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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत में लैंगिक असमानता और ‘जेंडर बजटिंग’

  • 14 Jan 2017
  • 12 min read

पृष्ठभूमि

  • आपने कभी अपने आस-पास या पड़ोस में बेटी के जन्म पर ढ़ोल नगाड़े या शहनाइयाँ बजते देखा है? शायद नहीं देखा होगा और देखा भी होगा तो कहीं इक्का-दुक्का| वस्तुतः हम भारत के लोग  21वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं, बेटा पैदा होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और अगर एक बेटी का जन्म हो जाए तो शान्त हो जाते हैं।
  • लड़के के लिये इतना ज़्यादा प्यार कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म के समय या जन्म से पहले ही मारते आ रहे हैं, और अगर वो नहीं मारी जाती तो हम जीवन भर उनके साथ भेदभाव के अनेक तरीके ढूंढ लेते हैं। हम देवियों की पूजा तो करते हैं, पर महिलाओं का शोषण करते हैं। जहाँ तक महिलाओं के संबंध में हमारे दृष्टिकोण का सवाल है तो हमारा समाज दोहरे-मानकों का एक ऐसा समाज है जहाँ हमारे विचार और उपदेश हमारे कार्यों से भिन्न हैं।

क्या है लैंगिक असमानता?

  • लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है। पारंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है। वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेद-भाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। 

चिंताजनक आँकड़े

  • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक उपलब्धियों, स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा तथा राजनीतिक सशक्तीकरण के सूचकांकों के मिले-जुले आकलन में विश्व में भारत का स्थान 87वाँ है। देश के श्रमबल में महिलाओं की घटती भागीदारी और संसद में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व चिंतनीय है।
  • लिंगानुपात एक अति संवेदनशील सूचक है जो महिलाओं की स्थिति को दर्शाता है। बच्चों में लिंगानुपात निरंतर कम होता जा रहा है। निरंतर कम होते लिंगानुपात के कारण जनसंख्या में असंतुलन पैदा हो होता है जिससे महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ने जैसी अनेक सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं।
  • ये सभी संकेतक लिंग समानता और मूलभूत अधिकारों के संबंध में महिलाओं की निराशजनक स्थिति के द्योतक हैं। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये सरकार प्रत्येक वर्ष विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करती है ताकि इनका लाभ महिलाओं को प्राप्त हो लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि इतने कार्यक्रमों के लागू किये जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नज़र नहीं आता। 

लैंगिक असमानता के कारण

  • प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्ता सामाजिक संरचना की ऐसी व्यवस्था हैं, जिसमें पुरुष, महिला पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता है” और भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है।
  • महिलाओं का शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक परिघटना है। पितृसत्तात्मक  व्यवस्था ने अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हों, सबसे प्राप्त की है।
  • समाज में महिलाओं की निम्न स्थिति होने के कुछ कारणों में अत्यधिक गरीबी और शिक्षा की कमी भी हैं। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलाएँ कम वेतन पर घरेलू कार्य करने, वैश्यावृत्ति करने या प्रवासी मज़दूरों के रूप में कार्य करने के लिये मजबूर हो जाती हैं।
  • महिलाओं को न केवल असमान वेतन दिया जाता हैं, बल्कि उनके लिये कम कौशल की नौकरियाँ पेश की जाती हैं जिनका वेतनमान बहुत कम होता हैं। यह लिंग के आधार पर असमानता का एक प्रमुख रूप बन गया है।
  • लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी भी एक बुरा निवेश माना जाता हैं क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसे पिता के घर को छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। इसलिये, अच्छी शिक्षा के अभाव में अधिकांश महिलाएँ वर्तमान में नौकरी के लिये आवश्यक कौशल की शर्तों को पूरा करने में असक्षम हो जाती हैं।
  • महिलाओं को खाने के लिये वही मिलता है जो परिवार के पुरुषों के खाने के बाद बच जाता है। अतः समुचित और पौष्टिक भोजन के अभाव में महिलाएँ कई तरह के रोगों का शिकार हो जाती हैं।

‘जेंडर बजटिंग’ क्या है?

