अंतर्राष्ट्रीय संबंध
हिंद-प्रशांत क्षेत्र और ‘ऑकस’ समझौता
- 22 Sep 2021
- 15 min read
यह एडिटोरियल 20/09/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘The new AUKUS alliance holds some lessons for India’’ पर आधारित है। इसमें हाल ही में संपन्न हुए ‘ऑकस’ (AUKUS) समझौते और भू-भाग पर इसके व्यापक प्रभावों के संबंध में चर्चा की गई है।
संदर्भ
ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका ने हाल ही में एक त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौते की घोषणा की है, जिसे ‘ऑकस’ (AUKUS) का संक्षिप्त नाम दिया गया है। हालाँकि फ्राँस ने इस परमाणु गठबंधन का विरोध किया है।
इस गठबंधन की घोषणा करते हुए चीन का नाम लिये बिना अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा की कि "तेज़ी से उभर रहे खतरों से निपटने के लिये" अमेरिका और ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया के साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता, साइबर-वारफेयर, क्वांटम कंप्यूटिंग एवं परमाणु पनडुब्बी निर्माण जैसे क्षेत्रों में खुफिया एवं उन्नत तकनीक साझा करेंगे।
‘AUKUS’ के गठन के पक्ष में तर्क
- ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा घोषित इस गठबंधन को एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिये एक ऐतिहासिक सुरक्षा समझौते के रूप में देखा जा सकता है, जो चीन का मुकाबला करने के एक प्रयास के रूप में काफी महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
- यह ऑस्ट्रेलिया को पहली बार अमेरिका द्वारा प्रदान की गई प्रौद्योगिकी का उपयोग कर परमाणु ऊर्जा संचालित पनडुब्बियों के निर्माण में सक्षम करेगा।
- ये तीनों राष्ट्र पहले से भी एक-दूसरे से संबद्ध रहे हैं—अमेरिका और ब्रिटेन नाटो सहयोगी हैं, जबकि ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अमेरिका ‘ANZUS’ समझौते से एक-दूसरे से संबद्ध हैं।
- तीनों राष्ट्र ‘फाइव-आई’ (Five-Eyes) इंटेलिजेंस गठबंधन के भी सदस्य हैं।
- हालाँकि, इस घोषणा ने इस मंच की भविष्य की प्रासंगिकता और इसके दीर्घकालिक अस्तित्त्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है, क्योंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिये पहले ही ‘क्वाड्रीलेटरल सिक्यूरिटी डायलॉग’ (QUAD) की स्थापना की जा चुकी है।
- इस विस्तृत स्तर के गठबंधन में पूर्व की तुलना में कमज़ोर पोस्ट-ब्रेग्जिट ब्रिटेन को शामिल करना भी आलोचना का शिकार हो सकता है।
क्वाड और हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर प्रभाव
- इस बात की आशंका प्रकट की जा रही है कि ‘AUKUS’ अमेरिका-यूरोपीय संघ के संबंधों एवं उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) पर गहरा प्रभाव डाल सकता है और ‘इंडो-पैसिफिक’ क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन को कमज़ोर कर सकता है।
- आरंभिक प्रतिक्रिया के तौर पर फ्राँस ने संयुक्त राष्ट्र में ऑस्ट्रेलिया, फ्राँस और भारत के विदेश मंत्रियों की एक निर्धारित बैठक को रद्द कर दिया है।
- पिछले कुछ वर्षों से एक उभरती हुई हिंद-प्रशांत संरचना में यह त्रिपक्षीय संलग्नता एक महत्त्वपूर्ण तत्व बन गई थी। इस प्रकार, बैठक का रद्द किया जाना त्रिपक्षीय संलग्नता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।
- अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्वाड और ‘AUKUS’ एक-दूसरे को सुदृढ़ करेंगे या परस्पर अनन्य बने रहेंगे।
- कुछ ऐसी मान्यताएँ भी हैं कि ‘एंग्लोस्फीयर राष्ट्रों’ यानी ‘आंग्ल प्रभाव क्षेत्र के राष्ट्रों’ (Anglosphere nations)—जो ब्रिटेन के साथ साझा सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संबंध रखते हैं, के बीच एक-दूसरे को लेकर अधिक भरोसा है।
