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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

वैश्विक व्यापार और बौद्धिक संपदा : समस्या एवं समाधान

  • 23 Sep 2017
  • 13 min read

भूमिका

वर्तमान में वैश्विक व्यापार और बौद्धिक संपदा दोनों एक चौराहे पर खड़े नजर आ रहे हैं। वर्तमान का यह एक ऐसा दौर है जब बहुपक्षीय सहमति वाले मुद्दे संदेह के दायरे में आ गए हैं। यह कहना मुश्किल हो गया है कि कौन-सा समझौता भविष्य के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण होगा और कौन-सा वर्तमान में? आज के इस बदलते दौर में एक मुख्य समस्या वैश्विक सामंजस्य बनाए रखने हेतु आवश्यक समझौतों के अनुपालन की है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता में आने में बाद अमेरिका को अधिकतर मुक्त व्यापार समझौतों से बाहर निकालने के निर्णय किये है। इसके पीछे उनके द्वारा यह तर्क दिया गया कि वह अमेरिकी कंपनियों और उसके लोगों को व्यापार हेतु एक अधिक अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहे हैं। इस लेख के अंतर्गत इन सभी मुद्दों के संदर्भ में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है कि वैश्विक कंपनियों के लिये मज़बूत पेटेंट संरक्षण और निरंतर मुनाफे को सुनिश्चित करने के लिये व्यापार के नए सौदों/समझौतों के संबंध में किस प्रकार कार्य किया जाए? 

व्यापार समझौतों के संबंध में आने वाली समस्याएँ

  • वर्ष 1956 में बौद्धिक संपदा अधिकारों पर पहली बार एक अंतर्राष्ट्रीय नियामक व्यवस्था ट्रिप्स (Trade-Related Aspects of Intellectual Property Rights-TRIPS) के संबंध में एक समझौता किया गया।
  • हालाँकि, इस समझौते ने अधिकांशतः विकासशील देशों के लिये एक प्रमुख मध्य-मार्ग का प्रतिनिधित्व किया। तथापि, यह कई अन्य राष्ट्रों के लिये केवल एक शुरूआती बिंदु भर था।
  • ऐसा इसलिये, क्योंकि इसके बाद विश्व के कई देशों द्वारा न केवल द्विप्क्षीय व्यापार समझौतों के माध्यम से निजी निवेशकों के हितों की सुरक्षा को बढ़ावा प्रदान किया गया, बल्कि वृहद स्तर पर सार्वजनिक क्षेत्र के हितों पर भारी खर्च भी किया गया।

अमेरिकी पक्ष

  • अमेरिका द्वारा अपने घरेलू कॉरर्पोरेट हितों के महत्त्व के विषय में कभी कोई हताशा अथवा पछतावा प्रकट नहीं किया गया।
  • इसका मुख्य कारण यह रहा है कि अमेरिका द्वारा अपने सहभागी देशों में व्यापार समझौतों को पूरा करने के लिये आई.पी. संरक्षण संबंधी मज़बूत घरेलू मानदंडों की पूर्ति हेतु व्यापार समझौतों को प्रमुख साधन बनाया गया।
  • पिछले 20 वर्षों में, अमेरिकी रणनीति इस संबंध में बहुत स्पष्ट रही है। अमेरिका द्वारा बहुपक्षीय व्यवस्था से दूर बाज़ारों में मज़बूत आई.पी. संरक्षण सुनिश्चित के लिये विश्व के अलग-अलग देशों के साथ द्विपक्षीय समझौतों को आगे बढ़ाने पर बल दिया गया है।

