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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कितना प्रभावी होगा "सामरिक भागीदारी मॉडल"?

  • 21 Aug 2017
  • 9 min read

संदर्भ 

  • कुछ महीने पहले ही भारत सरकार द्वारा रक्षा उत्पादन के लिये "सामरिक भागीदारी मॉडल" को मंज़ूरी दी गई थी। इस नीति का उद्देश्य भारत के रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना है।
  • चुनिंदा भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर रक्षा विनिर्माण की ज़रूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। विजय केलकर के नेतृत्व में एक समिति ने एक दशक पहले इस आशय के समर्थन में प्रस्ताव भी रखा था।
  • दरअसल, सरकार का निजी क्षेत्र की तरफ यह झुकाव सार्वजनिक क्षेत्र की विफलताओं को दर्शाता है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (Defence Research and Development Organization-DRDO) और सार्वजनिक रक्षा क्षेत्र के उपक्रम (Defence Public Sector Undertakings-DPSUs) भारतीय सशस्त्र बलों की ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहे हैं।
  • सामरिक भागीदारी मॉडल की प्रभावशीलता के बारे में बात करने से पहले हम यह देखते हैं कि यह है क्या ?

क्या है "सामरिक भागीदारी मॉडल" ?

  • घरेलू निजी क्षेत्र की भागीदारी से देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने तथा रक्षा उपकरणों की खरीद के लिये विदेशों पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से सरकार ने 'सामरिक भागीदारी मॉडल' बनाया है।

  • इस मॉडल के तहत रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम मिलकर काम करेंगे।

  • इस नीति के प्रारंभिक चरण में सरकार किसी एक मुख्य प्रणाली के निर्माण हेतु सामरिक भागीदार के रूप में एक निजी भारतीय इकाई की पहचान करेगी। चयनित कंपनियाँ इन प्रणालियों के उत्पादन के लिये विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित कर सकती हैं।

  • अर्थात् इस मॉडल के लागू होने के बाद देश में ही पनडुब्बी, बख्तरबंद वाहन, लड़ाकू विमान एवं अन्य उपकरण बनाने के लिये निजी कंपनियों को जिम्मेदारी दी जाएगी। ये कंपनीयाँ विदेशी प्रतिष्ठानों के साथ नियमों के अनुसार भागीदारी कर रक्षा उपकरणों को देश में ही बना सकेंगी।बाद में इस सूची में अन्य रक्षा उपकरणों को भी शामिल किया जाएगा।

"सामरिक भागीदारी मॉडल" से प्राप्त होने वाले लाभ

  • दरअसल, कहा यह जा रहा है कि "सामरिक भागीदारी मॉडल" की नीति से सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा मिलेगा तथा साथ ही स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और छोटे उद्योगों की मदद से देश में रक्षा उपकरण उत्पादन का माहौल बनाने में मदद मिलेगी।

  • यह नीति तैयार करने के लिये सरकार ने सभी संबद्ध पक्षों से विस्तृत विचार विमर्श किया है, जिससे वे रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में लंबे समय तक भागीदार बने रह सकें। सरकार के इस कदम से भारतीय कंपनियों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने और रक्षा उत्पादन क्षेत्र का घरेलू बुनियादी ढाँचा बनाने में मदद मिलेगी।

क्यों अपर्याप्त प्रयास है "सामरिक भागीदारी मॉडल" ?

  • इसमें कोई दो राय नहीं कि यह प्रयास रक्षा उत्पादन के लिये अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह अपर्याप्त होगा। हम इस प्रयास को ‘अपर्याप्त’ क्यों कह रहे हैं इसके लिये हमें ‘आईएनएस गोदावरी’ के निर्माण की कहानी जाननी होगी।

  • विदित हो कि सन 71 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद भारतीय नेवी को एक शक्तिशाली युध्दपोत की ज़रूरत महसूस हो रही थी और वर्ष 1974 में इस पर काम शुरू हो गया। दरअसल, इसी वक्त आर्मी को ‘मुख्य युध्दक टैंकों’ और एयर फोर्स को ‘हल्के लड़ाकू विमानों’ की सख्त ज़रूरत महसूस हो रही थी और इनपर भी कार्य आरम्भ कर दिया गया।