भारत पर प्रभाव
- भारत का बहिर्वेशन: ‘AUKUS’ का निर्माण चीन को एक कड़ा संदेश भेजने का प्रयास है। हालाँकि, चीन द्वारा इस गठबंधन को एक ‘बहिर्वेशनकारी मंच’ (Exclusionary Bloc) कहा जाना क्वाड तथा मालाबार फोरम के दो सदस्यों भारत और जापान के लिये भी मंथन का विषय है, जिन्हें नए समूह से बाहर रखा गया है।
- हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नेतृत्व के लिये अमेरिका के नए भागीदार:
- भारत-अमेरिका सुरक्षा संबंधों की कुछ प्रमुख उपलब्धियाँ: वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर; वर्ष 2012 में रक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार पहल की शुरूआत; वर्ष 2016 में अमेरिकी काॅन्ग्रेस द्वारा भारत को ‘प्रमुख रक्षा सहयोगी’ का दर्जा प्रदान करना; भारत को टियर-1 का दर्जा प्रदान करना जो उसे उच्च-प्रौद्योगिकी वस्तुओं के निर्यात में सक्षम बनाता है; और वर्ष 2018 में दोनों देशों के बीच “2+2 वार्ता” की शुरूआत। वर्ष 2020 में चौथे तथा अंतिम ‘संस्थापक समझौते’ (Foundational Agreements) पर हस्ताक्षर के साथ यह माना गया कि दोनों देशों के बीच करीबी रक्षा संबंध के मार्ग की अंतिम बाधा भी दूर कर ली गई है।
- लेकिन ‘AUKUS’ की स्थापना के साथ यह आशंका प्रबल हुई है कि संभवतः यह अमेरिकी नीति में पुनः परिवर्तन की शुरुआत है, जहाँ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नेतृत्व के लिये ऑस्ट्रेलिया के रूप में एक नए साथी की खोज की जा रही है।
चीन की प्रतिक्रिया
- चीन ने दुनिया भर के देशों से ‘आधिपत्य और विभाजन’ का विरोध करने का आह्वान किया है।
- चीन ने स्पष्ट किया है वह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले, संघर्ष पैदा करने वाले और तथाकथित नियम निर्धारण के बैनर तले विभाजन पैदा करने वाले ऐसे कृत्यों का विरोध करता है।
- वहीं चीन स्वयं कृत्रिम द्वीपों का निर्माण करने और उन्हें दुर्गीकृत हवाई ठिकानों में बदलने की राह पर आगे बढ़ रहा है।
- अमेरिका और सहयोगी देशों की नौसेनाओं द्वारा नियमित रूप से "नौवहन की स्वतंत्रता" अभियानों का कार्यान्वयन न तो चीन को रोक सका है, न ही उसे निरुत्साहित कर सका है।
- चीन ने भारतीय सीमा पर इससे भी अधिक आक्रामक रुख अपनाया है, जहाँ उसने भारतीय क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर दावा जताने के लिये व्यापार पैमाने पर सैन्य तैनाती का इस्तेमाल किया है और इसके कारण जून, 2020 से संघर्ष की भी स्थिति बनी हुई है।
- भारत, निस्संदेह एक बड़ी काफी आर्थिक कीमत पर, जवाबी कार्रवाई करते हुए अपनी ज़मीन पर खड़ा रहा है। इस खतरनाक टकराव के अभी जारी बने रहने की संभावना है।
- क्वाड ने, संभवतः इस भय से कि उसे ‘एशियाई नाटो’ करार दिया जाएगा, न तो कोई चार्टर बनाया है और न ही किसी उल्लेखनीय तरीके से कोई कदम आगे बढ़ाया है।
- दूसरी ओर, चीन ने क्वाड को यह कहकर खारिज करने का प्रयास किया है कि यह "सुर्खियाँ बटोरने वाला एक विचार है जो जल्द विलुप्त हो जाएगा।"
आगे की राह
- जबकि भारत-अमेरिका संबंधों की में हो रही बढ़ोतरी भारतीयों के लिये राहतमंद है, किंतु भारत को इस द्विपक्षीय आख्यान में अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अस्पष्ट वास्तविकताओं के प्रति सतर्क बने रहना चाहिये।
- ‘भारत को एक महान शक्ति बनाने के लिये’ सहायता करने के अमेरिकी प्रस्ताव और इस घोषणा कि ‘दुनिया के दो महान लोकतंत्रों के पास दुनिया की दो सबसे बड़ी सेनाएँ भी होनी चाहिये’ को अति-उत्साह से ग्रहण नहीं किया जाना चाहिये और इन पर शांतिपूर्ण तरीके से विचार करना चाहिये।
- माना जाता है कि चीन ने अपनी स्थिति को पिछले 30 वर्षों में अमेरिका द्वारा प्रदत्त या चोरी की गई उन्नत प्रौद्योगिकी से काफी मज़बूत किया है।
