अंतर्राष्ट्रीय संबंध
यूक्रेन संकट पर भारत का रुख
- 18 Apr 2022
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यह एडिटोरियल 08/04/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Ukraine and the anatomy of India's neutrality” लेख पर आधारित है। इसमें यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और मामले पर भारत के रुख के संबंध में चर्चा की गई है।
अंतर्राष्ट्रीय युद्ध संकटों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया में स्वतंत्रता के समय से ही कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। भारत का रुख हमेशा से सोवियत संघ समर्थक और सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस समर्थक रहा है।
अतीत में अंतर्राष्ट्रीय संकट के प्रति भारत की प्रतिक्रिया
- वर्ष 1956 में हंगरी की क्रांति के समय वहाँ तैनात सोवियत सैन्य बलों ने हस्तक्षेप जारी रखा लेकिन भारत ने इसकी निंदा नहीं की।
- हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप के एक वर्ष बाद वर्ष 1957 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत द्वारा निंदा नहीं किये जाने का बचाव करते हुए संसद में कहा कि “दुनिया में साल-दर-साल और दिन-ब-दिन बहुत-सी चीज़ें घटित होती रही हैं, जिन्हें हमने बेहद नापसंद किया है। हमने उनकी निंदा इसलिये नहीं की क्योंकि जब कोई किसी समस्या को हल करने की कोशिश कर रहा होता है तब उसे भला-बुरा कहने और निंदा करने से कोई मदद नहीं मिलती।”
- जवाहरलाल नेहरू का यह स्वयंसिद्ध भविष्य के संघर्षों (विशेष रूप से जहाँ उसके सहयोगी देश संलग्न थे) के प्रति भारत के दृष्टिकोण का मार्गदर्शक बना रहा। चाहे वह सोवियत संघ का हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया (1968) या अफगानिस्तान (1979) में हस्तक्षेप हो या इराक पर अमेरिकी आक्रमण (2003), भारत ने कमोबेश इसी दृष्टिकोण का अनुसरण किया।
रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत का रुख
- यूक्रेन पर रूस के आक्रमण पर भारत की प्रतिक्रिया—जहाँ उसने किसी पक्ष को बिना भला-बुरा कहे नागरिकों की हत्या की निंदा की और संयुक्त राष्ट्र मतदान से अनुपस्थित रहा, इसी ऐतिहासिक रूप से सतर्क तटस्थता की नीति से मौलिक रूप से अलग नहीं रही है।
- भारत अमेरिका द्वारा प्रायोजित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के उस प्रस्ताव से भी दूर रहा जिसमें यूक्रेन के विरुद्ध रूस की आक्रामकता की कड़ी निंदा की गई थी।
- भारत यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प से भी अलग रहा।
- भारत अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के प्रस्ताव से भी अलग रहा जो यूक्रेन में चार परमाणु ऊर्जा स्टेशनों और चेर्नोबिल सहित विभिन्न परमाणु अपशिष्ट स्थलों की सुरक्षा से संबंधित था।
- यूक्रेन संकट पर भारत का रूख विश्व में कोई एकाकी रुख नहीं है।
- एक अन्य प्रमुख लोकतंत्र दक्षिण अफ्रीका भी रूस की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र मतदान से अलग रहा।
- संयुक्त अरब अमीरात (जो खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका का निकट सहयोगी है और हज़ारों अमेरिकी सैनिकों की मेजबानी करता है) भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस मामले पर आहूत मतदान से अलग रहा।
- पश्चिम एशिया में अमेरिका के सबसे घनिष्ठ सहयोगी इज़राइल ने रूसी हमले की निंदा तो की, लेकिन प्रतिबंध व्यवस्था में शामिल होने से इनकार कर दिया और यूक्रेन को अपनी रक्षा प्रणाली भेजने से भी मना कर दिया।
- उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के सदस्य तुर्की ने भी ऐसा ही किया और यूक्रेन एवं रूस के बीच मध्यस्थता के लिये आगे बढ़ा।
- लेकिन इनमें से कोई भी देश पश्चिम के उस तरह के दबाव और सार्वजनिक आलोचना के दायरे में नहीं आया जैसा भारत के साथ हुआ।
- अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी भारत की स्थिति को ‘कुछ हद तक अस्थिर’ बताया। बाइडेन प्रशासन में ‘अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र पर उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार’ ने अमेरिकी प्रतिबंधों को दरकिनार करते हुए रूस के साथ व्यापार करने की स्थिति में भारत को ‘परिणाम’ भुगतने की चेतावनी दी।
पश्चिमी देशों द्वारा भारत को चुनिंदा रूप से लक्षित क्यों किया जा रहा है?
