मेहमाननवाज़ी के बाद भी OIC का भारत विरोधी रुख बरकरार (India in OIC as Guest Country) | 04 Mar 2019
संदर्भ
1 और 2 मार्च को इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के विदेश मंत्रियों की परिषद का 46वाँ सत्र अबु धाबी में आयोजित किया गया। इस संगठन की स्थापना के बाद पिछले 50 वर्षों में यह पहली बार था, जब भारत को OIC की बैठक के उद्घाटन सत्र में बतौर गेस्ट ऑफ ऑनर आमंत्रित किया गया। मेज़बान देश संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने पाकिस्तान की कड़ी आपत्ति और बहिष्कार करने की धमकी के बावजूद OIC के विदेश मंत्रियों की बैठक में भारत को आमंत्रित करने के अपने निर्णय का बचाव किया। लेकिन इसके बाद हुए एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में अगले दिन 2 मार्च को समापन सत्र में OIC ने जम्मू-कश्मीर पर एक प्रस्ताव पारित कर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का समर्थन किया।
क्या कहा गया OIC के प्रस्ताव में?
इस प्रस्ताव में OIC के सदस्य देशों ने कहा कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान और भारत के बीच विवाद का अहम मुद्दा है और दक्षिण एशिया में शांति स्थापना के लिये इसका हल होना ज़रूरी है। प्रस्ताव में कश्मीर में कथित मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर गहरी चिंता जताई गई और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को कश्मीर विवाद पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को प्रस्तावों के लागू करने के लिये उनके दायित्व की बात कही गई। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि भारत कश्मीरियों के खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग कर रहा है। प्रस्ताव में भारतीय पायलट अभिनंदन को रिहा किये जाने पर पकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की तारीफ की गई है।
आपको बता दें कि इस संगठन से जुड़े देशों की ओर से जम्मू-कश्मीर को लेकर पास किये गए प्रस्ताव के एक दिन पहले यानी 1 मार्च को भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने विशिष्ट अतिथि के तौर पर इस संगठन की बैठक को संबोधित किया था। भारत की विदेश मंत्री को दिये गए सम्मान का पाकिस्तान ने विरोध किया था। OIC द्वारा जम्मू-कश्मीर को लेकर पास किये गए प्रस्ताव पर भारत ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और यह उसका आंतरिक मामला है।
मुद्दा क्या है?
1 मार्च को जब भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस्लामिक सहयोग संगठन (Organisation of Islamic Cooperation (OIC) की बैठक के उद्घाटन सत्र को संबोधित किया तो किसी को नहीं मालूम था कि इससे भारत और OIC के बीच संबंधों के एक नए युग का सूत्रपात होने वाला है। सरसरी तौर पर देखने से यह एक बेहद साधारण घटना प्रतीत होती है, लेकिन यदि इसे पाकिस्तान की नाराज़गी और बैठक के बहिष्कार की धमकी के आलोक में देखा जाए तो यह बेहद महत्त्वपूर्ण है। OIC ने पकिस्तान की अनदेखी करते हुए यह सुनिश्चित किया कि बतौर गेस्ट ऑफ ऑनर सुषमा स्वराज इस मंच को अवश्य संबोधित करें।
