भूगोल
भारत को जल दक्षता (water efficiency) पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत
- 13 Jul 2018
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संदर्भ
पिछले कुछ समय से जल संसाधनों के प्रति चिंता और उनसे संबंधित जागरूकता का मामला चर्चा का विषय बना हुआ था। जल संसाधनों के बारे में होने वाली चर्चाएँ अब केवल दिल्ली के वातानुकूलित कमरों तक सीमित नहीं है बल्कि यह कार्यालयों, घरों और बाज़ारों में रोज की चर्चाओं में शामिल हो गई हैं। हाल ही में घटित जल संकट की दो प्रमुख घटनाओं शिमला जल संकट और नीति आयोग समग्र जल प्रबंधन सूचकाँक ने सभी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। हम अपने लेख की शुरुआत इन्हीं प्रमुख घटनाक्रमों से करेंगे।
शिमला जल संकट
- जल संकट की पहली खबर शिमला से आई जब पानी की कमी से उत्त्पन्न समस्या के कारण गर्मियों के दौरान शहर की अर्थव्यवस्था को चलाने वाले पर्यटकों को शहर से दूर जाने के लिये मज़बूर होना पड़ा।
- शिमला की इस घटना ने देश भर को इस बात की झलक दिखाई कि क्या परिणाम होंगे जब हम हम इसी तरह से पानी की बर्बादी करते रहेंगे।
नीति आयोग समग्र जल प्रबंधन सूचकाँक
- शिमला की घटना के बाद नीति आयोग द्वारा जारी समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (CWMI) ने पुनः सभी का ध्यान आकर्षित किया।
- CWMI एक अग्रणी प्रक्रिया है जो प्रमुख जल संसाधन से संबंधित संकेतकों की पहचान करने, उन्हें लक्षित करने और सुधारने की कोशिश करता है।
- इस सूचकांक ने जल संसाधनों की वर्तमान दुर्दशा को उजागर किया है कि कैसे इस सूची में खराब प्रदर्शन करने वाले प्रमुख 21 राज्यों (जहाँ भारत की लगभग 50% से अधिक आबादी निवास करती है) को वर्ष 2021 तक भूजल स्तर की कमी के कारण विभिन्न समस्यायों का सामना करना पड़ सकता है।
- इस सूचकांक में जल निकायों की पुनर्स्थापना, सिंचाई, खेती के तरीके, पेयजल, नीति और प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं के 28 विभिन्न संकेतकों के साथ 9 विस्तृत क्षेत्र शामिल हैं।
- यह सूचकांक राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को जल के प्रभावी और अधिकतम उपयोग करने और ज़रूरत के हिसाब से जल के पुनर्भरण के लिये प्रेरित करने की एक कोशिश करता है।
- गौरतलब है कि जल संसाधनों की सीमित उपलब्धता और जल की बढ़ती मांग को देखते हुए जल संसाधनों के सतत प्रबंधन का महत्त्व काफी बढ़ गया है।
- इस सूचकांक का इस्तेमाल जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिये उचित उपाय तय करने और उन्हें लागू करने में होगा।
- हालाँकि, अगला लक्ष्य यथार्थवादी, क्रियाशील और विशिष्ट नीतियों के एक समूह की पहचान करना है, जिससे राज्य जल संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ सकें।
- एकीकृत जल संसाधन विकास पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2050 तक पानी की अनुमानित मांग 1,180 बिलियन घन मीटर (बीसीएम) तक पहुँचने की संभावना है, जो मौजूदा 1,137 बीसीएम की उपलब्धता से कही ज्यादा है।
- वर्तमान में उपलब्ध जल के 80% का उपयोग (यानी 700 बीसीएम) सिंचाई के लिये होता है।
- हालाँकि, 1,137 बीसीएम जल की सीमित उपलब्धता के भीतर ही हमें घरेलू जल की आवश्यकता, औद्योगिक आवश्यकता, पारिस्थितिकीय जीव और बिजली उत्पादन आवश्यकता सहित जनसंख्या की बढ़ती मांग को पूरा करने की भी आवश्यकता है।
- यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2050 तक कुल जल की मांग के 68% के स्तर पर सिंचाई की आवश्यकता को कम किया जाने की आवश्यकता है।
- घरेलू और उद्योग क्षेत्रों में क्रमश: 9% और 7% मांग की संभावना है।
- इसके अलावा, सतह और भूजल के लिये सिंचाई दक्षता का वर्तमान स्तर क्रमश: 30% और 55% है। यह वांछित है कि 2025 तक सतह और भूजल सिंचाई की दक्षता का स्तर क्रमश: 60% और 75% तक पहुँच जाना चाहिये।
