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भारत का दल-बदल विरोधी कानून: चुनौतियाँ और समाधान

  • 21 Dec 2023
  • 17 min read

यह एडिटोरियल 19/12/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The hollowing out of the anti-defection law” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में दल-बदल विरोधी कानून से संबद्ध समस्याओं एवं परिणामों के बारे में चर्चा की गई है जिसे वर्ष 1985 में सदन सदस्यों को दल बदलने या अपने दल के निर्देश के विरुद्ध मतदान करने से रोकने के लिये लागू किया गया था।

प्रिलिम्स के लिये:

दल-बदल विरोधी कानून, सर्वोच्च न्यायालय, राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य और अन्य (2007), रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (1994), बालचंद्र एल. जारकीहोली बनाम बी.एस. येदियुरप्पा (2010), 91वाँ संविधान संशोधन,  2003

मेन्स के लिये:

दल-बदल विरोधी कानून, चुनौतियाँ और आगे की राह।

संसद ने दीर्घकालिक विधायी भटकाव के बाद राजनीतिक दल-बदल पर अंकुश लगाने के लिये दल-बदल विरोधी कानून (दसवीं अनुसूची) को लागू किया था। 1960 के दशक में दल-बदल की घटनाओं की बड़ी संख्या, तीव्रता, लापरवाही और अनियंत्रित उदासीनता को देखते हुए इसे लागू किया गया था और इससे दल-बदल की घटनाएँ लगभग बंद हो गई। दल-बदल के कारण न केवल बार-बार सरकारों का पतन होता रहा था, बल्कि राजनीतिक दलों के अंदर व्यापक अस्थिरता भी उत्पन्न हुई जहाँ सत्तालोलुप राजनेताओं ने राजनीतिक दलों के लिये भारी समस्याएँ पैदा कर दी थीं। 

दल-बदल विरोधी कानून (Anti Defection Law):

  • कानून: 
    • दल-बदल विरोधी कानून (संविधान की दसवीं अनुसूची में शामिल) सदन सदस्यों (संसद सदस्य और राज्य विधानमंडल सदस्य) द्वारा बार-बार दल-बदल पर अंकुश लगाने के लिये लागू किया गया था। 
      • इसे वर्ष 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया। 
    • यह ऐसे मामलों में निर्वाचित सदन सदस्य को सदन से निरर्हित या अयोग्य ठहराने का प्रावधान करता है, जहाँ वे स्वेच्छा से दल बदल लेते हैं या अपने दल के निर्देश के विरुद्ध सदन में मतदान करते हैं। 
  • दल-बदल के आधार पर निरर्हता: 
    • यदि वह स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है। 
      • रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (1994) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दल-बदल विरोधी कानून के तहत निरर्हता के लिये किसी सांसद या विधानमंडल सदस्य के औपचारिक रूप से अपने दल से त्याग-पत्र देने की आवश्यकता नहीं है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: स्वेच्छा से अपनी सदस्यता छोड़ना औपचारिक रूप से त्याग-पत्र देने का पर्याय नहीं है... सदस्यता से औपचारिक त्याग-पत्र के अभाव में भी किसी सदस्य के आचरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल की अपनी सदस्यता छोड़ दी है जिससे वह संबद्ध रहा था। 
      • राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य एवं अन्य (2007) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के गठन के लिये किसी दूसरे पक्ष के नेता को आमंत्रित करने के लिये राज्यपाल से अनुरोध करने वाला पत्र सौंपना भी स्वेच्छा से अपने मूल दल की सदस्यता छोड़ देने के समान होगा।  
    • यदि वह अपने राजनीतिक दल या उसके द्वारा निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति की पूर्व अनुज्ञा के बिना निदेश के विरुद्ध सदन में मतदान करता है या मतदान से विरत रहता है। 
    • यदि सदन का कोई निर्वाचित सदस्य, जो किसी राजनीतिक दल द्वारा खड़े किये गए अभ्यर्थी से भिन्न रूप से सदस्य निर्वाचित हुआ है और निर्वाचन के पश्चात किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है। 
      • बालचंद्र एल. जारकीहोली बनाम बी.एस. येदियुरप्पा (2010) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन सरकार के मंत्रालय में शामिल होने वाले स्वतंत्र (निर्दलीय) विधायक, सत्तारूढ़ दल में शामिल हुए बिना, अपनी निर्दलीय पहचान को नहीं खोएँगे। इस प्रकार, मंत्रिपरिषद में उनका शामिल होना निरर्हता का आधार नहीं होगा। 
  • दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद या छूट: 
    • किसी सदस्य को निरर्हित नहीं ठहराया जाएगा यदि: 
      • उसके मूल राजनीतिक दल का किसी अन्य दल में विलय हो जाता है तथा वह और मूल दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्य इस विलय के लिये सहमत होते हैं। 
      • वर्ष 2003 के 91वें संविधान संशोधन के तहत एक तिहाई सदस्यों के एक अलग समूह बना लेने पर अयोग्यता से छूट (जैसा इस संशोधन से पूर्व लागू नियम था) को निरस्त कर दिया गया। 
      • यदि उसने या उसकी दल के किसी अन्य सदस्य ने विलय को स्वीकार नहीं किया है और एक अलग समूह के रूप में कार्य करने का विकल्प चुना है। 
      • यदि वह अपने मूल दल से अलग हो जाता है, लेकिन किसी अन्य दल में शामिल नहीं होता है। 