पहली बार परिषद की पूर्ण बैठक में 'गेस्ट ऑफ ऑनर' होने का निमंत्रण, विशेषकर पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ बढ़े तनाव के मद्द्देनज़र अपना एक अलग महत्त्व रखता है। यह इस बात का परिचायक है कि इस्लामिक देशों ने भी भारत के महत्त्व को पहचाना और स्वीकार किया है। इसे भारत के लिये एक बड़ी राजनयिक उपलब्धि माना जा सकता है।
पृष्ठभूमि
- 25 सितंबर 1969 को रबात में हुए ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन में OIC की स्थापना हुई थी।
- 57 देश इसके सदस्य हैं, जिसमें से 40 मुस्लिम बहुल देश हैं।
- संयुक्त राष्ट्र के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा अंतर-सरकारी संगठन है।
- पाकिस्तान इसके संस्थापक सदस्यों में शामिल है।
- इसका मुख्यालय सऊदी अरब के जेद्दा में है।
- UN और EU में यह स्थायी तौर पर प्रतिनिधिमंडल भेजता है।
- रूस और थाईलैंड जैसे देश इसके पर्यवेक्षक सदस्य हैं, जहाँ मुस्लिमों की संख्या अधिक नहीं है।
- मुस्लिम जनसंख्या के मामले में विश्व के शीर्ष देशों में शामिल होने के बावजूद भारत इसका सदस्य नहीं है।
- लगभग 34% मुस्लिम आबादी वाला इथोपिया भी इसका सदस्य नहीं है।
- OIC का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सद्भावना को बढ़ावा देने के साथ ही मुस्लिम देशों के हितों की सुरक्षा करना और इसके लिये आवाज़ उठाना है।
- अपने सदस्य देशों में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाना भी इसके लक्ष्यों में शामिल है।
अंतर्राष्ट्रीय जगत में OIC का महत्त्व
इस संगठन के सभी 57 सदस्य मुस्लिम देश हैं, जिनका एक ‘कश्मीर कॉन्टेक्ट ग्रुप’ भी है। इस पर पूरी तरह से पाकिस्तान का कब्ज़ा है और वह इसका इस्तेमाल कश्मीर पर अपनी सियासत चमकाने में करता रहा है। यही कारण है कि पिछले दो दशकों से कश्मीर मसले पर यह ग्रुप जो भी बयान जारी करता रहा, वह एकतरफा होता था और इस बार भी वैसा ही देखने को मिला, तस्वीर में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। यह संगठन वैश्विक राजनीति पर अपना प्रभाव रखता है। इसके सभी सदस्य देश मिलकर फैसला लेते हैं और पूरा संगठन उस फैसले पर खड़ा रहता है। संयुक्त राष्ट्र में भी ये देश एक ‘ब्लॉक’ की तरह काम करते हैं और एक साथ वोट देते हैं।
इस्लामिक देशों के साथ बनते नए समीकरण
- हर बार की तरह चाहे जो प्रस्ताव इस बैठक में भारत के विरुद्ध पारित हुआ हो, लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई कि स्वयं इस्लामी देश पाकिस्तान को एक सीमा से अधिक अहमियत देने को तैयार नहीं हैं।
यह इसलिये भी उल्लेखनीय है, क्योंकि अतीत में पाकिस्तान के विरोध के चलते भारतीय प्रतिनिधिमंडल को इस संगठन की शुरुआती बैठक में हिस्सा नहीं लेने दिया गया था। तब पाकिस्तान ने ज़िद पकड़ ली थी कि यदि भारतीय दल को अनुमति दी गई तो वह आयोजन का बहिष्कार कर देगा। यह घटना 50 साल पहले भारत को सऊदी अरब के सुझाव पर मोरक्को के रबात में 1969 में हुए इसके पहले सम्मेलन में आमंत्रित करने के दौरान हुई थी। भारतीय प्रतिनिधिमंडल सम्मेलन में शामिल होने गया था, लेकिन पाकिस्तान के विरोध के कारण उन्हें सम्मेलन में शामिल नहीं होने दिया गया।
- अब हालत यह है कि अबु धाबी में उसके विरोध को दरकिनार कर दिया गया। वैसे भी पिछले कुछ समय से भारत के UAE के साथ रिश्ते बेहतर हुए हैं।
- कतर ने भी 2002 में भारत के लिये OIC में पर्यवेक्षक के दर्जे का प्रस्ताव रखा था।
