कितना उपयोगी है ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार | 06 Dec 2017
संदर्भ
- हाल ही में कानून दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न कराने की बात दोहराई है।
- गौरतलब है कि इस संबंध में नीति आयोग पहले से अपने सुझाव दे चुका है, जिसका मानना है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार अत्यंत ही उत्तम विचार है।
- इस लेख में एक देश, एक चुनाव से संबंधित सभी पक्षों पर बात करेंगे, लेकिन पहले देख लेते हैं कि इस संबंध में नीति आयोग का क्या कहना है।
इस संबंध में नीति आयोग के विचार
- नीति आयोग ने कहा है कि वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनाव एक साथ कराना राष्ट्रीय हित में होगा।
- नीति आयोग ने एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिये विशेषज्ञों का एक समूह गठित किये जाने का सुझाव दिया है जो इस संबंध में सिफारिशें देगा।
- दरअसल, वर्ष 2024 में एक साथ चुनाव कराने के लिये पहले कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करनी होगी या कुछ के कार्यकाल में विस्तार करना होगा।
- नीति आयोग का कहना है कि इसे लागू करने के लिये संविधान विशेषज्ञों, थिंक टैंक, सरकारी अधिकारियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों का एक विशेष समूह गठित किया जाए।
‘एक देश, एक चुनाव’ आवश्यक क्यों?
- आदर्श आचार संहिता का मुद्दा:
► विदित हो कि चुनाव की तारीखें तय होते ही लागू आदर्श आचार संहिता (model code of conduct) के कारण सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं। - स्थिरता और आर्थिक विकास प्रभावित:
► बार-बार होने वाले चुनावों के कारण राजनीतिक दलों द्वारा एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे किये जाते हैं, जिससे अस्थिरता तो बढ़ती ही है, साथ में देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है। - चुनाव: एक अविराम प्रक्रिया:
► व्यापक शासन संरचना और कई स्तरों पर सरकार की उपस्थिति के कारण देश में लगभग प्रत्येक वर्ष चुनाव कराए जाते हैं।
► देश में एक या एक से अधिक राज्यों में होने वाले चुनावों में यदि स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल कर दिया जाए तो ऐसा कोई भी साल नहीं होगा जिसमें कोई चुनाव न हुआ हो। - सुरक्षा का मुद्दा:
► बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों को भी चुनाव कार्य में लगाना पड़ता है, जबकि देश की सीमाएँ संवेदनशील बनी हुई हैं और आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है।
‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में तर्क
- चुनावों पर होने वाले भारी व्यय में कमी:
► विदित हो कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया।
► पूरे पाँच साल में एक बार चुनाव के आयोजन से सरकारी खज़ाने पर आरोपित बेवज़ह का दबाव कम होगा। - कर्मचारियों के प्राथमिक दायित्वों का निर्वहन:
► बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज प्रभावित होते हैं।
► ऐसा इसलिये क्योंकि बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
- सीमित आचार संहिता के कारण सक्षम प्रशासन:
► चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता का पालन आवश्यक है, क्योंकि अपने कार्यकाल के अधिकांश दिनों में नाकाम रहने वाली सरकारें अंत समय में कुछ घोषणाएँ कर फिर से सत्ता में काबिज़ हो सकती हैं।
► लेकिन प्रत्येक वर्ष चुनाव के कारण आदर्श आचार संहिता की अवधि में वृद्धि होने से वैसी परियोजनाएँ भी आरंभ नहीं की जा सकती, जो कि आवश्यक हैं।
- लोगों के सार्वजनिक जीवन में कम होंगे व्यवधान:
► एक के बाद एक होने वाले चुनावों से आवश्यक सेवाओं की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
► लगातार जारी चुनावी रैलियों के कारण यातायात से संबंधित समस्याएँ पैदा होती हैं साथ ही साथ मानव संसाधन की उत्पादकता में भी कमी आती है।
- अन्य कारण:
► ‘एक देश, एक चुनाव’ के कारण चुनावों में होने वाले काले धन के प्रवाह पर अंकुश लगेगा।
► सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच समंवय बढ़ेगा।
‘एक देश, एक चुनाव’ के विपक्ष में तर्क
- कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं:
► दरअसल, संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जो यह कहता हो कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं।
► भारत में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते अवश्य थे।
► लेकिन इसका कारण कोई सांविधिक प्रावधान नहीं, बल्कि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं का एक ही समय पर विघटित होना था।
► चुनाव आयोग के मुताबिक एक साथ चुनाव करने के लिये संविधान संशोधन की भी आवश्यकता होगी। - नियंत्रण एवं संतुलन व्यवस्था का लोप संभव:
► बार-बार होने वाले चुनाव सरकार के लिये एक नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था कायम रखने का कार्य करते हैं।
► क्योंकि जन-प्रतिनिधियों के मन से यह भय जाता रहेगा कि किसी एक राज्य में काम न करने की सज़ा पार्टी को दूसरे राज्य में मिल सकती है, इसलिये केद्र एवं राज्य दोनों ही स्तरों एक ही साथ काम-काज़ कम हो सकता है। - संघीय ढाँचे के विरुद्ध:
► भारत में संघीय ढाँचे और एक बहु-पक्षीय लोकतंत्र है जहाँ राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिये चुनाव अलग-अलग होते हैं।
► विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, जहाँ जनता पार्टियों और नेताओं को राज्य में किये गए उनके कार्यों के आधार पर उन्हें वोट करती है।
► लोकसभा और विधानसभा दोनों के ही चुनाव यदि एक साथ संपन्न कराए जाते हैं तो जनता के बीच एक द्वंद्व कायम रहेगा जो स्थानीय मुद्दों से उसका ध्यान भटका सकता है और यह संघीय ढाँचे के अनुरूप नहीं होगा।
- अन्य कारण:
► चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को वैकल्पिक रोज़गार प्राप्त होता है एक साथ चुनाव न कराए जाने से बेरोज़गारी में वृद्धि होगी।
► यदि किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो इन परिस्थितियों में भी चुनाव आवश्यक हो जाता है।
► ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिये राजनीतिक पार्टियों में मतैक्यता का अभाव है, जिससे पार पाना काफी मुश्किल कार्य है।
► देश भर में एक साथ चुनाव कराने के लिये पर्याप्त संख्या में अधिकारियों व कर्मचारियों की आवश्यकता होगी।
► एकीकृत चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है।
आगे की राह
- एक साथ चुनाव सम्पन्न कराना पदाधिकारियों की नियुक्ति, ई.वी.एम. की आवश्यकताओं व अन्य सामग्रियों की उपलब्धता के दृष्टिकोण से एक कठिन कार्य है।
- इस सन्दर्भ में स्थायी संसदीय समिति की अनुशंसा कि चुनाव दो चरणों में आयोजित किये जाने चाहिये, काफी उचित नज़र आती है। पहले चरण में आधी विधानसभाओं के लिये लोकसभा के मध्यावधि में और शेष का लोकसभा के साथ।
- यहाँ विधि आयोग की उस अनुशंसा को भी महत्त्व दिया जाना चाहिये, जिसके अनुसार जिस विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा के आम चुनावों के 6 माह पश्चात् खत्म होना हो, उन विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ करा दिये जाएँ।
- लेकिन, 6 माह पश्चात् विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा हो जाए तब परिणाम जारी किये जाएँ। इससे संसाधनों का अपव्यय भी नहीं होगा और लोकतांत्रिक गतिशीलता भी बनी रहेगी।
निष्कर्ष
- कुछ अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि जब केंद्र और राज्य दोनों के ही एक साथ चुनाव आयोजित किये जाते हैं, तो अधिकांश भारतीय मतदाता एक ही पार्टी का चुनाव करते हैं।
- यद्यपि इसमें कोई शक नहीं है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार राज्यों की राजनीतिक स्वायत्तता को प्रभावित करेगा।
- फिर भी यदि संविधान संशोधन के माध्यम से यह विचार अमल में लाया जाता है, तो यह ध्यान रखना होगा कि संघवाद के मूल्य सरंक्षित रहें और देश की विविधता अक्षुण्ण बनी रहे।