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अभिनंदन की रिहाई तथा पाकिस्तान से युद्ध और शांति के जोखिम

  • 02 Mar 2019
  • 13 min read

संदर्भ

आखिरकार पाकिस्तान ने 1 मार्च की रात को भारतीय वायु सेना (IAF) के विंग कमांडर अभिनंदन वर्थमान को वाघा-अटारी बॉर्डर पर रिहा कर दिया। इसकी वज़ह से वाघा-अटारी बॉर्डर पर होने वाला बीटिंग रीट्रीट कार्यक्रम टाल दिया गया।

आपको बता दें कि अभिनंदन का मिग-21 विमान 27 फरवरी की सुबह पाकिस्तान के हमले को रोकने के दौरान हवा से जमीन पर आ गिरा था और पैराशूट से कूदने के दौरान वह पाकिस्तानी क्षेत्र में जा पहुँचे। उसके बाद से वह पाकिस्तान की कैद में थे। दोनों देशों में चल रहे तनावपूर्ण माहौल के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने 28 फरवरी को पाकिस्तान की संसद में घोषणा की थी कि अभिनंदन को सद्भावना के तौर पर 1 मार्च को रिहा किया जाएगा।

जिनेवा कन्वेंशन का मुद्दा फिर से आया चर्चा में

अभिनंदन की सुरक्षित रिहाई के लिये भारत कूटनीतिक दबाव के साथ-साथ उन सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियों और कानूनों का सहारा ले रहा था, जो युद्ध में मानवता की रक्षा के लिये बनाए गए हैं। जिनेवा संधि का पालन करवाना उसी का एक हिस्सा था। यह समझौता असल में दो राष्ट्रों के बीच होने वाले संघर्ष पर लागू होता है। इसमें युद्धरत सैनिकों की सुरक्षा की बात कही गई है।

जिनेवा कन्वेंशन में चार संधियां शामिल

  1. पहली संधि में ज़मीनी युद्ध में शामिल सैनिकों की रक्षा की बात कही गई है
  2. दूसरी संधि में समुद्र में होने वाले युद्ध में शामिल सैनिकों की रक्षा की बात कही गई है
  3. तीसरी संधि युद्धबंदियों से जुड़ी है
  4. चौथी संधि युद्ध के समय आम नागरिकों (Civilians) की सुरक्षा की बात कहती है

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि यदि युद्ध की स्थिति न हो और हिरासत में लिया गया व्यक्ति सुरक्षा बल का जवान हो, तो क्या तब भी उसे जिनेवा संधि के तहत सभी तरह की रियायतें और सुविधाएँ मिलती हैं?

क्यों बनाया गया जिनेवा कन्वेशन?

जिनेवा कन्वेंशन इसलिये बनाया गया है, ताकि सुरक्षा बलों को युद्ध के दुष्प्रभावों से बचाया जा सके। युद्ध के दौरान जैसे ही कोई सैनिक घायल होता है और आत्मसमर्पण करता है, तो इस संधि के तहत यह शत्रु सैनिकों का दायित्व है कि वे उस घायल जवान के अधिकारों की पूरी रक्षा करें। इसके तहत घायल को न सिर्फ चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराई जाती है, बल्कि उसके मानवाधिकारों का भी पूरा ख्याल रखा जाता है।

अभिनंदन के मामले में जिनेवा कन्वेंशन की तीसरी संधि हमारे लिये महत्त्वपूर्ण साबित हुई। यहाँ एक खास बात यह भी है कि इस संधि के अधिकांश प्रावधान कस्टमरी इंटरनेशनल लॉ बना दिये गए हैं, अर्थात् कोई देश इस संधि का हिस्सा है अथवा नहीं, पर उसे इसके प्रावधानों को मानना ही होगा। कह सकते हैं कि जिनेवा संधि के प्रावधान विश्व के सभी देशों के लिये बाध्यकारी हैं।