पेटेंट संबंधी समझौतों का प्रभाव

  • एक अंतर्संबंधित तथा अत्यधिक वैश्विक दुनिया में जो भी घटित होता है उसके परिणाम उतनी ही तेज़ी से (और अधिक कठोर प्रभावों के साथ) सामने आते हैं।
  • ऐसी स्थिति में इन परिणामों का सार इस बात पर निर्भर करता है कि ये मज़बूत नियम वैश्विक कॉर्पोरेट परिदृश्य में किस प्रकार एवं क्या बदलाव ला रहे हैं।
  • पिछले कुछ सालों से जब से अधिकतर क्षेत्रों में पेटेंट के सुरक्षा संबंधी प्रावधानों को सृदृढ़ किया गया है, तब से इसके संबंध में दी जाने वाली अनुदान राशियों से संबद्ध शर्तें भी आसान हो गई हैं।
  • न केवल इस प्रकार की आसान पेटेंट संबंधी आवश्यकताओं के चलते कंपनियाँ वृहद स्तर पर पटेंट का दावा करती हैं, बल्कि निरंतर कुछ नया करने तथा नए मौलिक प्रयासों के बल पर व्यापार को आगे बढ़ाने को भी प्रोत्साहन देती हैं। विदित हो कि पेटेंट का दावा न केवल मौलिक प्रयासों के संबंध में किया जा सकता है, बल्कि नए आविष्कारों, शोध-पत्रों (जिनका वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के लिये भी महत्त्व है) के संबंध में भी किया जा सकता है।
  • ध्यातव्य है कि विश्व के बहुत से देशों द्वारा सुरक्षा संबंधी मानकों के रूप में ‘ट्रिप्स-प्लस को सहमति देने के उपरांत कई सुरक्षा संबंधी नीतियों को अमान्य घोषित कर दिया गया है।
  • आज के समय में सबसे प्रभावशाली कंपनी वह नहीं है जिसके पास सबसे बड़ी तकनीकी सफलताएँ हैं अथवा सबसे बड़ी अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाएँ हैं, बल्कि प्रभावशाली कंपनी वह है जिसका आई.पी. पोर्टफोलियो निश्चित रूप से सबसे बड़ा है तथा जो पेटेंट के मुद्दों पर व्यापक मुकदमेबाज़ी में संलग्रित है।

पेटेंट की दुनिया में गैर-प्रवर्तनकर्त्ता कंपनियों की भूमिका

  • वैश्विक स्तर पर, लाभ बड़े निगमों और नई प्रकार की गैर-प्रवर्तनकर्त्ता कंपनियों (भविष्यगत प्रौद्योगिकियों के संबंध में नकली विवरणियाँ प्राप्त करने के लिये अंधाधुंध पेटेंट कराने वाली कपंनी) के बीच बड़े पैमाने पर लाभों को विभाजित करके कॉर्पोरेट क्षेत्रों का स्तरीकरण किया जाता है। 
  • उल्लेखनीय है कि ये गैर-प्रवर्तनकर्त्ता कंपनियाँ इस समस्त व्यवस्था का एक अहम् हिस्सा होती है। जब ये कंपनियाँ प्रौद्योगिकी जैकपॉट को लक्षित करते हुए प्रयास करती हैं, तो ये न केवल संपूर्ण बाज़ार को नियंत्रित करने की क्षमता रखती हैं बल्कि नियंत्रण प्रतियोगिता और धन की शक्ति के रूख में बदलाव करने की क्षमता भी अर्जित कर लेती हैं।
  • ऐसा ही एक प्रभावशाली उदाहरण क्वालकॉम इंक (Qualcomm lnc.) नामक एक अमेरिकी कंपनी का है। यह हज़ारों पेटेंटों की कानूनी पेटेंटधारक कंपनी है, जिसे वायरलेस टैक्नोलॉजी युक्त मोबाइल फोन के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ध्यातव्य है कि वर्ष 2016 में इस कंपनी को बौद्धिक संपदा लाइसेंसों के ज़रिये कुल 5.7 बिलियन डॉलर का लाभ हुआ था। 

