क्या भारत अपनी क्षेत्रीय भूमिका को फिर से परिभाषित कर रहा है? | 12 Jun 2018
संदर्भ
विदेश नीति के मामले में नई दिल्ली द्वारा हाल ही में उठाए गए कदम एक महत्त्वपूर्ण बदलाव की ओर इशारा करते हैं। 21वीं शताब्दी में व्यावहारिकता के साथ शीत-युद्ध युग के रूढ़िवादी विचारों के मिश्रण से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ने मान लिया है कि विदेश नीति के लिये जिन द्विआधारी विकल्पों और आसान समाधानों की कल्पना की गई थी, वे इस उभरती हुई बहुध्रुवीय दुनिया में बहुत अधिक जटिल होती जा रही हैं। भारत ने न केवल हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र के लिये अपने दृष्टिकोण को नए रूप में प्रस्तुत किया है बल्कि यह महाद्वीपीय यूरेशिया के साथ गहरे और अधिक रचनात्मक संबंध भी स्थापित कर रहा है।
नए माहौल का निर्माण
- सिंगापुर में आयोजित शांगरी-ला वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री के भाषण पर चार विषयों का प्रभुत्व था जोकि सामूहिक रूप से विकसित विदेशी नीति को दर्शाता है।
- सबसे पहले, केंद्रीय विषय यह था कि एक समय जब दुनिया सत्ता परिवर्तन, अनिश्चितता और भूगर्भीय विचारों तथा राजनीतिक मॉडल पर प्रतिस्पर्द्धा का सामना कर रही होगी, तो भारत खुद को एशिया में एक स्वतंत्र शक्ति और अभिनेता के रूप में पेश करेगा।
- भाषण के सबसे महत्त्वपूर्ण भागों में से एक भाग वह था जब श्री मोदी ने तीन महान शक्तियों के साथ भारत के संबंधों का वर्णन किया। रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका को साझेदार के रूप में प्रस्तुत किया जिनके साथ अंतर्राष्ट्रीय और एशियाई भू-राजनीति में परस्पर व्याप्त हितों के आधार पर भारत के संबंध हैं।
- भारत-चीन संबंधों को "कई परत युक्त" (many layers) जैसे जटिल शब्दों द्वारा चित्रित किया गया था, लेकिन एक सकारात्मक प्रच्छन्न भाव के साथ यह भी स्पष्ट किया कि इस संबंध में स्थिरता भारत तथा विश्व के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- सभी प्रमुख देशों के लिये लक्षित संकेत यह था कि भारत, कुछ सीमित राष्ट्रों के समूह या किसी गुट में समुदित भारतीय शक्ति के रूप में शामिल नहीं होगा बल्कि अपनी क्षमता तथा विचारों के आधार पर अपने मार्ग का निर्धारण स्वयं करेगा।
संक्षेप में इसका वास्तविक अर्थ यह है कि भारत किसी भी ऐसे राजनितिक सैन्य शिविर का हिस्सा नहीं बनना चाहता जहाँ रणनीति तथा नीति निर्माण में इसकी भूमिका अत्यंत कम हो।
चीन फैक्टर
- हालाँकि चीन के उदय ने निस्संदेह भारत की क्षेत्रीय भागीदारी को बढ़ाने के लिये मांग और स्थान में व्यापक वृद्धि की है लेकिन विशाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका अब चीन केंद्रस्थ के रूप में परिकल्पित नहीं है।
- भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी भी धर्मयुद्ध के संबंध में आने वाले वर्षों में भारत की एक्ट ईस्ट नीति में अवरोध उत्पन्न करने वाली अवधारण को दूर कर दिया जब उन्होंने यह टिपण्णी की कि “भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र को किसी रणनीति या सीमित सदस्यों वाले किसी क्लब के रूप में नहीं देखता है और न ही किसी ऐसे समूह के रूप में जो अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।”
- भारतीय प्रधानमंत्री ने ज़ोर देते हुए कहा कि यदि कोई यह कल्पना करता है कि लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की पहचान इसे स्वाभाविक रूप से उभरती हुई वैश्विक व्यवस्था के साथ एक तरफ खड़ा कर देगी तो यह एक गलतफहमी होगी
भारत की समावेशी भागीदारी
- अफ्रीका के तटों से लेकर अमेरिका तक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की स्वयं की भागीदारी समावेशी होगी... यह बहुलवाद, सह-अस्तित्व, खुलापन और संवाद हमारी सभ्यतावादी विचारों की नींव है।
