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कितना उचित है वित्त वर्ष में बदलाव?

  • 26 Jul 2017
  • 12 min read

चाहे योजना आयोग को खत्म करके नीति आयोग का निर्माण हो या रेल बजट का आम बजट में समावेशन, एनडीए सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर लीक से हटकर कुछ निर्णय लिये हैं। विदित हो कि सरकार अब वित्त वर्ष में बदलाव को लेकर प्रतिबद्घ नज़र आ रही है, लेकिन इस बदलाव में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातें निहित हैं।

पृठभूमि

  • गौरतलब है कि मई से अप्रैल तक की अवधि के लिये 7 अप्रैल, 1860 को भारत में पहला बजट पेश किया गया था और तब से लेकर अगले 7 सालों तक यह व्यवस्था बनी रही। वर्ष 1865 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय खातों की जाँच के लिये एक आयोग बनाया। पहली बार वित्त वर्ष को एक जनवरी से 31 दिसंबर तक चलाने की सिफारिश इसी आयोग ने की थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार इसके लिये तैयार नहीं हुई। 
  • दरअसल, औपनिवेशिक सरकार इसे ब्रिटेन के अनुरूप रखना चाहती थी। इसलिये 1867 से देश का वित्त वर्ष बदलकर एक अप्रैल से 31 मार्च ​कर दिया गया। वित्त वर्ष की नई व्यवस्था शुरू होने के तीन साल बाद से ही इसके विरोध में आवाजें उठने लगी थीं। इस मुद्दे पर 1913 में ‘भारतीय वित्त और मुद्रा पर शाही आयोग’ (चैंबरलिन आयोग) का गठन किया गया। 
  • चैंबरलिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ‘बजट की वर्त्तमान व्यवस्था, अर्थव्यवस्था को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले मानसून को ध्यान में नहीं रखती, इसलिये इसे अप्रैल के बज़ाय जनवरी या नवंबर से शुरू किया जाए।’ सरकार ने 1921 में इस सिफारिश को मान भी लिया, लेकिन प्रांतीय सरकारों के विरोध को देखते हुए सरकार पीछे हट गई।
  • वर्ष 1968 में के. हनुमंथैया के नेतृत्व वाले पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने वित्त वर्ष को अक्टूबर से शुरू करने की सिफारिश की। दीपावली से खाते की शुरुआत करने की भारतीय परंपरा को देखते हुए अंत में उसने इसे नवंबर से शुरू करने की सिफारिश की।
  • अगले दशक में भी कई बार बदलाव की मांग उठी, लेकिन हर बार यह कहते हुए इसे खारिज़ कर दिया गया कि यह काफी मुश्किल होगा और इससे मिलने वाला लाभ बहुत थोड़ा होगा।

वित्त वर्ष को लेकर संवैधानिक स्थिति

  • भारत का संविधान वित्त वर्ष की अवधि पर मौन है। संविधान का अनुच्छेद 367 (1) केवल इतना कहता है कि वित्त वर्ष का निर्धारण ‘जनरल क्लॉजेज एक्ट, 1897’ के अनुसार होगा, जबकि इस कानून में लिखा है कि भारत का वित्त वर्ष एक अप्रैल से 31 मार्च का होगा। यह कानून निजी कंपनियों और व्यापारिक संस्थानों को अपनी मर्ज़ी से वित्त वर्ष के चुनाव की आज़ादी देता है।
  • राज्य सरकारें भी अपनी मर्ज़ी से वित्त वर्ष की अवधि का ​चुनाव कर सकती हैं। ऐसे में केंद्र सरकार जनरल क्लॉजेज़ एक्ट, 1897 में संशोधन कर देश का वित्त वर्ष बदल सकती है। साथ ही उसे कई कर कानूनों में भी बदलाव करना होगा। केंद्र सरकार धन विधेयक लाकर इन सभी कानूनों में बड़ी आसानी से परिवर्तन कर सकती है।

वित्त वर्ष में बदलाव के सन्दर्भ में सरकार के तर्क

  • इस संबंध में सरकार की सबसे प्रमुख दलील यह है कि वह केंद्रीय बजट और दक्षिण पश्चिम मानसून को जोडऩा चाहती है। एक तर्क यह भी है कि बजट को कृषि आय हासिल होने के तत्काल बाद तैयार किया जाना चाहिये, क्योंकि यह आय भारत जैसे देश में एक बड़ी आबादी के लिये बहुत मायने रखती है।
  • दूसरी दलील का संबंध काम के मौसम और धन के इस्तेमाल से है। चूँकि विनिर्माण का अधिकांश काम मानसून की अवधि के बाद होता है, इसलिये इस संबंध में आवंटित धनराशि का कोई इस्तेमाल नहीं हो पाता है।
  • दरअसल,  बजट प्रस्तुत करने का वक्त कुछ ऐसा है कि संसाधनों के आवंटन और उनके इस्तेमाल में तारतम्य नहीं बन पा रहा। अतः सरकार ‘अप्रैल-मार्च वित्त वर्ष’ को कैलेंडर वर्ष में बदलने पर विचार कर रही है।

वर्तमान स्थिति

  • विदित हो पिछले ही साल केंद्र सरकार ने नए वित्त वर्ष की वांछनीयता और संभाव्यता की जाँच हेतु पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. शंकर आचार्य की अध्यक्षता में चार-सदस्यीय समिति का गठन किया था।
  • इस समिति में पूर्व कैबिनेट सचिव के. एम.चन्द्रशेखर, तमिलनाडु के पूर्व वित्त सचिव पी. वी. राजारमन तथा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ सदस्य डॉ. राजीव कुमार बतौर सदस्य शामिल थे।
  • इस समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। ऐसा माना जा रहा है कि इस समिति की सिफारिशों का अध्ययन करने के बाद सरकार वित्त वर्ष में बदलाव का मन बना चुकी है।

क्यों उचित है वित्त वर्ष में बदलाव ?