जिनेवा की तीसरी संधि की धारा-4 में युद्धबंदियों की परिभाषा और उनके अधिकारों का उल्लेख है। इसमें विस्तार से यह बताया गया है कि युद्धबंदियों को किस तरह की बुनियादी सुविधाएँ मिलनी चाहिये। इसमें यह भी तय किया गया है कि पकड़े गए सैनिक के पद और पदनाम का पूरा सम्मान किया जाना चाहिये। इसके तहत युद्धबंदी को इसके लिये भी बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह अपने देश की गुप्त सूचनाएँ जाहिर करे।

इस संधि की धारा-13 युद्धबंदी के साथ मानवीय व्यवहार की बात कहती है। इसमें युद्धबंदी का ‘स्टेटस’ आड़े नहीं आना चाहिये। यहाँ ‘स्टेटस’ का मतलब उसकी पहचान से है कि वह वाकई सुरक्षा बल का जवान है या नहीं? इसे स्पष्ट करने के लिये एक बार फिर अभिनंदन की ओर लौटते हैं...अगर अभिनंदन सिविल ड्रेस में होते या उनके पास बैच नंबर आदि नहीं पाए जाते, तो संभव है कि पहचान न कर पाने का बहाना पाकिस्तान बनाता और उनकी सुरक्षित रिहाई के लिये इतनी आसानी से तैयार नहीं होता। लेकिन यहां ऐसी कोई स्थिति नहीं थी, क्योंकि अभिनंदन के पास ऐसे तमाम पहचान चिह्न थे, जो उन्हें सुरक्षा बल के जवान बताने के लिये पर्याप्त थे।

सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियों में सर्वोपरि है मानवाधिकारों का मुद्दा

वैसे मानवाधिकारों को लेकर हुई सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियों में प्रत्येक व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों का हर हाल में सम्मान करने की बात कही गई है, फिर चाहे वह अपने देश का नागरिक हो या किसी अन्य देश का। ऐसे में यदि पाकिस्तान अभिनंदन को किसी तरह का कोई नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता या उन्हें सौंपने में आनाकानी करता, तो उसे जिनेवा सहित तमाम अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों के उल्लंघन का दोषी माना जाता...और यह स्थिति किसी भी देश के लिये अच्छी नहीं मानी जाती।

ऐसे में, अभिनंदन उन सभी सुविधाओं के हकदार थे, जिनका ज़िक्र विशेषकर जिनेवा कन्वेंशन की तीसरी संधि में है। लेकिन दोनों देशों के बीच जैसे संबंध लंबे समय से चले आ रहे हैं, उनके मद्देनज़र यह सवाल कहीं ज़्यादा अहम हो गया था कि वह भारत कब लौटेंगे? चूँकि भारत और पाकिस्तान किसी घोषित युद्ध में शामिल नहीं हैं, ऐसे में पाकिस्तान को अविलंब अभिनंदन को वापस भारत को सौंप देना चाहिये था। हालाँकि जिनेवा संधि में यह प्रावधान है कि यदि कोई देश घोषित युद्ध में उलझे हों, तो युद्ध-समाप्ति के बाद या किसी समझौते के बाद सभी ‘युद्धबंदियों’ को रिहा कर देना चाहिये।

पाकिस्तान में अस्पष्ट रहती है तस्वीर

दबाव में ही सही, पाकिस्तान ने अभिनंदन को रिहा कर दिया है और यह कदम आपसी तनाव घटाने में कारगर हो सकता है। यदि पाकिस्तान और देरी करता, तो उस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ सकता था। संभवत: इसी तरह के कई दबाव बढ़ने की आशंका ने ही पाकिस्तान को मजबूर किया होगा कि वह अभिनंदन को ससम्मान और सुरक्षित रिहा करे। वैसे यह तय करना बेहद मुश्किल है कि पाकिस्तान में फैसले कौन करता है- जनता की चुनी हुई सरकार, फौज या कई बार तो सुप्रीम कोर्ट? ऐसे देश से युद्ध और शांति, दोनों की बात करते समय यह ध्यान में रखना होगा कि पाकिस्तान में किसी एक संस्था से मिलकर लिया गया कोई फैसला ज़रूरी नहीं कि दूसरे को भी रास आए।

