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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

नदी जोड़ो परियोजना से जुड़े कुछ ज़रूरी सवाल

  • 21 Oct 2017
  • 15 min read

संदर्भ

  • भारत सरकार शीघ्र ही गंगा सहित देश की 60 बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने की लगभग 87 बिलियन डॉलर अनुमानित लागत वाली महत्त्वाकांक्षी नदी जोड़ो परियोजना पर काम शुरू करने जा रही है। 

पृष्ठभूमि

वर्ष 2002 में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने नदी जोड़ो परियोजना का  प्रस्ताव किया था। लेकिन इस परियोजना ने परवान चढ़ने से पहले ही दम तोड़ दिया क्योंकि अधिकांश राज्य अपने पानी के हिस्से के अनुबंध तथा इससे जुड़े अन्य मतभेदों को सुलझाने में विफल रहे। लेकिन वर्तमान सरकार इस परियोजना के पहले चरण के लिये आवश्यक मंज़ूरियाँ तथा अन्य सहमतियाँ जुटाने में सफल रही है। केन और बेतवा नदियों को जोड़ने का काम शुरू होने जा रहा है, जो मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश से होकर बहती हें। इनमें भी सहमति तब बन पाई जब इन दोनों राज्यों में भाजपा सरकारें बनीं। 

इन मुद्दों पर विचार ज़रूरी: एक ऐसी परियोजना पर काम शुरू करने से पहले जिस पर अरबों रुपयों की लागत प्रस्तावित है, कई मुद्दों को सुलझाया जाना ज़रूरी है। 

जल प्रबंधन 

  • पानी को संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-II में 17वीं प्रविष्टि के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। हालांकि, सरकार ने इस मुद्दे को समवर्ती सूची के तहत लाने के लिये चर्चा शुरू की है, लेकिन यह एक बेहद कठिन कार्य है।
  • विभिन्न राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होने पर या राजनैतिक व्यवस्था में बदलाव आने पर कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरणार्थ-नदी के ऊपर की ओर स्थित राज्य, नदी के निचली ओर स्थित राज्यों के साथ पानी साझा करने से इनकार कर सकता है।
  • यह प्रायः देखने में आता है कि जब देश में पर्याप्त मानसूनी वर्षा नहीं होती तो नदियों में पानी की उपलब्धता को लेकर विभिन्न राज्यों में तनाव उत्पन्न हो जाता है और कई बार स्थिति विस्फोटक भी हो जाती है। ऐसी स्थिति में विवादों को सुलझाने के लिये एक शक्तिशाली तंत्र के बिना इस तरह की विशाल परियोजना पर कदम बढ़ाना विवेकपूर्ण नहीं होगा।

पानी के विश्वसनीय डेटा का अभाव

  • पानी के क्षेत्र से जुड़े आँकड़ों के संबंध में भारत तकनीकी तौर पर बहुत सक्षम नहीं है।
  • अन्य देशों के विपरीत भारत के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अखिल भारतीय या राज्य स्तर पर वाटर-टेबल पर डेटा एकत्र करने का कभी प्रयास ही नहीं किया और न ही कभी कोई वित्त पोषित अध्ययन ही कराया है।
  • पानी की समस्या से ग्रस्त कई देश क्षेत्रीय स्तर पर नियमित आधार पर ऐसा डेटा एकत्र करते हैं और इसे राष्ट्रीय आँकड़ों के साथ लिंक करते हैं।
  • वस्तुतः जल संसाधन डेटा पानी की आपूर्ति के अर्थशास्त्र पर अन्य जानकारी के साथ विशिष्ट भौतिक संसाधन क्षेत्र के डेटा के एकीकरण को सक्षम बनाता है। इस डेटा का उपयोग उस संरचना में किया जाता है, जो आर्थिक गतिविधियों के डेटा में व्यवस्थित की जाती है।
प्राकृतिक संसाधनों का डेटा आँकड़ों के व्यापक आधार के एकीकरण और इसे साझा करने को सुविधाजनक बनाने के अलावा जल संसाधन प्रबंधन के उद्देश्यों और प्राथमिकताओं के बीच निरंतरता का मूल्यांकन करने के लिये आधार प्रदान करता है। इससे राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर आर्थिक विकास योजनाओं और नीतियों के व्यापक लक्ष्य तय करने में भी सहायता मिलती है।
  •  यह प्रक्रिया उन विभिन्न एजेंसियों के बीच संचार को बेहतर बनाती है जो विभिन्न प्रयोजनों के लिये पानी के बारे में जानकारी का उपयोग करते हैं। 
  • यह प्रक्रिया इस तरह की जानकारी का बेहतर समन्वयन, पैकेजिंग और विश्लेषण में सहायता करती है, जो जल प्रबंधकों और नीति निर्माताओं की आवश्यकताओं के लिये अधिक प्रासंगिक हैं।
  • इस प्रकार के डेटा का एक लाभ यह भी है कि इससे आर्थिक उत्पादन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और अनुमानित जल मांग की पहचान कर पाना संभव हो जाता है।
  • चूँकि अप्रत्यक्ष और अनुमानित पानी की मांग प्रायः प्रत्यक्ष मांग के लगभग बराबर/अधिक होती है। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि किसी एक क्षेत्र में जल संतुलन स्थिति का आकलन करते समय इसे वाटर टेबल डेटा के साथ संयोजन में शामिल किया जाए।