- बड़े देश अपनी शासन प्रणाली में मतभेदों के बावजूद शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकते हैं और वे एक साथ काम कर सकते हैं।
- दूसरे शब्दों में, सभ्यताओं के संघर्ष या विचारधारात्मक संघर्षों में उलझी हुई महान शक्तियों के मुकाबले भारतीय लोकतंत्र की विविधता कहीं अधिक शांतिप्रद है।
- इस नीति-समायोजन के बावजूद, इस क्षेत्र के लिये भारत का दृष्टिकोण ‘दूर रहने वाली नीति’ या मानदंडों से रहित नहीं होगा।
क्या था इस भाषण का उद्देश्य
- कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस भाषण का उद्देश्य केवल चीन को लक्षित करना था।
- लेकिन इस तरह के वक्तव्य को समझने के लिये यह अधिक सटीक है कि भारत किस प्रकार के आदेश को देखना चाहता है और कैसे सक्रिय रूप से उस आदेश का समर्थन करना चाहता है।
प्रतिद्वंद्विताओं का दौर
- महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत का मानना है, ऐसे "नियम और मानदंड सभी की सहमति पर आधारित होने चाहिये, न कि कुछ की शक्ति पर।"
- नरेंद्र मोदी ने अमेरिका और चीन दोनों को अपनी प्रतिद्वंद्विता का प्रबंधन करने और अपनी "सामान्य" प्रतियोगिता को संघर्ष के रूप में परिणत होने से रोकने का आग्रह भी किया।
क्या होगी आगे की राह?
- भारत इस क्षेत्र में और इससे परे कई और साझेदारियां करेगा, यह "विभाजन के एक तरफ या दूसरी तरफ" किसी का चुनाव नहीं करेगा।
- भारत अपने सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति वफ़ादार रहेगा जो समावेश, विविधता और निश्चित रूप से अपने हितों पर ज़ोर देते हैं।
क्या मोदी के भाषण ने भारत की विदेश नीति में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ स्थापित किया?
विश्लेषकों का मानना है कि मोदी द्वारा दिये गए भाषण का संदेश सुस्पष्ट था। पिछले दशक तक अमेरिका की ओर बढ़ने के बाद, दिल्ली अपने भविष्य और भाग्य के प्रति अधिक ज़िम्मेदारी लेने के साथ ही एक बहुपक्षीय दुनिया में विशेष स्थान और नीति की तलाश कर रही है।
विदेश नीति का महत्त्व
- दुनिया की शुरुआत घर से होती है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से पास-पड़ोस, पास-पड़ोस से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व की और संबंधों का विस्तार होता है। पड़ोसी देशों से संबंध बनाए रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि :
- भारत की विदेश नीति में पड़ोसी राष्ट्र एक आधारभूत भूमिका निभाते हैं जिस पर इसके द्वि-पक्षीय, क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध निर्भर करते हैं।
- देश की सुरक्षा को पड़ोसी देशों की राजनीति प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।
- भारत की विदेश नीति में सभी राष्ट्रों का अपना अलग-अलग महत्त्व है तथा वे विभिन्न संदर्भों में विदेश नीति को प्रभावित करते हैं।
- इसके अतिरिक्त सभी पड़ोसियों के साथ सुदृढ़ एवं मित्रतापूर्ण संबंधों के आधार पर ही भारत की दक्षिण एशिया तथा विश्व के संकलन में इसकी स्थिति का आंकलन किया जा सकता है।
निष्कर्ष
- प्रतिद्वंद्विता का एशिया हम सभी को बहुत पीछे ले जाएगा। सहयोग का एशिया इस शताब्दी को आकार देगा। इसलिये प्रत्येक देश को खुद से यह प्रश्न करना चाहिये कि क्या ऐसे विकल्प एक और संयुक्त दुनिया का निर्माण कर रहे हैं, या नए विभाजन के लिये दुनिया को मजबूर कर रहे हैं?
- यूरेशिया की रिमलैंड में और हिंद-प्रशांत के द्वार पर अपनी अनूठी भौगोलिक स्थिति को प्रतिबिंबित करने के लिये उपमहाद्वीप के आसपास महाद्वीपीय और समुद्री पर्यावरण में बिजली एवं व्यवस्था निर्माण के संतुलन पर दोहरा ध्यान देने से इसे प्रेरित किया जा सकता है।