इंडो-अफगान संबंधों की व्यावहारिक चुनौतियाँ | 10 Aug 2017

चर्चा में क्यों है?
कुछ समय पहले बहुत उम्मीदों एवं प्रयासों के पश्चात् ‘भारत-अफगानिस्तान एयर कॉरीडोर’ (India-Afghanistan air corridor) का उद्घाटन किया गया था, लेकिन पिछले कुछ समय से इस प्रोजेक्ट को कार्गो विमानों की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जो कि चिंता का विषय है|

पृष्ठभूमि

  • ध्यातव्य है कि दिसंबर 2016 में पंजाब के अमृतसर में आयोजित हुए “हार्ट ऑफ़ एशिया शिखर सम्मेलन” के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी द्वारा इस प्रोजेक्ट के विषय में सहमति व्यक्त की गई थी| 
  • इस प्रोजेक्ट को अफगानिस्तान से वाघा सीमा तक ट्रकों के माध्यम से होने वाली माल की आवाजाही में, पाकिस्तान के बाधा उत्पन्न करने वाले व्यवहार के चलते होने वाली देरी के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है|

अफगानिस्तान का पक्ष

  • वास्तविकता यह है कि इस प्रोजेक्ट का विचार सर्वप्रथम राष्ट्रपति अशरफ घानी द्वारा प्रस्तुत किया गया था|
  • इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत व्यापारियों द्वारा अपने माल को सड़क मार्ग के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने ले जाने के लिये किये जाने वाले भुगतान का अफगान सरकार द्वारा निम्नांकन किया जाएगा|
  • स्पष्ट रूप से ऐसी कोई भी गतिविधि भारत के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को सुरक्षित रखने की अफगान सरकार की प्रतिबद्धता को प्रकट करती है|

भारत का पक्ष 

  • उल्लेखनीय है कि भारत-अफगानिस्तान व्यापार मार्ग की महत्ता को मद्देनज़र रखते हुए इस संबंध में भारत द्वारा भी स्वीकृति प्रदान की गई|
  • यही कारण था कि जब 19 जून को अफगानिस्तान से पहला मालवाहक विमान दिल्ली पहुँचा, तो स्वयं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और एम.जे.अकबर के द्वारा उस विमान का स्वागत किया गया|
  • इस प्रोजेक्ट को पूर्ण रूप से संचालित हुए अभी कुछ ही समय हुआ है और इतने कम समय में इसका सैन्य समस्याओं से जूझना आश्चर्य की बात है|
  • स्पष्ट रूप से यह अफगानिस्तानी व्यापारियों के लिये एक बेहद चिंता का विषय है क्योंकि कम समय में खराब होने वाले सामानों जैसे- फल, सब्जियाँ इत्यादि के संदर्भ में, उन्हें बहुत बड़े स्तर पर हानि का सामना करना पड़ेगा|
  • चिंता की बात यह है कि यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि सरकार एक मालवाहक विमान को पर्याप्त सुरक्षा नहीं उपलब्ध करा पा रही है| इस संबंध में अधिकारियों द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया जा रहा है कि ये केवल ऊपरी समस्याएँ हैं जिनका जल्द से जल्द हल निकालने का प्रयास किया जा रहा है|
  • हालाँकि, अफगानिस्तान की यह स्थिति भारत के समक्ष एक बड़ा प्रश्न खड़ा करती  है। क्या भारत को भी पश्चिमी देशों के साथ अपनी कनेक्टिविटी और व्यापार को सुरक्षित करने संबंधी प्रयासों को अनुकूलित करने का प्रयास चाहिये अथवा नहीं? 
  • यह एक चिंता का विषय है कि एक तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत इस संबंध में दृढ़ता से उत्तर देने की स्थिति में नहीं है| 
  • यह और बात है कि अफगानिस्तान को विकास सहायता हेतु 2 अरब डॉलर प्रदान करने  की अपनी प्रतिबद्धता के बावजूद, भारत सरकार के द्वारा पिछले कुछ वर्षों में कुछ नई बुनियादी ढाँचागत परियोजनाएँ भी शुरू की हैं|
  • इनमें से कुछ प्रमुख परियोजनाएँ तो ऐसी है जिनके संबंध में एक दशक पहले ही योजना बना ली गई थी| उदाहरण के तौर पर, ज़ारंज देलाम राजमार्ग (Zaranj Delaram highway) जो ईरान को अफगानिस्तान से जोड़ता है, हेरात बांध, दोशी-चारीकर बिजली परियोजना (Doshi-Charikar power project) एवं अफगानिस्तान के संसद परिसर के निर्माण सहित कईं ऐसी परियोजनाएँ हैं, जिनके संबंध में एक लंबे समय से प्रक्रिया चल रही थी|
  • इसके अलावा, ईरान के चाबहार बंदरगाह (Chabahar port) और पारगमन व्यापार के विकास के लिये किये जाने वाले (भारत-अफगानिस्तान-ईरान)त्रिपक्षीय समझौते के संबंध में भी भारत को ध्यान देने की आवश्यकता है।

वास्तविक स्थिति

  • विदित हो कि जहाँ एक ओर उक्त त्रिपक्षीय समझौते को अभी तक ईरान के द्वारा स्वीकृति प्रदान नहीं की गई है| वहीं दूसरी ओर भारत के आई.पी.जी.एल. (India Ports Global Limited) के द्वारा ईरान के चाबहार को अफगानिस्तान के ज़हेंदां (Zahedan) से जोड़ने वाली रेलवे लाइन बिछाने एवं उसके लिये रेलवे बर्थ तैयार करने संबंधी कार्य में भी लगातार देरी हो रही है|
  • ध्यातव्य है कि इस परियोजना को पहली बार वर्ष 2011 में तैयार किया गया था| 
  • यही स्थिति दूसरी अन्य परियोजनाओं की भी हैं| वर्ष 2015 में आरंभ हुई तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन के संबंध में भी अभी तक पर्याप्त अनुवर्ती कार्रवाई नहीं हुई है।
  • ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान और ईरान इन दोनों देशों के साथ भी भारत का व्यवहार पाकिस्तान के समान खिलाफत वाला ही है| तथापि, इन तीनों के मध्य उस स्तर पर कार्य नहीं हो रहा है जिसकी योजनाएँ बनाते समय कल्पना की गई थी|
  • स्पष्टतः इन तीनों राष्ट्रों को अपने आपसी संबंध मज़बूत बनाने के साथ-साथ अन्य महत्त्वपूर्ण कनेक्टिविटी एवं वाणिज्य वाले अवसरों को खोलने का प्रयास करना चाहिये| इतना ही नहीं बल्कि मध्य एशिया के बाज़ारों का विस्तार रूस से लेकर यूरोप तक करने का भी प्रयास किया जाना चाहिये। हालाँकि, भारत सरकार द्वारा इस संबंध में प्रयास जारी है, संभवतः परिणाम भी अपेक्षाकृत ही प्राप्त होंगे|