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उच्च शिक्षा और क्षेत्रीय भाषाएँ

  • 28 Aug 2021
  • 14 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 27/08/2021 को ‘लाइवमिंट’ में प्रकाशित “Is it practical to conduct higher education in regional languages?” लेख पर आधारित है। इसमें उच्च शिक्षा क्षेत्र में भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के प्रवेश और इससे संबद्ध गुण-दोषों पर विचार किया गया है।

भारत में उच्च अध्ययन-अध्यापन मुख्य रूप से विदेशी भाषाओं में होता रहा है, जबकि भारतीय भाषाओं को इस क्षेत्र में इतना महत्त्व कभी भी नहीं मिला।

हालाँकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 (NEP, 2020) ने प्राथमिक और उच्च शिक्षा स्तरों पर शिक्षा के लिये क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग पर बल दिया।  

इसी परिप्रेक्ष्य में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council for Technical Education- AICTE) ने देश भर के 14 कॉलेजों को हिंदी, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मलयालम, असमिया, पंजाबी और उड़िया सहित 11 क्षेत्रीय भाषाओं में चुनिंदा इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों की पेशकश की अनुमति दी है। 

यहाँ अपरिहार्य प्रश्न यह है कि क्या उच्च शिक्षा क्षेत्र में एक क्षेत्रीय-माध्यम परिवर्तन को हड़बड़ी में आगे बढ़ाना व्यावहारिक है, विशेष रूप से तब जबकि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली प्रायः अक्षम ही बनी रही है?

क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा के सकारात्मक पहलू

  • विषय-विशिष्ट सुधार: भारत और अन्य एशियाई देशों में किये गए कई अध्ययन यह बताते हैं अंग्रेज़ी माध्यम के बजाय क्षेत्रीय माध्यम का उपयोग करने वाले छात्रों के अधिगम प्रतिफलों (learning outcomes) पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
    • विशेष रूप से विज्ञान और गणित विषय के मामले में अंग्रेज़ी की तुलना में अपनी मातृभाषा में अध्ययन करने वाले छात्रों में बेहतर प्रदर्शन स्तर पाया गया है।   
  • भागीदारी की उच्च दर: मातृभाषा में अध्ययन का अवसर उच्च उपस्थिति दर, प्रेरणा और छात्रों में स्वयं को अभिव्यक्त कर सकने के आत्मविश्वास में वृद्धि जैसे परिणाम देता है। इसके साथ ही, मातृभाषा से परिचय के कारण माता-पिता की संलग्नता और सहयोग में भी सुधार की स्थिति बनती है।      
    • कई शिक्षाविदों द्वारा प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग शिक्षा संस्थानों में ड्रॉपआउट दरों के साथ-साथ कुछ छात्रों के खराब प्रदर्शन के लिये अंग्रेज़ी पर खराब पकड़ को प्रमुख कारण के रूप में देखा गया है।
  • कम-सुविधासंपन्न लोगों के लिये अतिरिक्त लाभ: यह विशेष रूप से उन छात्रों के लिये प्रासंगिक है जो पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं (अर्थात अपनी समग्र पीढ़ी में पहली बार स्कूल जाने और शिक्षा प्राप्त करने वाले) या ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं—जो अंग्रेज़ी जैसी किसी विदेशी भाषा में अपरिचित अवधारणाओं से भय महसूस कर सकते हैं।     
  • सकल नामांकन अनुपात में वृद्धि: यह अधिकाधिक छात्रों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने में मदद करेगा और इस प्रकार उच्च शिक्षा क्षेत्र में सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio- GER) की वृद्धि करेगा।    
  • भाषाई विविधता को प्रोत्साहन: यह सभी भारतीय भाषाओं की क्षमता, उपयोग और जीवंतता को भी बढ़ावा देगा।  
    • इस प्रकार, निजी संस्थान भी भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने और/अथवा द्विभाषी कार्यक्रम पेश करने के लिये प्रेरित होंगे।
    • यह भाषा-आधारित भेदभाव को रोकने में भी मदद करेगा।