- पिछले वर्ष बांग्लादेश व तुर्की ने भारत को इसका सदस्य बनाने को कहा था। संगठन के अधिकतर देशों के साथ भारत के रिश्ते मधुर हैं।
OIC की आतंरिक चुनौतियाँ
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन और अरब लीग की तरह OIC भी स्थापना के बाद से अपने भीतरी राजनीतिक विरोधाभासों को दूर करने के लिये संघर्ष करता रहता है।
- समय-समय पर OIC गैर-सदस्य देशों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में चिंता जताता रहता है, लेकिन इसने कभी भी मध्य-पूर्व के देशों में शिया या सुन्नी अल्पसंख्यकों द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं को नहीं उठाया है।
- गुटनिरपेक्ष देशों की तरह OIC में सदस्य देशों के बीच विवाद उत्पन्न होने पर इसके समाधान का कोई अधिकार किसी के पास नहीं है।
- कोई भी सदस्य किसी के भी प्रस्ताव को वीटो कर सकता है, इसलिये कोई भी गंभीर कार्यवाही अपने अंजाम तक नहीं पहुँच पाती।
- मध्य-पूर्व के देशों में समय-समय पर उठ खड़े होने वाले गंभीर संकटों के दौरान OIC की भूमिका मूक दर्शक से अधिक नहीं होती।
- इस्लामिक पहचान को छोड़कर शायद ही ऐसा कोई कारक है जो इसके सदस्य देशों को एक-दूसरे के निकट लाने में सक्षम है।
OIC में भागीदारी का इच्छुक नहीं भारत
OIC के भारत विरोधी नज़रिये के चलते हालिया समय में भारत इस संगठन में भागीदारी करने का इच्छुक नहीं रहा और अभी भी यह स्पष्ट नहीं कि भारतीय नेतृत्व इस संगठन में अपनी भावी भूमिका को लेकर क्या सोच रहा है। लेकिन यह भी एक स्थापित सत्य है कि भारत के इस्लामी देशों के साथ संबंध सदियों पुराने हैं। इन संबंधों और भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी के कारण ही भारत को 50 साल पहले इसकी मोरक्को में हुई पहली बैठक में आमंत्रित किया गया था। लेकिन अब OIC के साथ हालिया जुड़ाव भारत की विदेश नीति में आए बदलाव को दर्शाता है, जिसमें स्पष्ट विरोधी और आपस में एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाने वाले इस्लामी देशों के साथ भारत ने अपने संबंधों को और मज़बूत किया है, जैसे- सऊदी अरब और ईरान, संयुक्त अरब अमीरात और कतर, मिस्र और तुर्की तथा इज़राइल और फिलिस्तीन।
आगे की राह
OIC के साथ संबंधों की दिशा में आगे बढ़ते समय भारत को बेहद सावधानी से काम लेना होगा। वैसे भी यह कोई ऐसा संगठन नहीं है, जिसकी सदस्यता लिये बिना भारत के हितों पर कोई आँच आती हो। फिर भी इसके सदस्य देशों की अनदेखी नहीं की जा सकती, जिनमें से अधिकांश के साथ भारत के आर्थिक हित विशेष रूप से जुड़े हुए है। इन देशों में बड़ी संख्या में भारतीय काम करते हैं और भारत के विदेशी मुद्रा भण्डार में अपना बहुमूल्य योगदान करते हैं। ऐसे में भारत को बेहद सावधानीपूर्वक प्रत्यक्षतः धर्म आधारित इस संगठन के साथ जुड़ने से पहले मज़बूत और बेहतर कूटनीतिक संबंधों द्वारा इस्लामी दुनिया के प्रति अपनी रणनीति को संतुलित करना होगा। इसमें कई विरोधाभास भी सामने आ सकते है, जिन पर गौर करने के बाद ही भारत को इस दिशा में अपने कदम आगे बढ़ने चाहिये। 1 और 2 मार्च को OIC के सम्मेलन में जो कुछ हुआ, उससे स्पष्ट है कि भारत के लिये यह राह फिसलन भरी है, जिस पर चलना इतना आसान नहीं जितना दिखाई देता है।
स्रोत: 1 मार्च को The Indian Express में प्रकाशित आलेख An opening in Abu Dhabi तथा अन्य जानकारी पर आधारित