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने संसाधनों के आधार पर अपने ऋणों को चुका पाने में असमर्थ है।
- ऐसी स्थिति में कानून में स्पष्टता न होने पर ऋणदाताओं को भी नुकसान होता है और स्वयं उस व्यक्ति या फर्म को भी तरह-तरह की मानसिक एवं अन्य प्रताडऩाओं से गुज़रना पड़ता है। देश में अभी तक दिवालियापन से संबंधित कम से कम 12 कानून थे जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।
कैसे एनपीए समस्या का समाधान कर सकता है बैंकरप्सी कोड 2016?
- जब कोई देनदार अपने बैंक को अपनी देनदारियाँ चुकाने में असमर्थ हो जाता है तो, तब उसके द्वारा लिया गया ऋण नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) कहलाता है। नियमों के हिसाब से जब किसी ऋण राशि का मूलधन या ब्याज़ तय अवधि के 90 दिन के भीतर नहीं आता है तो, उसे एनपीए में डाल दिया जाता है।
- अर्थात् यदि किसी ऋण से बैंक को रिटर्न मिलना बंद हो जाता है, तब वह उसके लिये एनपीए या बैड लोन हो जाता है। कई बार ऋणी दिवालिया हो जाता है, ऐसे में बैंक उसकी परिसम्पत्तियों को बेचकर अपने नुकसान की भरपाई कर सकते हैं।
- विदित हो कि बैंकरप्सी कोड 2016 के अनुसार किसी ऋणी के दिवालिया होने पर आसानी से उसकी परिसंपत्तियों को अधिकार में लिया जा सकता है।
- नए कानून के हिसाब से, यदि 75 प्रतिशत ऋणदाता सहमत हों तो ऐसी कोई कंपनी, जो अपने ऋण नहीं चुका पा रही, पर 180 दिनों (90 दिन के अतिरिक्त रियायती काल के साथ) के भीतर कार्रवाई की जा सकती है।
- यदि तब भी वसूली नहीं हो पाती तो, वह फर्म या व्यक्ति स्वयं दिवालिया हो जाएंगे। नए कानून के लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा।
- ऋण न चुका पाने की स्थिति में कंपनी को अवसर दिया जाएगा कि वह एक निश्चित कालखंड में अपने ऋण को चुका दे, अन्यथा स्वयं को दिवालिया घोषित करे। यदि कोई ऋणी दोषी पाया जाता है तो उसे 5 साल की सज़ा का भी प्रावधान है।
नियामकों द्वारा जारी नए अनुदेश
- ध्यातव्य है कि हाल ही में सेबी ने कहा है कि ऐसी कंपनियाँ जो ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’ के प्रावधानों के तहत परिसम्पतियों का अधिग्रहण कर रही हैं, उन्हें ओपेन ऑफर दायित्वों से मुक्त किया जा सकता है, जोकि आमतौर पर भारतीय अधिग्रहण नियमों के तहत लागू होती है।
- हाल ही में अध्यादेश के माध्यम से बैंकिंग अधिनियम में संशोधन के द्वारा रिजर्व बैंक को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है और रिज़र्व बैंक ने इन्ही शक्तियों का उपयोग करते हुए अनुदेश जारी किया है कि 12 ऐसे बैंक खाते, जिनका कुल एनपीए में करीब 25 प्रतिशत का योगदान है, अब बैंकरप्सी कोड के हवाले किये जाते हैं, यानी उन्हें दिवालिया घोषित कर उनके परिसम्पत्तियों को बेचने का काम आरम्भ किया जाएगा।
समस्याएँ एवं चुनौतियाँ
- रिज़र्व बैंक द्वारा एनपीए से भरे पड़े खातों का आगे बढ़कर बैंकरप्सी कोड के हवाले किया जाना यह दिखाता है कि वह इस समस्या के प्रति गम्भीर है, हालाँकि यह प्रयास भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान चरित्र को समझने में असफल रहा है। विदित्र हो कि वर्तमान में इस्पात, विद्युत् और टेक्सटाइल उद्योग मंदी के दौर से गुज़र रहा है। मान लिया जाए कि बैंकरप्सी कोड के तहत इन 12 खातों से संबंध रखने वाली कंपनियों को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है और उनकी परिसम्पतियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो, समस्या यह है कि मंदी की आंधी के साथ बह रही इन कम्पनियों की परिसम्पतियों को उचित दामों पर खरीदेगा कौन?
- जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में अधिकांश कंपनियों पर उनके संस्थापक प्रमोटरों का दबदबा बना रहता है। यदि बैंक का ऋण चुकाने में असमर्थ किसी कंपनी के प्रबन्धन का दायित्व बैंकों पर छोड़ा जाता है, तो उन्हें यह भी अधिकार मिलना चाहिये कि वे संबंधित कम्पनी के प्रमोटरों को कुछ हद तक नियंत्रित कर सके? लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि रिज़र्व बैंक का प्रमोटरों पर कोई नियंत्रण नहीं है। अतः उसके द्वारा जारी अनुदेश उन पर लागू नहीं होता है।
क्या हो आगे का रास्ता?
सरकार को चाहिये वह ऋणी कंपनियों की परिसम्पतियों को बेचने संबंधी मामलों में बैंकों को और अधिक स्वायत्ता प्रदान करे। बैंक बाज़ार को ध्यान में रखते हुए बिक्री योग्य परिसम्पत्तियों का मूल्य तय कर सकें, क्योंकि कुछ न मिलने से यह बेहतर है कि कुछ भी मिल जाए।
- एनपीए की गंभीर होती समस्या को ध्यान में रखते हुए, कंपनियों के प्रमोटरों की भूमिका भी निश्चित करनी चाहिये। यह रेखांकित करना होगा कि प्रमोटरों को बैंकों द्वारा किस सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता है ?
- विदित हो कि बैंकरप्सी कोड के तहत ‘नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल’ द्वारा किसी भी कंपनी को दिवालिया घोषित करने के लिये प्रस्तावित किया जाएगा और ऋण वसूली में भी ट्रिब्यूनल की अहम् भूमिका होगी। जैसा की हम जानते हैं कि बड़ी संख्या में कंपनियाँ डिफाल्टर साबित हो रही हैं ऐसे में इनसे प्रभावी ढंग से निपटने के लिये ट्रिब्यूनल को और अधिक सशक्त बनाना होगा।
निष्कर्ष
किसी कारोबारी द्वारा बैंकों का कर्ज़ चुकता न किये जाने से न सिर्फ बैंकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी कमज़ोर होती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नुकसान की भरपाई अंततः सरकारी खज़ाने से करनी पड़ती है। यह खज़ाना देश की सामूहिक आय, नागरिकों द्वारा दिये गए कर और बचत की राशि से बनता है। अतः यदि एनपीए समस्या का समाधान बैंकरप्सी कोड में निहित है तो हमें उपरोक्त बातों का ध्यान रखना होगा।