कितना उचित है ‘इंटरनेट शटडाउन’? | 18 Oct 2017

भूमिका

  • किसी ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिये जहाँ एक क्षेत्र विशेष की जनता सरकार के कार्यों से नाराज़ है और शांति प्रदर्शन कर अपना विरोध जताना चाहती है, सरकार को लगता है कि इस विरोध प्रदर्शन के कारण हिंसा भड़क सकती है और माहौल खराब हो सकता है। इन परिस्थितियों में क्या सरकार द्वारा संबंधित क्षेत्र की जलापूर्ति रोकी जा सकती है?
  • सरकारें अमूमन ऐसा नहीं करती हैं, लेकिन क्या यही बात ‘इंटरनेट शटडाउन’ यानी इंटरनेट सेवाओं पर रोक के संबंध में भी कही जा सकती है? दरअसल, जलापूर्ति, खाद्य आपूर्ति आदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं| अतः इनकी अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है, जबकि इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता।
  • हालाँकि, इंटरनेट की सुविधा को एक आवश्यक अधिकार बनाने का विचार आज-कल ज़ोर पकड़ रहा है। जबकि विडंबना यह है कि इस वर्ष यानी 2017 में अब तक देश में कुल 29 बार ‘इंटरनेट शटडाउन’ हो चुका है, जबकि वर्ष 2016 में 31 बार ऐसा किया गया था।

इस संबंध में न्यायपालिका का दृष्टिकोण

  • विदित हो कि उच्चतम न्यायालय ने मोबाइल इंटरनेट सेवा पर प्रतिबंध लगाने के राज्यों के अधिकार को चुनौती देने वाली वर्ष 2016 में दायर एक अपील खारिज़ कर दी थी। न्यायालय का मानना था कि कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के लिये इस तरह का प्रतिबंध लगाना गलत नहीं है।
  • दरअसल, याचिकाकर्त्ता ने दंड विधान संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत राज्य सरकारों को दिये गए ऐसे अधिकारों को चुनौती दी थी। न्यायालय ने कहा कि कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिये कभी-कभी ऐसा कदम उठाना ज़रूरी हो जाता है और कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति से निपटने के लिये समवर्ती अधिकार होने ज़रूरी हैं।
  • उल्लेखनीय है कि एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट के इस्तेमाल को नागरिकों का अधिकार बताया था। हालाँकि साथ में यह भी कहा था कि जब तक कानून सम्मत तरीके से इसका इस्तेमाल किया जाता है, इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। शीर्ष अदालत का मानना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी में ‘सूचनाएँ हासिल करने’ का अधिकार भी शामिल है, जो इंटरनेट महज़ एक क्लिक के ज़रिये हासिल करने का अधिकार देता है।

इंटरनेट की सुविधा का अधिकार एक उत्तम पहल क्यों? 

  • आज जब सरकार कैशलेस इकॉनमी की तरफ बढ़ने के अभियान के साथ ही ई-गवर्नेंस और डिजिटलीकरण को बढ़ावा दे रही है तो ऐसे में इंटरनेट तक सबकी पहुँच ज़्यादा ज़रूरी हो जाती है।
  • विदित हो कि संयुक्त राष्ट्र ने भी यह कहा है कि विश्व के सभी देशों को इंटरनेट की सुविधा को बुनियादी मानवाधिकार घोषित कर देना चाहिये।
  • विश्व के कई देश पहले ही इस व्यवस्था को अपना चुके हैं। गौरतलब है कि साल 2010 में स्वीडन दुनिया का पहला ऐसा देश बना था, जहाँ हाई-स्पीड इंटरनेट को प्राथमिक कानूनी अधिकार के तौर पर शामिल किया गया था।
  • इसके बाद कनाडा ने भी पिछले साल स्वीडन की तर्ज़ पर फैसला किया कि हर नागरिक को कम-से-कम 50 एमबीपीएस की स्पीड से इंटरनेट की सुविधा मिलनी चाहिये।

इंटरनेट शटडाउन अनुचित क्यों?