  • ज्ञात हो कि वित्त वर्ष में बदलाव की मांग वर्षों से चली आ रही है। इस संबंध में आवश्यक उपाय सुझाने के लिये 70 के दशक के अंत में और 80 के दशक के आरंभ में सरकार ने एल. के.  झा के अधीन एक समिति गठित की थी, जिसने वित्त वर्ष में बदलाव की सिफारिश की थी।
  • गौरतलब है कि वर्तमान वित्त वर्ष को बदलने के पीछे सबसे बड़ी दलील यह दी जा रही है कि यह कृषि कार्यों के अनुकूल नहीं है और इसके तहत मानसूनी बारिश के असर को पूरी तरह ध्यान में रखना संभव नहीं होता है।
  • देश की जीडीपी का लगभग 15 फीसदी हिस्सा कृषि से आता है और लगभग 58 फीसदी परिवारों की जीविका कृषि पर निर्भर है।
  • चूँकि अक्सर, किसी न किसी राज्य में जून-सितंबर के बीच सूखे की स्थिति रहती है, ऐसे में जनवरी से वित्त वर्ष शुरू होने से कृषिगत आवंटन करने में मदद मिलेगी, क्योंकि फिर बजट की तारीख और पहले आ जाएगी।
  • ध्यातव्य है कि विकसित देशों समेत दुनिया के अधिकांश मुल्कों में कैलेंडर वर्ष ही वित्त वर्ष है। वैश्विक स्तर पर 156 देश जनवरी-दिसंबर को ही अपना वित्त वर्ष मानते हैं और उसी के अनुरूप वित्तीय योजनाएँ बनाते हैं। यहाँ तक कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे शीर्ष संगठन भी इसी व्यवस्था को अपनाते हैं।

क्यों उचित नहीं है वित्त वर्ष में बदलाव ?

  • दरअसल, मानसून से सीधे प्रभावित होने वाली फसलों की देश के सकल घरेलू उत्पाद में बमुश्किल 11 फीसदी की हिस्सेदारी है।
  • स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार फंड के इस्तेमाल में मंत्रालय के स्तर पर आसानी से तब्दीली लाई जा सकती है और इसके लिये वित्त वर्ष में कोई बदलाव लाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये।
  • विदित हो कि वित्त वर्ष में बदलाव लाने से देश की अर्थव्यवस्था में लेन-देन की लागत बढ़ जाएगी। इतना ही नहीं देश की लगभग तमाम अहम आर्थिक संस्थाओं को अपनी लेखा व्यवस्था में बदलाव करना होगा। इससे न केवल अनुपालन की लागत में बढ़ोतरी होगी, बल्कि कई और विसंगतियाँ भी पैदा होंगी।
  • एक नई वित्त वर्ष व्यवस्था लागू करने से मौजूदा वृहद आर्थिक आंकड़ों की समझ और अधिक उलझाऊ होती जाएगी। पहले ही इस मोर्चे पर बहुत भ्रम हैं। यहाँ तक कि विश्वसनीयता को लेकर भी कई आशंकाएँ हैं।
  • अतः एक नया वित्त वर्ष तब सही होता, जब इसके लाभ बहुत अधिक होते।

क्या हो आगे का रास्ता

  • यदि भारत इस व्यवस्था को अपनाता है तो वैश्विक वित्तीय संगठनों को दो तरह की व्यवस्थाओं से नहीं जूझना होगा। इससे भारत और उनके बीच बेहतर तालमेल होगा।
  • हालाँकि कैलेंडर वर्ष को वित्त वर्ष बनाने से सभी स्तर पर कई तरह के बदलाव करने होंगे। बजट की तारीख बदलने के अलावा कर निर्धारण वर्ष और कर संरचना में परिवर्तन करना होगा। संसद के सत्र में भी बदलाव करना पड़ सकता है।
  • जैसा कि हम जानते हैं कि इस वर्ष से ही जीएसटी लागू है, ऐसे में अगर वित्त वर्ष में बदलाव किया जाता है तो कंपनियों को अपने स्तर पर कई तरह के बदलाव करने पड़ सकते हैं। इससे उनकी परेशानी बढ़ सकती है। इस पर काफी समय और शक्ति जाया हो सकती है।
  • यदि इन सभी बातों का संज्ञान लेते हुए सरकार को वित्त वर्ष में बदलाव को लेकर लचीला रुख अपनाना चाहिये। यह भी हो सकता है यह बदलाव इस वर्ष के बज़ाय अगले साल किया जाए। 

निष्कर्ष

  • आज जीडीपी में खेती का योगदान भले लगभग 15 फीसदी के आस-पास हो, इसके बावजूद देश की एक बड़ी आबादी, खेती से मिलने वाले रोज़गार, उद्योग और मांग पर खेती के असर के चलते मानसून का अर्थव्यवस्था में अब भी निर्णायक योगदान है।
  • मौजूदा व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है कि यदि किसी साल सूखा पड़ा या बाढ़ आई तो उसके अनुकूल आवंटित राशि अगले साल बजट पेश होने के बाद जून तक ही आ पाती है। लेकिन जून में मानूसन आ जाता है और काम रुक जाता है।
  • मानसून के बाद कई बार इलाकों के हालात भी बदल जाते हैं। जहाँ बाढ़ राहत के लिये राशि भेजी जाती है, वहाँ सूखा पड़ चुका होता है। इसलिये वित्त वर्ष में बदलाव की मांग पिछले 150 सालों से हो रही है, जो जायज भी है, लेकिन हमें वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना होगा।
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