संबद्ध चुनौतियाँ

  • नियुक्ति प्रतिमान में परिवर्तन: तृतीयक शिक्षा में क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने का निर्णय प्रमुख संस्थानों के भर्ती/नियुक्ति निर्णयों में हस्तक्षेप करेगा क्योंकि वे विषय-वस्तु विशेषज्ञता के विपरीत भाषा प्रवीणता को प्राथमिक मानदंड के रूप में देखने को विवश होंगे।    
    • उन्हें शिक्षण के लिये वैश्विक प्रतिभा पूल से शिक्षकों की तलाश करने का अभ्यास भी छोड़ना होगा।  
  • अखिल भारतीय प्रवेश लेने वाले संस्थानों के लिये निरर्थक उपक्रम: ऐसे परिदृश्य में क्षेत्रीय भाषा पर बल देना सार्थक नहीं होगा जहाँ IITs जैसे कई प्रतिष्ठित संस्थान देश भर के प्रवेशकों को आमंत्रित करते हैं।   
  • क्षेत्रीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण सामग्री की उपलब्धता: एक अन्य चुनौती पाठ्यपुस्तकों और विद्वत साहित्य जैसी अध्ययन सामग्री की उपलब्धता की होगी।  
    • इसके साथ ही, अर्थ संबंधी अनियमितताओं को दूर रखने के लिये इनके अनुवादों का गुणवत्ता नियंत्रण भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा।  
  • नियोजन से संबद्ध चुनौती: कई सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ प्रवेश स्तर के पदों के लिये ‘ग्रेजुएट एप्टीट्यूड टेस्ट इन इंजीनियरिंग’ (GATE) के स्कोर स्वीकार करती हैं, जो अंग्रेज़ी माध्यम में आयोजित किया जाता है।   
    • कॉलेज-शिक्षित व्यक्तियों की पहले से ही निराशाजनक रोज़गार स्थिति को देखते हुए प्रतीत होता है कि एक क्षेत्रीय भाषा में अध्ययन रोज़गार के अवसरों को और बाधित कर सकता है। 
  • संकाय की उपलब्धता: चूँकि भारत में उच्च शिक्षा के अंग्रेज़ी माध्यम की विरासत रही है, क्षेत्रीय भाषा में शिक्षण करने के इच्छुक और क्षमतावान गुणवत्तायुक्त शिक्षकों को आकर्षित करना और उन्हें बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी।   
  • वैश्विक मानकों के साथ गति बनाए रखना: क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी पाठ्यक्रम देने से छात्रों को वैश्विक श्रम और शिक्षा बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धा कर सकने के अवसर से वंचित किया जा सकता है, क्योंकि निश्चय ही वहाँ अंग्रेज़ी में प्रवणता एक अलग बढ़त प्रदान करती है।   
    • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय छात्रों के लिये अवसरों की कमी NEP, 2020 के उद्देश्य (अभिजात वर्ग और शेष के बीच की खाई को पाटना) के प्रतिकूल साबित हो सकती है।
    • यह शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण को प्रोत्साहन देने के दृष्टिकोण के भी विरुद्ध है।

आगे की राह 

  • आधार का निर्माण: क्षेत्रीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिये सरकार ने जिस तरह की आधिकारिक आज्ञा को अपनाया है, वह समस्याग्रस्त है।  
    • उदाहरण के लिये, अनुदान के माध्यम से क्षेत्रीय भाषा में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिये पहले एक आधार के निर्माण की आवश्यकता है।  
  • IITI को योजना में शामिल करना: सर्वप्रथम अनुवाद और व्याख्या में गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रम का सृजन कर भारतीय भाषाओं में उच्च गुणवत्तायुक्त अधिगम और प्रिंट सामग्री का विकास करना होगा।  
    • इस संबंध में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन (IITI)’ की स्थापना की जाएगी जो भारतीय भाषाओं के विद्वानों, विषय विशेषज्ञों और अनुवाद एवं व्याख्या के विशेषज्ञों को नियुक्त करेगा।
  • शिक्षा के लिये निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रणाली: सरकार को निष्पक्षता और समावेशन के सिद्धांतों पर आधारित न्यायसंगत प्रणाली विकसित करने के लिये कार्य करना होगा।  
    • यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि छात्रों की व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितियाँ किसी भी तरह से उनकी पूर्ण शैक्षणिक क्षमता को साकार करने में बाधा न बनें।  
    • इसके साथ-साथ, मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के उपयोग के माध्यम से समावेशन सुनिश्चित करते हुए, सरकार को शिक्षा का एक आधारभूत न्यूनतम मानक भी तय करना चाहिये जो सभी असमानताओं को समाप्त करता हो। 
  • "क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेज़ी के योग" की धारणा को अपनाना: जबकि शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को सशक्त किया जाना आवश्यक है, छात्रों के लिये अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़ का होना भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि वे 21वीं सदी में वैश्विक मूल-निवासी होने की स्थिति रखते हैं।    
    • भारतीय भाषाओं को अंग्रेज़ी की पूरकता प्रदान की जानी चाहिये।
  • ‘डिजिटल डिवाइड’ को भरना: AICTE ने हाल ही में एक उपकरण विकसित किया है जो अंग्रेज़ी के कंटेंट का 11 भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में ऑनलाइन अनुवाद करता है।  
    • अपने सभी छात्रों को ऐसी सुविधा प्रदान करने के लिये संस्थानों को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के स्कूली तथा कॉलेज जाने वाले छात्रों को इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एवं इंटरनेट सुविधाएँ प्रदान करने को प्राथमिकता देना होगा।

निष्कर्ष

  • भारतीय भाषाएँ शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के लिये अति आवश्यक हैं क्योंकि वे शिक्षा में समानता को सशक्त करती हैं तथा वे छात्रों को भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण का उपयोग करते हुए एक स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक समाज में रहने के लिये तैयार करेंगी।  
  • एक तेज़ी से वैश्वीकृत होती दुनिया में देशी भाषा में शिक्षण के निहितार्थ के लिये एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। 
    • "मातृभाषा बनाम अंग्रेज़ी" से "मातृभाषा और अंग्रेज़ी के योग" की ओर संक्रमण या स्थानांतरण आवश्यक है।   

अभ्यास प्रश्न: "यद्यपि छात्रों के आरंभिक वर्षों में क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान करना बेहतर अधिगम और समझ को अवसर प्रदान कर सकता है लेकिन शिक्षा के वैश्विक मानकों के साथ तालमेल बनाए रखने के लिये उनका अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़ होना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।" चर्चा कीजिये।

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