निम्नलिखित उपायों में कुछ प्रमुख नीतियाँ भी शामिल हैं जो राज्यों को जल उपयोग दक्षता पर त्वरित और महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त करने में मदद करेंगी और साथ ही बेहतर संसाधन प्रबंधन में भी मदद करेंगी।
पहला
- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और अन्य जल की कमी वाले राज्यों को तुरंत सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली की ओर बढ़ना चाहिये।
- उल्लेखनीय है कि देश में सूक्ष्म सिंचाई की कुल क्षमता का लगभग 69 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र शामिल है।
- परंपरागत सतही सिंचाई 60-70% दक्षता प्रदान करती है जबकि, स्प्रिंकलर से 70-80% तक की उच्च दक्षता और ड्रिप सिंचाई प्रणाली के साथ यह 90% तक हासिल की जा सकती है।
दूसरा
- राज्यों को कमांड एरिया डेवलपमेंट (सीएडी) पर ध्यान देना जारी रखना चाहिये।
- यह अब प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) का हिस्सा है जो "प्रति बूँद अधिक फसल" पर केंद्रित है।
- सीएडी वर्ष 1974 में लॉन्च हुआ था जो अब सिंचाई में जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिये व्यापक रूप से स्वीकार्य मॉडल बन गया है।
- इसके अलावा, सीएडी सिंचाई क्षमता निर्माण (आईपीसी) और सिंचाई क्षमता के उपयोग (आईपीयू) के बीच के अंतर को भरने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
तीसरा
- राज्यों में फसल पैटर्न को कृषि-जलवायु क्षेत्रों के अनुसार बदला जाना चाहिये।
- अनुचित फसल पैटर्न, फसल उत्पादकता और सिंचाई दक्षता दोनों को प्रभावित करते हैं।
- भारत हरित क्रांति के दिनों के बाद से काफी लंबा सफर तय कर चुका है और अब इसे जल उपयोग क्षमता और कृषि उत्पादकता के अधिक प्रचलित पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
- अनुचित फसल पैटर्न का ऐसा एक उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों के विभिन्न हिस्सों में गन्ना उत्पादन के कारण गंभीर जल संकट की स्थिति है।
- इसी तरह, पंजाब में जहाँ भूजल का 14 9% उपयोग किया जा चुका है वहाँ धान की खेती पानी के अप्रभावी उपयोग की ओर इंगित करती है।
चौथा
- हमें खेती के विखंडन के मुद्दे को उभारने की ज़रूरत है दरअसल, आय और उत्पादकता के विभिन्न पहलुओं से इस मामले का अध्ययन किया गया है, लेकिन इसमें जल उपयोग दक्षता को बढ़ाने के लिये अत्यधिक महत्त्व देने की आवश्यकता है।
- इस मुद्दे से निपटने के लिये निम्नलिखित दो उपाय हैं-
♦ सबसे पहले, राज्य मॉडल कृषि भूमि लीजिंग अधिनियम, 2016 (Model Agricultural Land Leasing Act, 2016) को अपनाने में तेज़ी लाई जा सकती है जो छोटे खेतों के एकीकरण की स्थिति उत्त्पन्न कर सकता है।
♦ हालाँकि, भारत में कृषि की अनौपचारिकता को देखते हुए, दूसरा विकल्प यानी किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का गठन प्रारंभिक स्तर पर लाभ प्रदान कर रहा है।
- दरअसल, एफपीओ किसानों को स्वामित्व की भावना प्रदान करते हैं और कम लेन-देन लागत के साथ सामुदायिक स्तर की भागीदारी को प्रोत्साहित करते हैं।
- भारत में लगभग 70% किसान सीमांत किसान हैं और औसत कृषि आकार 1.15 हेक्टेयर है।
- इसलिये एफपीओ के गठन का एक बड़ा अवसर है। इससे कृषि उपज, जल उपयोग और उत्पादन की लागत पर पैमाने की अर्थव्यवस्थाएँ पैदा होंगी।
निष्कर्ष
उपरोक्त उपायों में सिंचाई क्षेत्र में जल दक्षता के परिदृश्य को बदलने की बहुत बड़ी गुंजाइश है, जो भारत में जल संसाधन उपभोग की बड़ी आबादी हेतु ज़िम्मेदार है। वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य एक बड़े दृष्टिकोण को दर्शाता है, लेकिन भारत के सतत विकास के लिये जल संसाधनों को संरक्षित करना भी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब दोनों लक्ष्यों को एक-दूसरे से अलग न मानते हुए पूरी तरह से एक-दूसरे का पूरक माना जाए।