भारतीय परिदृश्य में इसकी वास्तविक एवं उससे उत्पन्न चुनौतियाँ

  • यदि इस संबंध में भारतीय परिदृश्य में विचार करें तो हम पाएंगे कि भारत का फार्मास्यूटिकल और सॉफ्टवेयर क्षेत्र अभी भी संतुलन स्थापित करने में लगा हुआ है। स्पष्ट रूप से ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों द्वारा अपना लाभ सुनिश्चित करते हुए निष्पक्ष और मुक्त प्रतिस्पर्धा की गारंटी देना बहुत कठिन है।
  • संभवतः यही कारण है कि अंकटाड (United Nations Conference on Trade and Development - UNCTAD) की हाल की व्यापार और विकास रिपोर्ट (Trade and Development Report) में भी इसी बात को इंगित किया गया है कि भारत को बड़ी कंपनियों (फार्मास्यूटिकल्स, मीडिया और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी जैसे उद्योगों से संबद्ध कंपनियों) के अनुचित वर्चस्व के खिलाफ अपने घरेलू क्षेत्रों की रक्षा के लिये मज़बूत उपाय की व्यवस्था करनी चाहिये।
  • इस रिपोर्ट में भारत को उन सभी समझौतों के संबंध में भी सतर्क रहने की सलाह दी गई है, जो यथास्थिति को सुरक्षित रखने के विकल्पों पर अधिक बल देते हैं।
  • इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में उन सभी पेटेंटों की भी पहचान की गई है जो बाज़ारों में एक अनुचित बाज़ार शक्ति के उपकरण के रूप में कार्य करते हैं।
  • इस रिपोर्ट में आँकड़े प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि पिछले बीस सालों की आर्थिक स्थिति का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि भारत की तुलना में अमेरिकी कंपनियों को अधिक लाभ प्राप्त हुआ है, जबकि भारत की घरेलू कंपनियों को लगातार हानि का सामना करना पड़ा है। 

क्या किये जाने की आवश्यकता है?

  • इन निष्कर्षों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस संबंध में क्या प्रयास किये जाने चाहिये।
  • जैसा की हम सभी जानते हैं कि वैश्विक स्तर पर तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारत का उच्च-प्रौद्योगिकी क्षेत्र पहले से ही काफी पिछड़ा हुआ है।
  • वस्तुतः भारत द्वारा आई.पी. मानकों का समर्थन करना (वैसे मानक जो तकनीकी विकास और प्रतिस्पर्धी बाज़ारों पर बिना किसी "विनर टेक्स ऑल" की विचारधारा का अनुपालन करते हैं) एक अफसोसजनक गलती साबित होगी।
  • सच तो यह है कि इस समय भारत को अपनी घरेलू नीति और बहुपक्षीय स्तर दोनों में बौद्धिक संपदा के संबंध में एक स्पष्ट एवं कठिन रूख अपनाने की ज़रूरत है।
  • घरेलू स्तर पर नवाचार को बढ़ावा देने के लिये उन सभी उपकरणों का प्रयोग किये जानने चाहिये जो बाज़ार की शक्ति के दुरूपोग, बाध्यकारी सौदेबाजी और आक्रामक विलय तथा अधिग्रहण संबंधी रणनीतियों के प्रति इसकी रक्षा करते हैं।
  • ऐसा करने का एकमात्र उद्देश्य भारतीय स्थानीय कंपनियों को एक सुरक्षित माहौल प्रदान करते हुए विकास की राह सुनिश्चित करना है।

निष्कर्ष

अर्जेंटीना में आयोजित होने वाली आगामी विश्व व्यापार संगठन की मंत्रिस्तरीय बैठक के संबंध में तैयारी शुरू हो गई है। इसके अंतर्गत जिन मुख्य मुद्दों पर विचार किये जाने की संभावना है, वे हैं- बड़े व्यवसायों द्वारा भविष्य में लाभकारी अवसरों के सृजन हेतु ई-कॉमर्स जैसे क्षेत्रों में नए नियमों को लागू करने पर बल दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त सार्जनिक हित में कॉर्पोरेट व्यवहार को नियंत्रित करने के लिये काफी हद तक सरकारों की क्षमता को सीमित करने के संबंध में भी प्रस्ताव पेश किये जाने की संभावना है। स्पष्ट रूप से इस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में भारत को बहुत संभलकर व्यवहार करने की ज़रूरत है, क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हम अमेरिका नहीं हैं अर्थात् आई.पी. के क्षेत्र में हम अभी बहुत पिछड़े हुए हैं। इन समस्त परिदृश्यों में यह सम्मेलन केवल दोहा दौर के दौरान हुई गलतियों को सुधारने का ही अवसर नहीं होगा, बल्कि यह विकास के साथ-साथ वैश्विक आई.पी. प्रणाली को संतुलित करने संबंधी पक्षों पर चर्चा करने का विकल्प भी प्रदान करेगा। निष्कर्षतः भारत का यह प्रयास वैश्विक व्यापार और आई.पी. एजेंडे को पुनर्परिभाषित करने की एक महत्त्वाकांक्षी शुरूआत साबित होगा। 

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