  • सवाल यह है कि बार-बार इंटरनेट बंद कर देना कितना सही है वह भी तब, जब सरकार देश को डिजिटल इंडिया बनाने का सपना देख रही है। माना जा रहा है कि इंटरनेट पर रोक नागरिकों की अभिव्यिक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तो छिनती ही है, इससे देश को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है।
  • दरअसल, सैकड़ों स्टार्ट-अप या इंटरनेट पर निर्भर रहने वाले व्यवसाय कुछ घंटों की पाबंदी से ही बड़े नुकसान में आ जाते हैं। विदित हो कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले 2016 में इंटरनेट के बंद होने के चलते भारत को करीब छह हज़ार करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है।
  • यह समय का वह दौर है, जब व्यावसायिक से लेकर निजी रिश्ते तक डिजिटल कम्युनिकेशन पर निर्भर करते हैं। ऐसे में इंटरनेट बंद होना न सिर्फ असुविधा का कारण बनता है, बल्कि बहुत से मौकों पर सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भी साबित हो सकता है।

इंटरनेट शटडाउन उचित क्यों?

  • हालाँकि, कुछ मौकों पर सरकार का यह फैसला सही भी नज़र आता है। यदि जाट या पाटीदार आंदोलनों के दौरान अगर इंटरनेट बंद नहीं किया गया होता तो शायद हिंसा और भी विकराल हो सकती थी।
  • धार्मिक समूहों में टकराव की संभावना को टालने के लिये भी ऐसा करना सही लगता है।
  • ऐसी खतरनाक और अप्रिय स्थितियों को टालने के लिये आर्थिक नुकसान को नज़रअंदाज कर देना भी गलत नहीं कहा जा सकता।

आगे की राह

  • दरअसल, लगभग प्रत्येक सोशल साइट या एप्प में यह सुविधा दी जाती है कि यूज़र्स स्वयं अफवाहों की पहचान करते हुए प्रेषक को ब्लॉक कर सकें, लेकिन जब प्रशासन ऐसा करने लगे तो इस पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।
  • वास्तव में इस संबंध में कोई नीति या प्रावधान है ही नहीं, जिसके माध्यम से यह निर्धारित किया जा सके कि किन परिस्थितियों में इंटरनेट बंद किया जाना चाहिये। जैसे ही कोई अप्रिय घटना सामने आती है, आनन-फानन में इंटरनेट सेवा बंद कर दी जाती है।
  • बेहतर तो यह होगा कि इंटरनेट बंद करने से पहले प्रशासन यह सोचे कि उपद्रव की स्थिति में, उसका सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। प्रशासन लोगों से बात करे,  सही तथ्यों को उन तक पहुँचाए और इसके लिये ज़रूरी है कि इंटरनेट सेवा बंद न हो।
  • कोई तरीका निकालना चाहिये कि सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं को सामूहिक रूप से सूचना भेजी जा सके और यह तब तक संभव नहीं है, जब तक कि इस संबंध में कोई नीति नहीं बनाई जाती। अतः वक्त आ गया है कि सरकार इस संबंध में एक प्रभावकारी नीति बनाने की प्रक्रिया आरंभ करे।

निष्कर्ष

  • आज इंटरनेट हम सब के जीवन का एक अहम् हिस्सा है। यहाँ तक कि सरकार भी अपने कई काम एप के ज़रिये ही करती है। ई-कॉमर्स, होटल, पर्यटन से लेकर तमाम तरह के बिज़नेस इंटरनेट के ज़रिये ही होते हैं। 
  • ज़ाहिर है इंटरनेट अब हवा-पानी की तरह ही हो चुका है। यदि प्रशासन हिंसक स्थिति में पानी की सप्लाई बंद नहीं करता तो फिर इंटरनेट बंद करना कहाँ तक उचित है?
  • हालाँकि, अत्यंत ही विकट परिस्थितयों में ऐसा करना उचित भी नज़र आता है, लेकिन इंटरनेट बंद करना अंतिम उपाय होना चाहिये, न कि पहला कदम। अन्यथा इंटरनेट शटडाउन की यह प्रवृत्ति कभी भी लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिये खतरा बन सकती है।