दल-बदल विरोधी कानून से संबद्ध प्रमुख मुद्दे:  

  • यह लोकतंत्र के विचार को कमज़ोर करता है: यह सदन सदस्यों के वाक्-स्वातंत्र्य एवं अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य को प्रतिबंधित कर प्रतिनिधिक एवं संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करता है और उन्हें उनको निर्वाचित करने वाले मतदाताओं के बजाय अपने दल के नेताओं के प्रति जवाबदेह बनाता है। 
  • निर्धारित समयसीमा का अभाव: कानून में दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने के लिये एक स्पष्ट एवं समयबद्ध तंत्र का अभाव है और सदस्यों को अयोग्य घोषित करने की शक्ति सदन के पीठासीन अधिकारियों के विवेक पर छोड़ देता है जो पक्षपाती या राजनीतिक दबाव से प्रभावित हो सकते हैं।  
    • हालाँकि, केशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर विधान सभा एवं अन्य (2020) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधानसभाओं और संसद के अध्यक्षों/सभापति को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर तीन माह की अवधि के भीतर अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय कर लेना होगा। 
  • अभी भी दल-बदल की अनुमति: कानून के अंतर्गत अभी भी सदस्यों के किसी समूह को बिना किसी दंड के अन्य दल में शामिल होने की अनुमति प्रदान की गई है, यदि वह अपने मूल दल के निर्वाचित सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई सदस्यों से मिलकर बना समूह हो। यह दलों के अवसरवादी और अनैतिक विलय एवं विभाजन के लिये अवसर उत्पन्न करता है तथा राजनीतिक व्यवस्था की स्थिरता एवं अखंडता को कमज़ोर करता है। 
    • इस तरह यह विधायकों की खरीद-फरोख्त या ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ को बढ़ावा देता है। 
  • मूल कारणों को संबोधित नहीं करना: यह दल-बदल के मूल कारणों— जैसे कि दल के अंदर लोकतंत्र की कमी, भ्रष्टाचार और चुनावी कदाचार को संबोधित नहीं करता है। यह राजनीतिक दलों को दल-बदलुओं को लुभाने या दल में शामिल करने से निषिद्ध नहीं करता है और इस प्रकार दल-बदल की घटना को रोकने में विफल रहता है। 

दल-बदल विरोधी कानून को सबल करने के लिये कौन-से कदम उठाये जाने चाहिये? 

