तीन तलाक पर अध्यादेश | 20 Sep 2018
संदर्भ
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक साथ तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को दंडनीय अपराध बनाने के लिये अध्यादेश पेश किया और इस अध्यादेश को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी अपनी सहमति दे दी है। उल्लेखनीय है कि लोकसभा से पारित होने के बाद यह बिल राज्यसभा में पारित नहीं हो पाया था। हालाँकि इस अध्यादेश लाया जाना अधीरता का संकेत माना जा रहा है।
तीन तलाक से संबंधित संसदीय कार्यवाही
- लोकसभा द्वारा अनुमोदित मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों के संरक्षण) विधेयक ने वर्ष 2017 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वैधानिक रूप देने की मांग की, जिसने तलाक-ए- बिद्दत को गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
- उल्लेखनीय है कि तीन तलाक बिल इससे पहले संसद के बजट सत्र और मानसून सत्र में पेश किया गया था।
- दरअसल, इन संशोधनों के लिये नोटिस के बावजूद सर्वसम्मति की कमी के कारण पिछले सत्र में यह बिल राज्यसभा द्वारा पारित नहीं किया गया था।
वर्तमान अध्यादेश के प्रमुख प्रावधान
- इस विधेयक ने तलाक के इस रूप के लिये तीन साल की जेल की सज़ा और दंड का प्रावधान किया है। हालाँकि, नए कानून में मुकदमे की शुरुआत से पहले आरोपी की जमानत के प्रावधान सहित सुरक्षा उपायों को शामिल किया गया है।
- तत्काल तीन तलाक को "गैर-जमानती" अपराध के रूप में जारी रखा गया है
- इस प्रावधान में एक और सुरक्षा को शामिल किया गया है और वह यह है कि पुलिस केवल पीड़ित पत्नी की शिकायत के आधार पर FIR दर्ज कर सकती है या यह उसके रक्त संबंधों या उसके रिश्तेदारों (शादी के आधार) द्वारा दायर की जा सकती है।
- उल्लेखनीय है कि गैर-रिश्तेदार या पड़ोसी प्रस्तावित कानून के तहत शिकायत दर्ज नहीं करा सकते हैं।
- तत्काल तीन तलाक एक संयोजित प्रावधान है, जो पत्नी को शिकायत वापस लेने या विवाद निपटारे के लिये मजिस्ट्रेट से संपर्क करने की अनुमति देता है।
- नए प्रावधानों के मुताबिक पुलिस स्टेशन पर जमानत नहीं दी जा सकती है जबकि अभियुक्त मुकदमे से पहले भी जमानत के लिये मजिस्ट्रेट से संपर्क कर सकता है।
- ये संशोधन न केवल किसी व्यक्ति (तीन तलाक को उच्चारित करने वाले) के खिलाफ आपराधिक कानून लागू करने से तीसरे पक्ष को रोकेंगे, बल्कि जमानत और निपटारे की अनुमति देकर विवाह की संभावना को भी बढ़ाएंगे।
वर्तमान अध्यादेश के मायने
- यह एक ऐसा मामला है जिसके लिये विचार-विमर्श की आवश्यकता है, विशेष रूप से लोकसभा द्वारा पारित विधेयक के कुछ प्रावधानों को लेकर गंभीर आपत्तियों के बाद कई प्रश्न उठाए गए हैं साथ ही, तत्काल तीन तलाक को अपराध घोषित करने की वांछनीयता पर एक सतत बहस जारी है।
- भले ही संबंधित विधेयक को संसद के उच्च सदन द्वारा मंजूरी नहीं किया गया हो तो इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि इसके लिये अब सरकार को अध्यादेश जारी करने की अधिक आवश्यकता है।
- दरअसल, केंद्र इस अध्यादेश के माध्यम से यह दिखाना चाहता है कि वह मुस्लिम महिलाओं के हितों के लिये समर्पित है हालाँकि, सदन में सर्वसम्मति की कमी केवल एक अध्यादेश जारी करने के लिये पर्याप्त कारण नहीं हो सकता है।
- इस संदर्भ में कानून मंत्री का कहना है कि पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस विषय पर तत्काल कार्यवाही के लिये अध्यादेश को लाना एक अनिवार्य आवश्यकता थी।
- उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अगस्त 2017 में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने के बाद देश भर से 201 मामलों की सूचना प्राप्त हुई।
- साथ ही, जनवरी 2017 के बाद से इस साल 13 सितंबर तक इस संबंध में 430 मामलों के दर्ज होने की सूचना मिली है।
- सरकार ने कहा है कि विपक्षी दल ‘वोट बैंक दबाव’ के कारण राज्यसभा में लंबित विधेयक का समर्थन नहीं कर रहे थे।
- हालाँकि, विपक्षी दलों ने सभी महिला समूहों की तरफ से यह सवाल पूछा है कि ‘जब एक पीड़ित महिला के पति को जेल हो जाएगी तो महिला और बच्चों को देखभाल और/या निर्वाह भत्ता का भुगतान कौन करेगा?’
- विपक्षी दलों का कहना है कि आखिर क्यों ऐसी दशा में पति की चल-अचल संपत्ति में महिला और बच्चों को अधिकार नहीं मिलना चाहिये?
- हालाँकि, सरकार का कहना है कि इन प्रावधानों के तहत एक मजिस्ट्रेट पीड़ित पत्नी की सुनवाई के बाद उसके पति को जमानत देने के लिये विवेक का प्रयोग कर सकता है।
- साथ ही, मजिस्ट्रेट के पास पीड़ित और उसके नाबालिग बच्चों के लिये मुआवज़े की राशि और निर्वाह भत्ते का फैसला करने की शक्ति भी होगी।
- इस अध्यादेश से संबंधित प्रमुख आपत्ति यह है कि वैवाहिक जीवन की गलतियाँ तो सिविल कानून का मूल मामला है और क्या इसके लिये पति को जेल का प्रावधान उचित है?
निष्कर्ष:
तीन तलाक मुद्दे पर अध्यादेश लाना एक वैधानिक रिफॉर्म है, जो सोशल रिफॉर्म्स का एक छोटा सा हिस्सा है। दरअसल, कोई भी सामाजिक बदलाव एक व्यापक प्रक्रिया से होकर गुज़रने के बाद ही होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तीन तलाक के लिये तुरंत कानून बनाए जाने की आवश्यकता है, किंतु यह एक ऐसा मामला है जिसके लिये गंभीर विचार-विमर्श और सामाजिक सहयोग की भी आवश्यकता है। हमें ध्यान रखना चाहिये कि अध्यादेश एकमात्र विकल्प नहीं होना चाहिये और इस संदर्भ में सभी राजनैतिक दलों को एक आम राय विकसित करने की आवश्यककता है ताकि जल्दीबाजी में कोई ऐसा निर्णय न लिया जाए जिससे आगे चलकर संबंधित समाज का अहित हो। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित किये जाने की आवश्यता है कि कोई भी निर्णय केवल राजनैतिक लाभ हेतु न हो।