परदे के पीछे की कूटनीति

भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे वर्तमान तनाव के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि वह दोनों देशों के बीच तनाव कम करने का प्रयास कर रहे हैं। अभिनंदन को रिहा करने की घोषणा पाकिस्तान ने बाद में की, लेकिन ट्रंप ने वियतनाम में उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग उन के साथ हुई शिखर वार्ता के बाद प्रेस कॉन्फ्रेन्स में पहले ही कह दिया था कि दक्षिण एशिया से अच्छी खबर मिलने वाली है। वैसे ट्रंप ने यह स्पष्ट नहीं किया कि परदे के पीछे अमेरिका कैसी भूमिका निभा रहा है, लेकिन भारतीय विदेश अधिकारियों ने ट्रंप के दावे का खंडन करने में देर नहीं लगाई। परदे के पीछे की कूटनीति (यदि कोई थी तो) का विवरण आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जाएगा, लेकिन दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव को रोकने के लिये अमेरिकी दखल का एक लंबा इतिहास रहा है, विशेषकर 1998 में दोनों देशों के परमाणु संपन्न होने के बाद।

भारत को स्वीकार नहीं किसी तीसरे पक्ष का दखल

भारत ने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है कि पाकिस्तान के साथ उसके द्विपक्षीय मुद्दों में किसी तीसरे पक्ष के लिये कोई जगह नहीं है। साथ ही भारत ने कश्मीर के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की पाकिस्तान की हर कोशिश नाकाम की है और दुनिया को यह स्पष्ट कहा है कि वह इस मुद्दे पर किसी की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन 9/11 के बाद परिस्थितियो में तेज़ी से बदलाव आया और आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) समर्थित अंतर्राष्ट्रीय पहल की शुरुआत हुई। इस बदले हुए माहौल में भारत ने सिर्फ एक मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ वैश्विक समुदाय की मदद के लिये देखा है...पाकिस्तानी धरती पर पनपने वाले और वहाँ से आतंकी कार्रवाइयाँ चलाने वाले आतंकवादी समूहों पर रोक लगाई जाए। इसके लिये (भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधियों को रोकने) पाकिस्तान की सेना और राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव डालना और इस तरह के हमले होने पर उन्हें रोकने के लिये कार्रवाई करना। इसमें भारत को काफी हद तक कामयाबी भी मिली है।

पुलवामा फिदायीन आतंकी हमले के बाद भारत ने जो साहसिक कार्रवाई की है, उसके पश्चात् देश को हर समय सतर्क और सावधान रहने की ज़रूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी कि भारत को अब इस तथ्य से लाभ उठाना होगा कि सीमापार से होने वाले आतंकवाद पर अब दुनिया हमारी बात से रजामंदी रखती है। सीमा पर बढ़ती आतंकी गतिविधियों और हाल ही पुलवामा में आतंकी हमले के संदर्भ में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को सटीक, प्रभावकारी और समसामयिक जवाब दिया है।

पाकिस्तान पर नहीं किया जा सकता भरोसा

भारतीय वायुसेना की इस सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान से चुप बैठने की उम्मीद करना बेमानी होगा। हमें यह आशा नहीं करनी चाहिये कि अब कश्मीर में आतंकवाद समाप्त हो जाएगा। यह वास्तविकता से आँखें मूंदने के समान ही होगा। यह ज़रूर है कि पाकिस्तान को भारतीय वायुसेना की जवाबी कार्रवाई से सही संकेत मिल गया है कि भविष्य में भी भारत राष्ट्रहित के लिये उचित उत्तर देने में पीछे नहीं रहेगा।
इस हमले के बाद पाकिस्तान सरकार पर चौतरफा अंतर्राष्ट्रीय दबाव है कि वह आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई कर उनके अड्डों को नष्ट करे। लेकिन, हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि पूर्ववर्ती सरकारों की तरह इमरान खान की सरकार पर भी फौज का दबाव है। इसके विपरीत भारत सरकार मज़बूत है और कोई भी कदम उठाने में गंभीर दिखाई देती है। हमने अपनी सैन्य ताकत के साथ लोकतांत्रिक एकता भी दुनिया को दिखाई है और भविष्य में भी हमें इसी तरह से एकजुट रहना होगा।

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