  • प्रक्रियात्मक मुद्दों का समाधान: 
    • अधिनिर्णय की शक्ति में बदलाव: सदन के अध्यक्ष/सभापति द्वारा दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने की वर्तमान प्रथा पूर्वाग्रह और राजनीतिक प्रभाव के संबंध में चिंता पैदा करती है। अधिनिर्णय की शक्ति निर्वाचन आयोग जैसी स्वतंत्र संस्था को सौंपने से निष्पक्षता बढ़ सकती है। 
      • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने अनुशंसा की थी कि दल-बदल के आधार पर सदस्यों की निरर्हता का मुद्दा निर्वाचन आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा तय किया जाना चाहिये। 
    • समयबद्ध निर्णय: दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने के लिये कठोर समयसीमा निर्धारित करने से दीर्घकालिक अनिश्चितता एवं राजनीतिक हेरफेर को रोका जा सकेगा। 
    • न्यायिक सहारा: कुछ मामलों में सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में सीधे अपील की अनुमति देने से मनमाने निर्णयों के विरुद्ध अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। 
  • दलीय जवाबदेही को सुदृढ़ करना: 
    • आंतरिक लोकतंत्र: दल के अंदर लोकतंत्र और पारदर्शिता को लागू करने के लिये विनियमनों के निर्माण से सदन सदस्यों का मोहभंग कम हो सकता है और दलों के भीतर असंतोष से प्रेरित दल-बदल पर अंकुश लग सकता है। 
    • पार्टी फंडिंग में सुधार: दलीय वित्तपोषण या पार्टी फंडिंग को अधिक पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाने से राजनीति में धन शक्ति का प्रभाव कम हो सकता है जो दल-बदल को प्रोत्साहित करता है। 
    • एंटी-पोचिंग उपायों का क्रियान्वयन: पदों या लाभों की पेशकश करने के माध्यम से दल-बदल को प्रेरित करने के प्रयासों को प्रतिबंधित करना या दंडित करना ऐसे अभ्यासों को हतोत्साहित कर सकता है। 
  • स्थिरता और जवाबदेही को संतुलित करना: 
    • विलय को छूट: राजनीतिक दलों के उपयुक्त विलय के मामले में दल-बदल को छूट देना स्थिरता को हानि पहुँचाए बिना राजनीतिक पुनर्गठन को प्रोत्साहित कर सकता है। 
    • जनहित संबंधी विचार: दल-बदल के मामलों में सार्वजनिक हित का आकलन करने के लिये एक तंत्र की शुरुआत करना—जहाँ केवल तभी निरर्हता की अनुमति हो जब यह स्पष्ट रूप से जनहित को क्षति पहुँचाए, स्थिरता और जवाबदेही के बीच संतुलन का निर्माण कर सकता है। 
    • असहमति का अधिकार: विशिष्ट मुद्दों पर असहमति जताने के सदन सदस्यों के अधिकार को मान्यता देने से (जहाँ वे निरर्हित होने के दबाव से मुक्त हों) विधायिका के भीतर स्वस्थ बहस एवं स्वतंत्र विचार को बढ़ावा मिल सकता है। 
  • अन्य देश दल-बदल से कैसे निपट रहे हैं? 
    • यूके: यूनाइटेड किंगडम में राजनीतिक दल-बदल कानून द्वारा स्पष्ट रूप से निषिद्ध नहीं है, लेकिन दल-बदलुओं को अपने दल और मतदाताओं की ओर से बदले की कार्रवाई या प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ सकता है। इन कार्रवाइयों में दलीय विशेषाधिकारों का खोना, अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना और रिकॉल पेटीशन (recall petitions) या उप-चुनाव (by-elections) जैसी कानूनी चुनौतियों का जोखिम उठाना शामिल हो सकता है। 
    • यूएसए: इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीतिक दल-बदल के विरुद्ध किसी विशिष्ट कानून का अभाव है। हालाँकि ये घटनाएँ दुर्लभ हैं, फिर भी वैचारिक या रणनीतिक कारणों से दल-बदल हो सकता है। मूल दल, मतदाताओं और मीडिया की ओर से प्रतिक्रिया या ‘बैकलैश’ का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन दल-बदलुओं को नया समर्थन भी हासिल हो सकता है। नए पार्टी लेबल के तहत पुनर्निर्वाचन के लिये मैदान में उतरना राजनीतिक माहौल के आधार पर चुनौतियाँ और अवसर दोनों प्रस्तुत करता है।

निष्कर्ष: 

भारतीय संविधान में दल-बदल विरोधी कानून का उद्देश्य राजनीतिक दल-बदल पर अंकुश लगाकर लोकतांत्रिक स्थिरता का निर्माण करना है। इसके महत्त्व के बावजूद, सदन सदस्यों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने और प्रक्रियात्मक मुद्दों जैसी चुनौतियाँ सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों से प्रेरित प्रस्तावित कदमों का उद्देश्य स्थिरता और जवाबदेही को संतुलित करना है। दल विलय और जनहित के मामलों में छूट को मान्यता देते हुए, भारत के गतिशील राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक बने रहने के लिये इस कानून को बेहतर बनाए जाने की आवश्यकता है जिससे एक सशक्त लोकतंत्र सुनिश्चित हो सकेगा। 

अभ्यास प्रश्न: दल-बदल विरोधी कानून से संबद्ध चुनौतियों की पहचान और चर्चा कीजिये। इस कानून से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिये आवश्यक सुधार बताइये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संविधान की निम्नलिखित अनुसूचियों में से किसमें दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014)

(a) दूसरी अनुसूची
(b) पाँचवीं अनुसूची
(c) आठवीं अनुसूची
(d) दसवीं अनुसूची

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. कुछ वर्षों से सांसदों की व्यक्तिगत भूमिका में कमी आई है जिसके फलस्वरूप नीतिगत मामलों में स्वस्थ रचनात्मक बहस प्रायः देखने को नहीं मिलती। दल परिवर्तन विरोधी कानून, जो भिन्न उद्देश्य से बनाया गया था, को कहाँ तक इसके लिये उत्तरदायी माना जा सकता है? (2013)

प्रश्न. ‘एकदा स्पीकर, सर्वदा स्पीकर’! क्या आपके विचार में लोकसभा अध्यक्ष पद की निष्पक्षता के लिये इस कार्यप्रणाली को स्वीकारना चाहिये? भारत में संसदीय प्रयोजन की सुदृढ़ कार्यशैली के लिये इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? (2020)

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