  • लैंगिक समानता के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये किये जाने वाले धन आवंटन के उल्लेख को जेंडर बजटिंग कहा जाता है। दरअसल, जेंडर बजटिंग शब्द विगत दो-तीन दशकों में वैश्विक पटल पर उभरा है। इसके ज़रिये सरकारी योजनाओं का लाभ महिलाओं तक पहुँचाया जाता है।

‘जेंडर बजटिंग’ के क्षेत्र में भारत के प्रयास

  • महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये 2005 से भारत ने औपचारिक रूप से वित्तीय बजट में जेंडर उत्तरदायी बजटिंग (Gender Responsive Budgeting- GRB) को अंगीकार किया था। जीआरबी का उद्देश्य है- राजकोषीय नीतियों के माध्यम से लिंग संबंधी चिंताओं का समाधान करना।
  • वर्ष 2005 के बाद से प्रत्येक वर्ष सलाना बजट में एक उक्ति जोड़ी गई, जिसे दो भागों में सूचीबद्ध किया जाता है जिनके नाम हैं- भाग ‘A’ और भाग ‘B’ | भाग A में महिलाओं के कल्याण से संबंधित ऐसी योजनाओं का उल्लेख होता है जिनमें महिला कल्याण के लिये 100 प्रतिशत आवंटन होता है। वहीं, भाग B में वैसी योजनाओं का उल्लेख किया जाता है जिनमें महिला कल्याण हेतु कम-से-कम 30 प्रतिशत का आवंटन होता है।
  • गौरतलब है कि वित्त मंत्रालय के सहयोग से केंद्र और राज्य स्तर (16 राज्यों ने अब तक जीआरबी को अंगीकृत किया है) पर जीआरबी के माध्यम से लैंगिक असमानता को कम करने में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। ज्ञात हो कि अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष की एक रिपोर्ट के अनुसार जीआरबी लागू करने वाले राज्यों के स्कूलों में बालिका नामांकन की दर अधिक देखी गई है।

जीआरबी से संबंधित समस्याएँ 

  • उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद प्रत्येक महिला तक जीआरबी का लाभ सुनिश्चित करने के लिये हमें कुछ बातों पर ध्यान देना होगा। हाल के कुछ वर्षों में देखा गया है कि जीआरबी के तहत या तो कम राशि का आवंटन हुआ है या सभी वर्षों में यह राशि समान ही रही है। 
  • वित्तीय वर्ष 2016-17 के बजट में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और राष्ट्रीय महिला आयोग के आवंटन में उचित वृद्धि नहीं की गई, वहीं घरेलू हिंसा अधिनियम के कार्यान्वयन के लिये लाई गई योजना के लिये कोई आवंटन नहीं किया गया।
  • गौरतलब है कि जीआरबी के तहत आने वाले मंत्रालयों की संख्या भी कम कर दी गई है और महिला कल्याण हेतु होने वाले आवंटन का विकेंद्रीकरण किया जा रहा है।

निष्कर्ष

  • जीआरबी के उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके, इसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि जीआरबी को महिला कल्याण के लिये एक प्रतीकात्मक योजना की बजाय एक व्यावहारिक योजना बनाया जाए। गौरतलब है कि अब तक जीआरबी में केवल वैसी योजनाओं को शामिल किया जाता रहा है जिनके सारोकार सीधे तौर पर महिला कल्याण से जुड़े हुए हैं। ऊर्जा, शहरी विकास, खाद्य सुरक्षा, जलापूर्ति और स्वच्छता जैसे मुद्दों को भी महिला कल्याण से जोड़ना होगा क्योंकि अप्रत्यक्ष ही सही लेकिन ये सभी महिला कल्याण को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
  • जेंडर बजटिंग के माध्यम से महिलाओं को प्रत्यक्ष लाभार्थी बनाने की बजाय उन्हें विकास यात्रा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बनाना होगा। हालाँकि, जेंडर बजटिंग लैंगिक असमानता को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है लेकिन इसके लिये जीआरबी के माध्यम से नीतियों को और अधिक प्रभावी और व्यापक दृष्टिकोण से युक्त बनाना होगा, उचित और व्यावहारिक आवंटन सुनिश्चित करना होगा। वास्तविक सुधारों के लिये जेंडर बजटिंग को महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता से जोड़ना होगा। 
  • दरअसल, लैंगिक समानता का सूत्र श्रम सुधारों और सामाजिक सुरक्षा कानूनों से भी जुड़ा है, फिर चाहे कामकाजी महिलाओं के लिये समान वेतन सुनिश्चित करना हो या सुरक्षित नौकरी की गारंटी देना। मातृत्व अवकाश के जो कानून सरकारी क्षेत्र में लागू हैं, उन्हें निजी और असंगठित क्षेत्र में भी सख्ती से लागू करना होगा। जेंडर बजटिंग और समाजिक सुधारों के एकीकृत प्रयास से ही भारत को लैंगिक असमानता के बन्धनों से मुक्त किया जा सकता है।
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