अंतर्राष्ट्रीय संबंध
ट्रंप युग में भारत-यूरोपीय संघ संबंध
- 06 Jul 2017
- 6 min read
सन्दर्भ
- जब 20 देशों के प्रमुख ज़र्मनी में आयोजित किये जा रहे जी-20 सम्मेलन में मिलेंगें, तो सबकी नज़रें अमेरिका पर होंगी। ऐसा इसलिये है, क्योंकि जिस भूमंडलीकरण और मुक्त बाज़ार की वकालत अमेरिका करता आ रहा था, उससे ट्रंप का मोहभंग होते हुए दिख रहा है। ऐसे में एकत्रित सभी देशों के प्रतिनिधि अमेरिका के प्रत्येक कदम पर पैनी नज़र रखेंगे।
- गौरतलब है कि इसी वर्ष मार्च में संपन्न जी-20 के वित्त मंत्रियों की बैठक में यह प्रतिबद्धता जताई गई थी कि सभी सदस्य देश सरंक्षणवाद के सभी प्रयासों का विरोध करेंगे।
- दरअसल, यह कहा जा रहा है कि यह पहला बड़ा मौका होगा, जब अमेरिका अपनी सरंक्षणवादी नीतियों से दुनिया के बड़े देशों को अवगत कराएगा। हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की बढ़ी हुई चिंताओं के बीच भारत की भूमिका अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि भारत अभी भी सर्वाधिक तेज़ी से उभरता हुआ बाज़ार बना हुआ है।
अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की चिंताएँ
- अमेरिका, पेरिस जलवायु संधि के माध्यम से आरोपित दायित्वों से मुक्त होना चाहता है, जबकि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का मानना है कि पेरिस संधि अपरिवर्तनीय है और उस पर सौदेबाज़ी नहीं होनी चाहिये।
- संरक्षणवाद को वैश्विक प्रगति में बाधक मानते हुए यूरोपीय संघ का कहना है कि “जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और आप्रवासन के कारणों से उत्पन्न संघर्ष किसी क्षेत्र विशेष तक ही सिमट कर नहीं रह जाते, जो समझता है कि विश्व की समस्याएँ अलग-थलग होकर या संरक्षणवाद से सुलझायी जा सकती है, वह भारी भूल कर रहा है”।
- इस जी-20 सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, पर्यावरण नीति और आप्रवासन पर गंभीर बहस होने की उम्मीद है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पेरिस जलवायु संधि से बाहर निकलने की घोषणा के बाद पश्चिमी देश बंट गए हैं।
- विदेश व्यापार और आप्रवासन के मुद्दे पर भी ट्रंप अलग रवैया अख्तियार कर रहे हैं। उम्मीद की जा रही है कि ट्रंप के जलवायु संधि छोड़ने के बाद जी-20 शिखर सम्मेलन में बातचीत आसान नहीं होने वाली है।
क्यों बढ़ गई भारत की भूमिका
- दरअसल, यह तो तय है कि जिन नीतियों को लागू करने की बात करके ट्रंप सत्ता में आए हैं, उनसे वह पीछे नहीं हटने वाले। ऐसे में भारत निवेश आकर्षित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के तौर पर उभर सकता है।
- भारत और यूरोपीय संघ दोनों ने अपने करीबी संबंधों की वास्तविक क्षमता पर ध्यान नहीं दिया है। अनिश्चितताओं के इस वातावरण में ये संबंध दोनों ही देशों के लिये एक महत्त्वपूर्ण पूंजी है। द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग का विस्तार करके महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ हो सकते हैं।
- हाल ही में भारत ने कई महत्त्वपूर्ण सुधार किये हैं जैसे कि जीएसटी। इसके अलावा, भारत में विकास को बढ़ावा देने के लिये कई बड़े बुनियादी ढाँचागत परियोजनाएँ शुरू की गई हैं।
- विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमानों की बात करें तो वर्तमान विकास दर को बनाए रखते हुए भारत वर्ष 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।
- हालाँकि इन अनुमानों में भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते के संभावित प्रभावों का अवलोकन नहीं किया गया है। उल्लेखनीय है कि दोनों पक्षों के बीच मुक्त व्यापार समझौता यानी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट अभी बहाल नहीं हो पाया है।
- यह ऐसे आँकड़ें हैं, जिनसे मोटर वाहन व्यवसाय, रसायन और दवा उद्योग और चिकित्सा प्रौद्योगिकी क्षेत्र की यूरोपीय कंपनियाँ भारत में अपने कारोबार को बढ़ाने के लिये प्रेरित होंगी।
निष्कर्ष
यूरोपीय संघ का गठन द्वितीय विश्वयुद्ध के पाँच साल के बाद हुआ था। इसका उद्देश्य शांति स्थापित करना था। दरअसल, फ्रांस और जर्मनी के बीच 1950 में एक समझौता हुआ था, जिसके मुताबिक भविष्य में दोनों देश आपस में एक दूसरे के खिलाफ हमला नहीं बोलेंगे। उसके सात साल बाद रोम में एक संधि हुई, जिसमें यूरोपीय संघ का उदय हुआ था।
विदित हो कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों को एकल बाज़ार के तहत समान प्रशासनिक प्रणाली के अंर्तगत काम करना होता है, जिसमें सभी देशों के नागरिकों के लिये समान नियम होते हैं। इंग्लैंड के अलग होने के बाद, यूरोपीय संघ ने संगठन को व्यावहारिक बनाने पर ज़ोर दिया है और अभी भी यूरोप के कई शक्तिशाली देश इसके ही झंडे तले आर्थिक गतिविधियाँ चला रहे हैं। ऐसे में भारत और यूरोपीय संघ का एक-दूरे के करीब आना, इस जी-20 सम्मेलन को यादगार बना सकता है।