  • कार्य आरंभ होने के 9 वर्षों के बाद ही आईएनएस गोदावरी भारतीय नेवी को समर्पित कर दी गई, लेकिन मुख्य युद्धक टैंकों एवं हल्के लड़ाकू विमानों के निर्माण में तीन दशक लग गए और जब ये बनकर आए तो आर्मी और एयर फोर्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए।

  • दरअसल, हुआ यह था कि नौसैनिक डिज़ाइन निदेशालय (Directorate of Naval Design-DND) और नेवी के दक्ष इंजीनियरों ने अपनी क्षमताओं और ज़रूरतों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए आईएनएस गोदावरी के निर्माण में बेहतरीन काम किया था।

  • आईएनएस गोदावरी के लिये नेवी का इंजीनियरिंग दल जहाँ गैस प्रणोदन (gas propulsion) तकनीक की वकालत कर रहा था, वहीं डीएनडी ने राय दी कि भाप प्रणोदन (steam propulsion) तकनीक का प्रयोग करना बेहतर रहेगा। दोनों पक्षों के बीच इस बात को लेकर ज़ोरदार बहस हुई और अंत में भाप प्रणोदन (steam propulsion) तकनीक पर सहमति बनी और यह निर्णायक साबित हुई; उल्लेखनीय है कि आईएनएस गोदावरी को नेवी की आवश्यकताओं के अनुरूप पाया गया।

नेवी और अन्य सेनाओं की क्षमता में अंतर क्यों ?

  • आईएनएस गोदावरी के सफल निर्माण ने नौसेना की संगठित क्षमता के महत्त्व से देश को रूबरू कराया, जबकि आर्मी और एयर फोर्स इस मामले में कहीं पीछे रह गए।

  • दरअसल, वर्ष 1957 में ही नौसेना ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, खड़गपुर से नौसेना के लिये इंजीनियरों का चयन कर उन्हें दो साल के लिये ब्रिटेन भेजना शुरू कर दिया था।

  • ब्रिटेन में उन्हें ‘लांग नेवल आर्किटेक्चर कोर्स’ (Long Naval Architecture Course) कराया गया। इस तरह से उनकी क्षमता वृद्धि का आधार तैयार हुआ। जबकि आर्मी और एयर फोर्स के लिये हम इस प्रकार के कदम नहीं उठा पाए हैं। कुछ प्रयास हुए भी हैं तो वे नाकाफी साबित हुए हैं।

निष्कर्ष

आरम्भ में हमारी आर्मी हथियार और गोला बारूद के लिये आर्डिनेंस फैक्ट्रियों पर आश्रित रही और फिर बाद में डीआरडीओ पर निर्भर हो गई। वहीं एयर फोर्स ने अपने डिज़ाइन विशेषज्ञों को रक्षा सामग्री का उत्पादन करने वाली सार्वजनिक कंपनियों में लगा दिया। यही कारण है कि हमारी सेनाओं की मांग के अनुरूप निर्माण नहीं हो पाए और आज हम निजी क्षेत्र के साथ हाथ मिलाने को मज़बूर हैं।

अब जब हमने निजी क्षेत्र को रक्षा क्षेत्र में आमंत्रित कर ही दिया है तो हमें अपनी पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए आगे बढ़ना होगा। उपयोगकर्त्ताओं और डेवलपर्स के बीच समन्वय स्थापित करना होगा, सेनाओं की संगठित क्षमता वृद्धि पर ध्यान देना होगा और जो मानक भारतीय नेवी ने स्थापित किये हैं उसका अनुसरण करना होगा। यदि इन उपायों का संज्ञान नहीं लिया गया तो "सामरिक भागीदारी मॉडल" अपर्याप्त प्रयास ही प्रमाणित होगा।

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