- इसके तीन व्यापक राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक कारण हो सकते हैं।
- राजनीतिक दृष्टिकोण से, पश्चिम ने सावधानीपूर्वक इस आख्यान के निर्माण की कोशिश की है कि यूक्रेन पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का हमला ‘फ्री वर्ल्ड’ पर हमला है।
- यदि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत रूसियों को दंडित करने के पश्चिमी नेतृत्व वाले इस दाँव से बाहर रहता है तो उनका यह आख्यान कमज़ोर नज़र आएगा।
- आर्थिक दृष्टिकोण से, रूस पर प्रतिबंध मुख्यतः पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए हैं। केवल तीन एशियाई देशों—जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने ही इसका समर्थन किया है। विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन ने अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन नहीं किया है।
- यदि भारत भी भुगतान प्रतिबंधों के संबंध में कोई रास्ता निकालकर रूस के साथ व्यापार करना जारी रखता है तो यह निश्चित रूप से रूसी अर्थव्यवस्था पर प्रतिबंधों के प्रभाव को मंद कर देगा।
- रणनीतिक रूप से, यह शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से सबसे महत्त्वपूर्ण वैश्विक संकट है। भारत ने पिछले 30 वर्षों में अमेरिका के साथ और सामान्य रूप से पश्चिम के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी में प्रगति की है, जबकि रूस के साथ भी उसका मधुर संबंध बना रहा है।
- इस संतुलन को हाल के अतीत में किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा था। लेकिन यूक्रेन पर रूस के हमले और रूस एवं पश्चिम के बीच संबंधों के लगभग पूरी तरह विखंडन बाद अब भारत जैसे देशों को कोई एक पक्ष चुनने की कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।
- अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में रूपांतरण के साथ (जहाँ अमेरिका भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के लिये एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में भी देखता है) उम्मीद थी कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता छोड़ देगा और पश्चिम के साथ संरेखित रुख अपनाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
यूक्रेन की त्रासदी के लिये पश्चिम कैसे ज़िम्मेदार है?