कृषि के संदर्भ में

  • सरकार को अपने ‘हर बूँद अधिक फसल’ कार्यक्रम पर अधिक ध्यान देना चाहिये ताकि यह पता चल सके कि भारतीय कृषि इस पद्धति का अनुसरण किस सीमा तक करने के लिये तैयार है? 
  • इससे यह भी पता चल जाएगा कि पानी की कमी वाले क्षेत्र क्या अपने यहाँ उगाई जाने वाली फसलों के चलते पानी की कमी से प्रभावित रहते हैं?
  • अन्य देशों के विपरीत भारत में इस मामले में अध्ययनों का अभाव है, जिसकी वज़ह से विभिन्न राज्यों के बीच आभासी/छिपे (Virtual/Hidden) हुए जल प्रवाह का विश्लेषण नहीं हो पाता। 
प्रभावी जल नीति का अभाव ज्ञान प्रशासन के अंतर को दर्शाता है। आभासी जल प्रवाह मूल्यांकन पर हाल ही में हुआ एक अध्ययन (कात्यायनी और बरुआ, 2016) खाद्यान्न के संबंध में यह इंगित करता है कि हालाँकि उत्तर क्षेत्र में  पानी की बेहद कमी है , फिर भी यह अपने ही जैसी पानी के कमी से जूझ रहे पश्चिम और दक्षिण क्षेत्रों को आभासी जल का निर्यात करता है, जो कि आभासी जल के बड़े आयातक हैं।
  •  क्रमशः 1996-2005 और 2005-2014 में उत्तर क्षेत्रीय राज्यों में पंजाब में पानी की सबसे अधिक हानि हुई है, जबकि महाराष्ट्र (पश्चिम) और तमिलनाडु (दक्षिण) सर्वाधिक जल बचत करने वाले राज्य हैं।
  • ऐसे में उप-राष्ट्रीय स्तर पर आभासी जल प्रवाह सापेक्षिक पानी की कमी के अनुरूप नहीं हैं। यह जानकारी इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे उप-राष्ट्रीय आभासी जल प्रवाह मूल्यांकन करने की आवश्यकता का पता चलता है।

आभासी पानी और पानी का निर्यात!

कृषि और औद्योगिक उत्पाद को तैयार करने में जितने पानी की खपत होती है, उसे आभासी पानी (Virtual Water) कहा जाता है। भारत, अमेरिका और चीन को विश्व में आभासी पानी के उपयोगकर्ताओं के रूप में जाना जाता है और बढ़ती खपत के मद्देनज़र इस तरह के पानी का व्यापार देश की जल-निरंतरता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इसे कुछ इस प्रकार समझें—कृषि में इस्तेमाल होने वाला पानी चक्रित होता रहता है, लेकिन खाद्य पदार्थो के द्वारा निर्यात किए गए पानी की भरपाई नहीं की जा सकती। समय के साथ यदि खाद्य पदार्थो का निर्यात बढ़ता है तो पानी की स्थिरता भी प्रभावित होती है। भारत के विपरीत चीन खाद्य पदार्थो का शुद्ध आयातक है, इसीलिए वह अपने पानी के भंडारण को परिवर्द्धित कर रहा है, जबकि भारत अन्य देशों को खाद्य पदार्थो का निर्यात कर पानी को भी परोक्ष रूप से दूसरे देशों में भेज रहा है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  •  उप-राष्ट्रीय स्तरों पर सभी प्रमुख फसलों के लिये इस तरह के विश्लेषण पानी जैसे दुर्लभ संसाधन के कुशल नियोजन के लिये आवश्यक हैं।
कौन-सा पानी किसका है? नदी-समुद्र का पानी किसका है? क्यासरकार का नदियों एवं तालाबों के जल पर मालिकाना अधिकार है या सिर्फ़ रख-रखाव की ज़िम्मेदारी? वर्तमान में ये सभी प्रश्न चुनौती बनकर सामने खड़े हुए हैं। इन सब तथ्यों के मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि नदी जोड़ो जैसी विशाल परियोजना पर काम शुरू करने से पहले अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। ऐसी परिस्थितियों में इतने बड़े स्तर पर जल हस्तांतरण कई विवादों को जन्म दे सकता है।