- भारत को अपनी ‘रणनीतिक साझेदारी’ दर्शाने हेतु अमेरिकी कंपनियों से लगभग 22 बिलियन डॉलर के सैन्य हार्डवेयर की खरीद करनी पड़ी है जो ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘बाह्य निर्भरता से मुक्ति’ के भारतीय लक्ष्य के दृष्टिकोण से एक विशिष्ट प्रतिगामी कदम है।
- हमें स्टील्थ फाइटर्स, जेट इंजन, उन्नत रडार और पनडुब्बियों के साथ-साथ विमान-वाहकों के लिए परमाणु प्रणोदन सहित ऑस्ट्रेलिया को प्रदान की जा रही सभी प्रौद्योगिकियों (उनके सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक ज्ञान सहित) की भी आवश्यकता है।
- अपनी पूरी क्षमता हासिल करने के लिये भारत को एकाधिकारवाद के विरुद्ध सुरक्षा के साथ ही अपनी अर्थव्यवस्था की पुनर्बहाली के लिये पर्याप्त समय या अवसर की आवश्यकता होगी।
- यह राहत उसे उन्नत प्रौद्योगिकी तक पहुँच बनाने और अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ावा देने में सक्षम बनाएगी।
- अपने स्वयं के संघर्षो से जूझने की तैयारी करते हुए भारत को बाहरी संतुलन की तलाश करने की आवश्यकता होगी।
- ‘वास्तविक राजनीति’ (Realpolitik) की माँगों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसे पुरानी धारणाओं को तोड़ने और नई साझेदारियों में प्रवेश करने की भी आवश्यकता है।
- फ्राँस और यूरोप के साथ मज़बूत संबंध का निर्माण करना: लंबे समय तक यूरोप भारत के लिये राजनयिक रूप से गतिहीन क्षेत्र ही रहा था। भारत ने जब से यह समझा कि छोटे से लक्ज़मबर्ग से लेकर उभरते हुए पोलैंड तक प्रत्येक यूरोपीय राष्ट्र के पास भारत के लिये बहुत कुछ है, तब से यूरोप भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक प्रमुख केंद्र बन गया है।
- पिछले कुछ वर्षों में फ्राँस के साथ भारत की रणनीतिक भागीदारी में तेज़ी आई है। उदाहरण के लिये भारत सरकार ने हिंद महासागर की सुरक्षा के मामले में फ्राँस के साथ मिलकर कार्य करने की दिल्ली की पूर्व की अनिच्छा का त्याग कर दिया है।
- पिछले कुछ वर्षों में भारत ने ब्रिटेन के साथ एक नई साझेदारी के निर्माण का प्रयास किया है, जो विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, एक प्रमुख वित्तीय केंद्र एवं एक प्रौद्योगिकीय शक्ति है और वैश्विक मामलों में काफी महत्त्वपूर्ण है।
- भारत को निम्नलिखित बातों को ध्यान रखने की आवश्यकता है:
- सर्वप्रथम भारत को फ्राँस, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका को याद कराना होगा कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में उनके साझा हित निहित हैं और आपसी झगड़े से इस बड़े लक्ष्य को कमज़ोर करने का खतरा है।
- दूसरा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रभावी निरोध के लिये भू-भाग की विशाल आवश्यकताओं को उजागर करना और यह ध्यान दिलाना कि ‘AUKUS’ द्वारा रेखांकित किये गए सभी क्षेत्रों (प्रभावी अंतर्जलीय क्षमताओं से लेकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता, क्वांटम कंप्यूटिंग और साइबर वारफेयर तक) में उच्च प्रौद्योगिकी तथा रक्षा-औद्योगिक सहयोग के विकास हेतु अतिव्यापी गठबंधनों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस और अन्य यूरोपीय देशों के लिये हिंद-प्रशांत भागीदारों के साथ सहयोग करने के पर्याप्त अवसर मौजूद हैं।
निष्कर्ष
भारत के हित फ्राँस और यूरोप के साथ-साथ क्वाड और ‘एंग्लोस्फीयर राष्ट्रों’ के साथ भी गहन रणनीतिक सहयोग में निहित हैं। हिंद-प्रशांत गठबंधन में विभाजन को रोकने के लिये पश्चिम के साथ भारत के विविध संबंधों का पूर्ण लाभ उठाया जाना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के बीच हाल में संपन्न समझौता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नई गतिशीलता ला सकता है। टिप्पणी कीजिये।