- यूक्रेन संकट में पश्चिम एक निर्दोष दर्शक भर नहीं है। वर्ष 2008 में यूक्रेन को नाटो सदस्यता का वादा किया गया था जो उसे नहीं मिली। लेकिन यह वादा भर रूस के सुरक्षा समीकरण को आशंकित कर देने के लिये पर्याप्त था और वह आक्रामक रूप से आगे बढ़ा। उसने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और डोनबास में उग्रवाद को समर्थन देने लगा।
- अमेरिका ने यूक्रेन को धन और सीमित मात्रा में हथियार देना तो जारी रखा लेकिन रूस के विरुद्ध यूक्रेन के प्रतिरोध को सशक्त कर सकने के लिये कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
- इस प्रकार, पश्चिम न केवल रूस को रोकने में विफल रहा बल्कि युद्ध के प्रति उसकी सीमित प्रतिक्रियाएँ रूस को चीन से बेहतर संबंध बनाने की ओर प्रेरित कर रही हैं।
- भारत के पास दो ही विकल्प थे। वह रूस विरोधी पश्चिमी दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए चीन से रूस की निकटता की गति को और प्रश्रय देता अथवा मास्को के साथ संलग्नता की अपनी शर्तों को बनाए रखते हुए रूस को अपने एशियाई संबंधों में विविधता लाने का अवसर देता। निश्चय ही फिर भारत ने दूसरा विकल्प चुनना उपयुक्त समझा।
आगे की राह
- हथियारों के मामले में आत्मनिर्भरता: चीनी विस्तारवाद, सीमाओं पर दुस्साहसिक चुनौती और अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य बल की अचानक वापसी के परिदृश्य में भारत को एशिया में चीन के रणनीतिक एवं भू-आर्थिक खतरे से निपटने के लिये अमेरिका और रूस दोनों की आवश्यकता है।
- हालाँकि, यह समझना भी महत्त्वपूर्ण है कि जब दो प्रमुख शक्तियों के बीच संघर्ष होता है तो उन्हें अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी होती है। इसलिये आत्मनिर्भरता बेहद महत्त्वपूर्ण है।
- भारत जब हथियारों के मामले में वास्तविक ‘आत्मनिर्भरता’ प्राप्त करेगा, तभी वह दुनिया का बेहतर तरीके से सामना करने में सक्षम होगा।
- संतुलित दृष्टिकोण: यदि एशिया में स्थल क्षेत्र पर भारत-रूस साझेदारी महत्त्वपूर्ण है तो हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी समुद्री विस्तारवाद का मुक़ाबला करने के लिये ‘क्वाड’ अनिवार्य है।
- चीन का मुकाबला कर सकने की अनिवार्यता भारतीय विदेश नीति की आधारशिला बनी हुई है और यूक्रेन में रूसी कार्रवाई पर दिल्ली के रुख से लेकर हर बात तक भारत की स्थिति इसी अनिवार्यता से प्रेरित है।
- भारत में पश्चिम के हितों को समझना: भारत के विदेश नीति के भीतर इस बात पर बहस चल रही है कि भारत अपनी तटस्थता से किस लाभ-हानि की स्थिति में रहेगा और पश्चिम का साथ देने पर क्या परिणाम सामने आ सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त, यह सोच भी मौजूद है कि पश्चिम इस समय भारत से अलग होने का जोखिम नहीं उठा सकता, क्योंकि उसे भारत के बाज़ारों की और एक लोकतंत्र के रूप में भारत की स्थिति की ज़रूरत है क्योंकि वह चीन को नियंत्रित करने के लिये भागीदारों की तलाश कर रहा है।
निष्कर्ष
- भारत किसी प्रमुख शक्ति का ‘क्लाइंट स्टेट’ नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि क्लाइंट स्टेट भी पश्चिम की प्रतिबंध व्यवस्था में शामिल नहीं हुए। भारत किसी गठबंधन प्रणाली का सदस्य भी नहीं है; क्वाड (भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका) कोई गठबंधन नहीं है।
- किसी भी अन्य देश की तरह भारत भी व्यावहारिक यथार्थवाद और अपने मूल राष्ट्रीय हितों के आधार पर अपनी नीतियाँ अपनाने का अधिकार रखता है। भारत का रुख यह है कि रणनीतिक स्वायत्तता में अवलंबित एक तटस्थ स्थिति जो दोनों पक्षों के साथ चैनलों को खुला रखती है, उसके हितों की पूर्ति के लिये अनुकूल है।
- इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत युद्ध का समर्थन करता है। इसने ऐसा किया भी नहीं है। भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार अमेरिका इन सूक्ष्म भेदों को नहीं समझता या समझने की इच्छा नहीं रखता।
अभ्यास प्रश्न: किसी भी अन्य देश की तरह भारत भी व्यावहारिक यथार्थवाद और अपने मूल राष्ट्रीय हितों के आधार पर अपनी नीतियाँ अपनाने का अधिकार रखता है। हाल के रूस-यूक्रेन युद्ध के आलोक में इस कथन की चर्चा कीजिये।