पक्ष में तर्क 

  • इस परियोजना के पूरा होने पर उम्मीद की जाती है कि अनिश्चित मॉनसून वर्षा पर किसानों की निर्भरता समाप्त हो जाएगी।
  • यदि देश की सभी 31 प्रस्तावित नदी जोड़ो परियोजनाओं पर काम पूरा हो जाएगा तब इनसे 35 हजार मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी, जिससे  ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ेगी।
  • इनके पूरा होने पर लगभग 35 मिलियन हेक्टेयर असिंचित भूमि को सिंचाई के तहत लाकर कृषि योग्य बनाया जा सकेगा, जिससे कृषि उत्पादों की पैदावार में इज़ाफा होगा।

वाटर फुटप्रिंट 

सबसे पहले यह जान लें कि वाटर  फुटप्रिंट है क्या? हमारे प्रतिदिन के बहुत से उत्पादों में आभासी या छिपा जल शामिल होता है। उदाहरणार्थ, एक कप कॉफी के उत्पादन के लिए आभासी पानी की मात्रा 140 लीटर तक होती है| वाटर  फुटप्रिंट केवल प्रयोग किए गए प्रत्यक्ष पानी की मात्रा को हे नहीं दर्शाता, बल्कि उपभोग किए गए आभासी पानी की मात्रा को भी दर्शाता है। जैसे कि भारत में एक किलो गेहूं उगाने के लिए लगभग 1700 लीटर पानी खर्च होता है, अर्थात् यदि कोई व्यक्ति एक दिन एक किलो गेहूँ की खपत करता है, तो वह उसके साथ लगभग 1700 लीटर पानी की भी खपत करता है। इस 1700 लीटर पानी को हम आभासी पानी कहेंगे।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  •  केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के 70 लाख लोगों को लाभ होगा। 
  • पानी की कमी, फसल खराब होने एवं अन्य कारणों से महानगरों में पलायन करने को विवश लोगों को राहत मिलेगी।
  • फिलहाल इस योजना के अलावा महाराष्ट्र और गुजरात में पार-तापी और दमन गंगा-पिंजाल नदी जोड़ो परियोजनाओं पर काम चल रहा है।
  • नदी जोड़ो परियोजना के पूरा होने के बाद देश में जल की उपलब्धता काफी बढ़ जाएगी और पेयजल की समस्या दूर होगी।
  • नहरों का विकास होगा तथा नौवहन के विकास से परिवहन लागत में कमी आएगी।

निष्कर्ष

नदी जोड़ो परियोजना एक बड़ी चुनौती तो है, साथ ही यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जल संबंधित मुद्दों को हल करने का एक अवसर भी है। अतः इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है और यह गंभीरता उस हद तक जायज़ कही जा सकती है, जहाँ नुकसान कम और फायदे ज़्यादा हों। राजनीतिक कारणों से राज्य सरकारें अपने-अपने हितों से समझौता करने को तैयार नहीं होतीं। यही कारण है कि कितने राज्यों के बीच पानी का झगड़ा अभी तक अनसुलझा ही है। वे दूसरे राज्यों को पानी देने को तैयार नहीं होते। सतलुज-यमुना और कावेरी जैसे जल विवाद तो शीर्ष न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बावज़ूद भी अनसुलझे पड़े हैं। इनमें से कई विवाद तो 50 वर्षों से भी अधिक समय से जारी हैं। यह देखते हुए कि नदियों में पानी की लगातार कमी होती जा रही है। शायद ही कोई राज्य अपने हिस्से का पानी किसी अन्य राज्य को देने को तैयार होगा। यदि यही परिस्थितियाँ बनी रहीं तो नदियों के जल को लेकर राजनैतिक विवाद नदी जोड़ो परियोजना की सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकती है। 

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